________________
ध्यानमय प्रशमरस, शांति-प्रशांति-समता के भाव भरने की सूक्ष्म कला को प्रदर्शित करने की चुनौती भी रही। इनमें भी श्रवणबेलगोला की बाहुबलीजी गोम्मट - प्रतिमा के समान अनेक प्रतिमायें अपने वदन पर के ध्यान-निमग्न भावों
को प्रस्फुटित, अभिव्यक्त करने में अद्वितीय बन पड़ी हैं। * ऐसे ही प्रतिमाओं के साथ इर्द-गिर्द के कलाशिल्पों की विविधता और सूक्ष्मता
का अंकन देखें तो दिलवाड़ा, राणकपुर एवं अनेकानेक जैन तीर्थों की जिनप्रतिमाएँ अपने आप में अद्वितीय उदाहरण लिये विराजित (पद्मासनस्थ) या ऊर्धाजित (कायोत्सर्ग ध्यानवत्) रहकर सदियों से ध्यानोत्सुक यात्रियों को निमंत्रण, बुलावा देती रहीं हैं। अपना जिनसाक्षात्वत् अस्तित्त्व सिद्ध करती हुई वे सन्देश दे रही हैं कि "जिनप्रतिमा जिनसारिखी।" ऐसी प्रशमरस एवं परम प्रभावपूर्ण प्रतिमाओं को केन्द्र में रखनेवाले सारे जिनालय जैन वास्तु शिल्प
कला पर निर्मित। * ऐसे जिनालयों के शिखर भी महा प्रभावोत्पादक एवं अध्यात्म के, आत्मा के
ऊर्ध्वगमन के संदेश-वाहक। * ये सारे शिखर प्रायः ऊर्ध्वगामी नोकदार अथवा त्रिकोणाकार - पिरामिडाकार।
श्री शत्रुजय गिरिराज (इस ग्रंथ का मुखपृष्ठ), तारंगाजी और दक्षिण में कर्णाटक के मूडबिद्रि आदि जिनलयों के शिखर विशेष दृष्टव्य।
जैने बाँस्तुसार
जैन वास्तुसार
61