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जीव-विज्ञान
लगता है यह भी आगे बताया जाएगा। यहाँ आचार्य यह बता रहे हैं कि इस जीव की भी अनुश्रेणि गति होती है और पुद्गलों की भी अनुश्रेणि गति होती है। कुछ पुद्गल परमाणु ऐसे होते हैं जो बिल्कुल श्रेणी के अनुसार चलते हैं। यहाँ से निकले शब्द परमाणु भी हो सकते हैं या अन्य परमाणु भी हो सकते हैं। यहाँ से निकलकर वह एक साथ एक समय में ही चौदह राजू की दूरी तय कर सकते हैं। यह गति जीव और पुदगल दोनों की हो सकती है। यह गति तो उनकी होगी जो जीव कर्म से सहित होकर विग्रह गति में चल रहे हैं उन्हीं की होगी और पुद्गल परमाणुओं की होगी। अन्य जो जीव हैं, जो शरीर सहित हैं जिनको हम पकड़ सकते हैं अपनी इच्छानुसार चला सकते हैं, स्वयं चल सकते हैं तो वह जीव बिना श्रेणी के भी गमन करते हैं। जैसे कि-आप और हम अगर गमन करेंगे तो श्रेणी के अनुसार नहीं करेंगे। हम बिना श्रेणी के भी गमन कर सकते हैं। इस औदारिक शरीर के साथ सीधे भी गमन कर सकते हैं। यह श्रेणी से रहित गति कहलाएगी। कहने का तात्पर्य है जो जीव संसार में इस शरीर के साथ है वह तो बिना श्रेणी गति कर सकते हैं लेकिन जब कार्मण शरीर के साथ रह जाओगे तो उस समय तो केवल अनुश्रेणि गति ही होगी। इसी तरह से जो पुद्गल स्कन्ध के रूप में हैं उन्हें हम कहीं से कहीं भी फेंक सकते हैं, उन्हें तिरछी दिशा में कहीं पर भी पहुँचा सकते हैं, उनकी गति भी विश्रेणी गति हो जाएगी लेकिन जो पुद्गल के कुछ विशिष्ट परमाणु ही होते हैं उनकी जो गति होगी वह केवल अनुश्रेणि गति ही होगी। इस तरह से अनुश्रेणि गति जीव और पुद्गल दोनों की ही होती है। आगे के सूत्र में आचार्य मुक्त जीवों की गति बता रहे हैं
अविग्रहा जीवस्य ।। 27 || अर्थ-मुक्त जीव की गति वक्रता रहित सीधी होती है। विग्रह के दो भेद-जिसमें मुड़ना पड़े वह विग्रहवती, जिसमें मुड़ना ना पड़े वह अविग्रहा गति।।
जीव की गति के विषय में बताया जा रहा है। विग्रहा का अर्थ है-जिनके लिए मोड़ा लेना पड़ता है तो उनके लिए कहेंगे विग्रह वाली गति और जिनको कोई मोड़ नहीं लेना पड़ता उनके लिए कहेंगे विग्रह से रहित गति अर्थात् अविग्रह गति । यहाँ पर यह बताया जा रहा है-जीवों की विग्रह से रहित गति भी होती है। वह गति संसारी और मुक्त दोनों जीवों की हो सकती है। विग्रह वाली जो गति होगी वह तो नियम से संसारी जीवों की ही होगी। संसारी जीव दोनों प्रकार की गति कर सकते हैं-विग्रह से सहित भी और विग्रह से रहित भी। लेकिन मुक्त जीवों की जो गति होगी वह विग्रह से रहित ही होगी। वह अविग्रह गति ही कहलाएगी। इसलिए यह सूत्र मुख्य रूप से मुक्त जीवों के लिए आया है। उनके लिए नियम बनाने के लिए आया है -“अविग्रहा जीवस्य । यहाँ संसारी जीवों का वर्णन चल रहा था। इस सूत्र में जीव का अर्थ हुआ जो जीव मुक्त हो गए है उनकी जो गति होगी वह अविग्रह गति ही होगी। जैसे-सिद्ध जीव हैं। वह कभी मोड़ा लेकर गमन नहीं करेंगे। जिस स्थान से उनका सिद्धत्व हुआ है वहीं से सीधे उसी श्रेणी में उनकी आत्मा गमन करके सिद्ध लोक के अग्रभाग
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