________________
बाद में प्रासाद को धारण करनेवाली शिला पर भिट्ट रखें- जिसका उदय एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को (भिट्ट का यह उदय) चार अंगुल का रखा जाय और पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद तक प्रत्येक हाथ पर आधे आधे अंगुल की वृद्धि कर के भिट्ट का उदय करें। अन्य प्रकारों से भी इस भिट्ट कामान करते हैं।
प्रासाद की पीठ का मान : पीठ के थर
प्रासाद जितने विस्तार में होता है उससे आधे भाग में से पीठ का उदय करना उत्तम है।
पीठ के थरों का स्वरूप अड्डथर, पुष्पकंठ, जाडयकुंभ, कणी और केवाळ ये पांच थर सामान्य पीठ में अवश्य होते हैं। उस पर गजथर, अश्वथर, सिंहथर, नरथर और हंसथर इन पांचथरों में से सभी अथवा कम यथाशक्ति बनाये जाते हैं।
प्रासाद की पीठ का मान "प्रासादमंडन" में विस्तार से सुंदर ढंग से दर्शाया गया है वह दक्षता पूर्वक अध्ययन कर कार्यान्वित किया जाय। जिनेश्वर के लिये सात प्रासाद
श्री विजय, महापद्म, नंद्यावर्त, लक्ष्मी तिलक, नरवेद, कमल हंस और कुंजर ये सात प्रकार के प्रासाद जिनेश्वर के लिये उत्तम हैं।
विश्वकर्मा ने बताये हुए असंख्य भेदों वाले अनेक प्रकार के प्रासादों में से केशरी आदिपच्चीस-प्रकार के प्रासादये हैं -
केशरी, सर्वतोभद्र, सुनंदन, नंदिशाल, नंदीश, मंदिर, श्रीवत्स, अमृतोद्भ, हेमवंत, हिमकुट, कैलाश, पृथ्वीजय, इंद्रनील, महानील, भूधर, रत्नकूड, वैडुर्य, पद्मराग, वज्रांक, मुकुटोज्वल, ऐरावत, राजहंस, गरुड, वृषभ और मेरु।
इन प्रासादों के शिखरों की संख्या अनेक होती हैं। एक उदाहरण - पच्चीस वे मेरुप्रासाद के ऊपर मुख्य एक शिखर और एक सौ अंडक (अंड) मिलकर कुल एक सौ एक शिखरों की संख्या होती है।
प्रासाद संख्या : अनेक प्रकार के मान के द्वारा नव हजार छ सौ सत्तर (9670) प्रकार के प्रासाद बनते हैं। उनका सविस्तृत वर्णन अन्य शिल्पग्रंथों से जाना जा सकता
प्रासाद के तल-भाग की संख्या और प्रासाद का स्वरुप
सर्व देवमंदिर में समचोरस मूल गभारे के तल भाग के आठ, दस, बारह, चौदह, सोलह, अठारह अथवा बाईसभाग किये जायें।
जैन वास्तुसार
71