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जीव-विज्ञ
पुद्गलों का समूह वहाँ पर इकट्ठा होता रहता है । द्रव्येन्द्रियों की रचना भी वहाँ पर होती रहती है और जब हम पूर्ण हो जाते हैं तब हमारा जन्म होता है। ये रचना समझ में आने पर आप समझ सकते हो कि सारा का सारा पुरुषार्थ आत्मा का स्वयं का होता है। आत्मा स्वयं अपने कर्म का क्षयोपशम पूर्व जन्म से लेकर आता है। कोई उसे हाथ नहीं लगा सकता है । वहाँ तक कोई मशीन नहीं पहुँच सकती। किसी भी आत्मा को हम पंचेन्द्रिय या चार इन्द्रिय का नहीं बना सकते। यह तो उसके स्वयं केही पुरुषार्थ और क्षयोपशम का कार्य है। ये सब होने के बाद में अपने आप उस तरह के पुद्गल परमाणु उस आत्मा के प्रदेशों पर इकट्ठे होने लग जाते हैं। उन-उन स्थानों पर स्थिर रूप से वह रचना होने लग जाती है और वही रचना होकर हमारे शरीर में दिखाई देने लग जाती है। किसी भी भगवान का इसमें कोई हाथ नहीं है। कोई भी भगवान न हमको पंचेन्द्रिय बना रहा है, न हमें आँखें दे रहा है और न हमारी आँखों को खराब कर रहा है।
यदि किसी के जन्म से ही इन्द्रियों में कोई विकलता (कमी) है तो उसके स्वयं के क्षयोपशम की कमी, अन्य असाता वेदनीय कर्मों के उदय के फल से उसको इस प्रकार की शरीर की रचना मिलती है कि उसकी कुछ इन्द्रियों में खराबी है या विकलताएं हैं। ये सब चीजें हमें अपने कर्म के अनुसार ही प्राप्त होती हैं। इसलिए जन्म से जो चीजें प्राप्त होती है उनमें सुधार करना बहुत कठिन होता है या यह भी कह सकते है कि असम्भव होता है। इस तरह से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के स्वरूप को समझकर यह जानना कि इन्हीं से हमारी आत्मा की पहिचान है। किससे आत्मा की पहिचान है?ये पाँच इन्द्रियाँ हमारी आत्मा है । क्योंकि पाँच इन्द्रियों को लिए हुए यह जो आत्मा है उसकी पहिचान इन इन्द्रियों से हो रही है । इन्द्रियों की परिभाषा में आचार्यों ने कहा है- “इन्द्रिय हमारी आत्मा की पहिचान का लिंग है अर्थात चिह्न है" इसी के माध्यम से आत्मा की पहिचान हो रही है। जो चार इन्द्रिय के रूप में मच्छर हैं, कीट-पतंगे इत्यादि हैं, इनकी पहिचान इन्हीं इन्द्रिय के रूप में होगी कि वह चार इन्द्रिय आत्मा है। इन इन्द्रियों को भी समझकर हम अपनी आत्मा की पहचान कर सकते हैं कि मैं पाँच इन्द्रिय वाला आत्मा हूँ। मेरी आत्मा में पाँच इन्द्रियों की लब्धियाँ, उपयोग, निर्वृत्तियाँ, उपकरण सब मिलकर मैं पाँच इन्द्रियों के भोग-उपभोग को पूर्ण रूप से देख रहा हूँ और कर रहा हूँ। यह ज्ञान जब हमारे अंदर आता है तो अपने आप हमें कर्मों पर विश्वास होता है और अपनी आत्मा पर विश्वास होगा। यह भी विश्वास होगा कि बाहरी कोई भी चीजें करने वाली नहीं है। अपने कर्म के क्षयोपशम से ही प्रत्येक आत्मा अपनी इन्द्रियों की प्राप्ति करता है। गर्भ से बाहर आने के बाद तो आप अपनी इन्द्रियों की सुरक्षा अपनी बुद्धि से जितना चाहे कर सकोगे लेकिन क्षयोपशम जिसको जितना मिल गया है वह तो बना ही रहेगा ।
यदि कोई आँख से नहीं देख सकता है तो भी उसके पास क्षयोपशम तो है । वह नेत्र इन्द्रिय-जन्य क्षयोपशम कहलाएगा। फिर कमी किसमें है? कमी उपकरण में कहलाएगी। क्योंकि निर्वृत्ति भी हुई है, लब्धि भी हुई है, उपयोग भी है लेकिन द्रव्य-उपकरण में कमी आ गई है। या यह भी कह सकते हैं बाहरी उपकरण या अभ्यतंर उपकरण में कमी आ गई है। इसके कारण उसको
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