Book Title: Jan Jan Ka Jain Vastusara
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 116
________________ क्या हमें ज्ञात नहीं कि हमारे मूर्धन्य मार्गप्रदाता जिन भगवन्तों ने एवं अनेक अनुगामियों ने अपनी धन सम्पदा अन्यों के लिये कैसे लुटा दी? क्या हमें याद नहीं कि हमारे इन "खुले हाथों एवं सालों भर" दान धारा बहानेवाले राजकुमारों से लेकर अनेक श्रेष्ठिजनों ने "मुर्छामयपरिग्रह त्याग" का कैसा उदाहरण प्रस्तुत किया? विश्वकल्याण कर जिनेश्वर भगवंतों का "सर्वोदयतीर्थमय जैन धर्म' सदा अपरिग्रह का धर्म रहा है, मानवतावादी धर्म रहा है, देनेवाला - सब कुछ लुटा देनेवाला धर्म रहा है और वह भी बिना किसी उपकारभाव अहंभाव के, बिना मान-गुमान के, जगत् के ऋणों और परमाणुओं से मुक्त होने के भाव को लेकर। किन्तु ऐसी महान उदार त्याग परम्परा के वारिस ऐसे आज हम कहाँ है? हम कहीं "हिसाबी" तो नहीं बन गये? हमें हमारी दानधारा को और वह भी प्रथम तो रूखे-सूखे रेगिस्तान के क्षेत्रों में बहाना होगा और इसलिये पुनः पुनः एक ही प्रश्न की ध्वनि - प्रतिध्वनि आज उठ रही है - आज है कोई ऐसे दानवीर? है कोई युगवीर आचार्य ? युगाचार्य? आवास - सर्वप्रथम आवश्यकता : जिनाराधक वास्तुग्राम हमारे दानवीर कर्मवीरों युगवीरों के समक्ष यह चुनौती है। अर्थाभावों एवं आवास-निवासों के अभावों में पिस पिस कर जीनेवाले साधर्मिकों को सर्वप्रथम आवास उपलब्ध कराना अब उनकी सर्वप्रथम अग्रता होनी चाहिये। साधर्मिकों में भी अग्रता किसे दी जाय इस के नियमादि निर्धारित किये जा सकते हैं, ताकि सुयोग्य जरूरतमंद व्यक्ति प्रथम चुने जा सकें। फिर इन आवास-स्थानों का वर्गीकरण अन्य प्रकार से किया जाना चाहिये । यथा, नगर बीच के एवं नगर बाहर के। उपरान्त आवासों का आद्वितीय जैन संस्कृतिमय - जैनाचारमय जैन संस्कार संवर्धनमय वातावरण एवं स्वरूप निर्मित कर उनमें बसाये जानेवाले उपर्युक्त साधर्मिक श्रावकों की आचार संहिता एवं नियमावली बनायी जानी चाहिये और इन सब का पालन करनेकर सकने वाले "सुपात्रों" को ही वहाँ स्थान दिया जाना चाहिये, जो कि स्वयं का जीवन-निर्वहन करने के साथ धर्माराधना करते हुए अन्यों को,जगत्जनों को भी सप्त कुव्यसन रहित, परिशुद्ध जैन आचार-विचार का अपने साक्षात् जीवन से उदाहरण प्रस्तुत कर सकें। निःशुल्क, अर्धशुल्क एवं मूलदाम पर, त्रिविध प्रकार से ये जैन आवास सभी आवासहीन श्रावकों को उपलब्ध कराने का हमारे समक्ष अब समय आ चुका है - नगर बीच भी, बाहर भी। यहाँ रहने वाले श्रावक भी अपने जीवन को जैन जीवन शैली में ढालकर समाज के समक्ष एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर सकें और प्रत्येक आवासी, जैन वास्तुसार 92

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