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प्रत्येक नगर, प्रत्येक शहर, प्रत्येक गांव में ऐसे ही नहीं ; इन से भी विशेष बढ़कर स्वास्थ्य-साधना पूर्ण जैन आवासों की विशाल आयोजना करने वाले हैं - कोई दानवीर, हैं कोई कर्मवीर, हैं कोई धर्मवीर श्रावक और हैं कोई उनके सृजक प्रेरक युगवीर आचार्य? युगाचार्य?
वर्तमान के महारथी श्रावकों - आचार्यों की गतिविधियों का यदि हम तटस्थ लेखा - जोखा करें तो हमारे अनेक क्षेत्रों में अनेक अनुमोदनीय कार्यों का महत् योगदान होते हुए भी यह कहना होगा कि सात क्षेत्रों में से महत्त्व का एक क्षेत्र, कि जिस से सारे जैन समाज एवं जैन धर्म का विकास सम्बन्धित है, उपेक्षित रह गया है। वह है श्रावक-श्राविकाओं के समुचित योगक्षेम का। हमारा प्रवृत्ति प्रवाह और दान प्रवाह कई दिशाओं में बहा है (अग्रता - झीळीळीं या बिन-अग्रता के विवेक के बिना) परन्तु श्रावक को समृद्ध करना, स्वस्थ करना एवं आंतरिक संनिष्ठा सह सद्धर्माभिमुख करना अभी शेष रह गया है। और इस प्रक्रिया में प्रमुख है उनके सुचारु आवास की एवं जीवनयापन जीवन निर्वहन की व्यवस्था। इस दिशा में हम कितना कर पायें हैं इस बात का क्या हम प्रामाणिक निरीक्षण, आत्म-निरीक्षण करेंगे? श्रावक का आवास, श्रावक का स्वास्थ्य, श्रावक की आजीविका, श्रावक की शिक्षा, श्रावक का संस्कार-निर्माणइन सभी बातों पर क्या निर्भर नहीं, उस की धर्माराधना ? धर्मप्रभावना? उचित आवासविहीन, उचित आजीविका विहीन, अनेक चिन्ताओं आधि-व्याधि-उपाधि, अभावों से घिरा हुआ श्रावक क्या करेगा धर्माराधना? कैसे करेगा? क्या हमने कभी देखा है गहराई से, एक दर्दी कवि के शब्दों में, कि -
"क्या क्या खाकर जीते हैं वे? क्या क्या पीकर जीते हैं?
क्या क्या पहनकर जीते हैं वे? कहाँ कहाँ बसकर जीते हैं वे?" हमारे भावी आधार ऐसे बालकों को संस्कार देनेवाले हमारे सामान्य श्रावक ही नहीं, कई धर्माराधक, धर्मसंनिष्ठ, धर्मप्रचारक, धर्माभ्यासी विद्वान एवं विद्याजीवी कलाकार श्रावक भी कैसे जी रहे हैं, अन्य धर्मी लोगों की तुलना में कैसे जी रहे हैं, यह हमने कभी देखा? कभी सोचा? ___ यदि हमें बसने को अच्छा आवास, पुण्ययोग से मिला है तो क्या हमें कभी यह भाव होता है कि मैं अच्छे मकान में रह रहा हूँ तब दूसरा, मेरा सहधर्मी बन्धु ही गदे गलीज घर में रह रहा है उसे उठाने का, सहायभूत होने का क्या, कौन-सा प्रयत्न करूं?
__ यदि हमें अच्छा भोजन नसीब होता है तो भूखों को एकाध दिन ही नहीं, नित्यप्रति - आजीवन - भोजन मिलता रहे ऐसी व्यवस्था जुटाने क्या करूं? ___ ऐसे अन्यों से, अन्यजनों से, साम्यावस्था का करुणाभाव यदि हमारे भीतर उठता है तब तो जिनेश्वरों की शिक्षा कुछ हमारे पल्ले पड़ीमानी जायेगी।
भजन-जन का
जैन वास्तुसार
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