Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 23
________________ जीव-विज्ञान उसमें त्रस जीवों की हिंसा न हो जाय तो यह उनके संयम का कारण बनता है। इस तरह से इसे संयमासंयम कहते हैं। यह संयमासंयम क्षयोपशम भाव कहलाता है। क्षयोपशमभाव की यह विशेषता होती है कि यह आत्मा में देशघाती कर्मों के उदय के साथ ही होता है अन्यथा यह औदयिकभाव में चला जाएगा और औदयिकभाव कभी भी संयमभाव नहीं होता है। संयम को घात करने वाले कर्मों के उदय का अभाव होने पर यह संयम भाव प्रकट होना कहलाएंगे। इन्हीं को पाँचवें गुणस्थान वाले व्रती जीव भी कहेंगे। जो कम से कम बारह व्रतों का पालन करते हुए तथा दो प्रतिमाओं को धारण करते हुए आगे बढ़ते हैं और उससे पहले जो जीव हैं वे सभी असंयमी या अव्रती ही कहलाएंगे। इस तरह से संयमासंयमी को यहाँ क्षायोपशमिकभाव के रूप में गिना जाता है और इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए इस संयमासंयमी के क्षयोपशमभाव से असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा निरन्तर चलती रहती है। औदयिक भाव के इक्कीस भेदगति-कषाय-लिंग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्रयेकैकैकैक षड्भेदाः ।। 6 ।। अर्थ-नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव ये चार गति, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें, स्त्रीवेद, पूंवेद, नपुंसकवेद ये तीन वेद, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धत्व, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल ये छ: लेश्या-इस तरह सभी मिलकर औदयिक-भाव के इक्कीस भेद हैं। जो कर्म के उदय से होने वाले भाव हैं उन्हें औदयिक-भाव कहते हैं। गति-यह भी एक 3वेद स्त्री वेद पुरुष वेद नपुंसक वेद 4 कषाय क्रोध, मान माया, लोभ [ 6 लेश्याएँ कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल 4 गति नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देव गति औदयिक भाव 21 4 शेष मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व औदयिकभाव है। गतियाँ चार होती हैं-नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति । यह गति हमें गति नाम-कर्म के उदय से प्राप्त हुई है और हम जिस गति में रह रहे हैं, उस गति का भाव हममें बना ही रहेगा। आप मनुष्यत्व का भाव अनुभव कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं?गति नाम-कर्म के उदय 23

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