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इसके लिये जिम्मेवार हम ही होंगे, प्रकृति नहीं, प्रकृति व्यवस्था नहीं। इन प्रकृति-नियमों को नहीं जानना, यह अज्ञान और जानते हुए भी नहीं अपनाना, यह हमारा अक्खड़पन - हमारीलापरवाही हमें विपरीत फल - उल्टे परिणाम तो देंगे ही।
किसी विषय के अज्ञान को भी ज्ञानियों ने कर्मबंधन और दुःख का एक प्रधान कारण बताया है न?
अतः प्रथम तो प्रकृति, प्रकृति-व्यवस्था विषयक इन नियमों को हम समझें, जानें, इस अज्ञान को हम दूर करें - प्राकृतिक पंच तत्त्वों - पंचभूतों के वास्तु-नियमों को हम जानें और फिर उन्हें अपनायें, उपयोग में लायें, क्रियान्वित करें।
प्रकृति-आधारित वास्तु के जीवन-उपकारक विज्ञान द्वारा यह सब यहाँ दर्शाया और समझाया गया है। इनकी अनदेखी या उपेक्षा हम न करें। जन जन के लिये, आपहम-सभी-प्रत्येक व्यक्ति के लिये, यह उपकारक और उपयोगी होनेवाला है। इसके प्रकाशन में सहयोगी सभी ही शुभ ज्ञानार्जन-लाभ पाने वाले हैं।
आयें, हम इसे जानें, अपनायें और हमारे जीवन को सुख-स्वास्थ्य-शांत और संवादमय बनायें।
भारतीय संस्कृति की संस्कार-धारा में यह विज्ञान, यह शास्त्र सुदीर्घकाल से फला, फूला, फाला है और उसका कुछ उपयोगी अंश तो आज विलुप्त, विस्मृत या परिवर्तित रुपभीधारण कर चुका है।
ऊपर संकेत किये अनुसार मानव संस्कृति के आदि प्रणेता प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने इसे अपने द्वारा प्रशिक्षित ऐसी अनेक जीवन कलाओं में स्थान दिया था। उसके बाद तो काल के प्रवाह में वह बहता चला, दूर-सुदूर जाकर अन्य नवनव रूपों में भी आकार लेता हुआ फूलता-फालता रहा। अन्य अनेक भारतीय संस्कृति के विदेशों में परिचर्चित रूपों की भाँति शायद यह वास्तु-विज्ञान भी आज पूर्व के चीनजापान आदि देशों में जाकर फेंगशुई' जैसी उपकारक जीवन-कला के नवीन रुप में आया है। इसका और ऐसे अनेक विषयों का अन्वेषण संशोधन किया जाये तो जनजन के जैन वास्तु विज्ञान के कई रहस्य, कई उपकारक प्राचीन सत्य उद्घाटित होंगे। अस्तु! जनजन का यह जैन वास्तु सर्वजनोपयोगी बनें, सर्व का शिवकर बनें यही प्रार्थना
'शिवमस्तु सर्व जगतः।'
ॐ शांतिः ।
जैन वास्तुसार