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उसके सातवें भाग पर दृष्टि रखें। अथवा सातवें भाग के जो आठ भाग किये हैं उसमें वृष, सिंह, आय के स्थान पर अर्थात् पांचवे, तीसरे और पहले भाग पर दृष्टि रखें।
दि. वसुनंदिकृत "प्रतिष्ठासार" में अन्य प्रकार से कहते हैं - द्वार की ऊंचाई के नव भाग कर के नीचे के छह भाग और ऊपर के दो भाग छोड़ दें। बाकी जो सातवा भाग रहा उसके नवभाग करके उसके सातवे भाग पर प्रतिमा की दृष्टि रखें।
"देवता मर्ति प्रकरण' में भी अनेक देवों की दृष्टि का स्थान दशति हए प्रासाद-द्वार के उदय के आठ x आठ (8x8) भाग करते हुए चौसठ भागों में से 49 वे भाग में सरस्वती की और पचपनवे (55) भाग में जिनेश्वर की दृष्टि रखने की बात कही है। गर्भगृह में देवों की पद स्थापना
प्रासाद के गर्भगृह (गभारा) का जो अर्ध भाग को, तीसरे भाग में जिन, कृष्ण और सूर्य को, चौथे-पांचवें भाग में अनुक्रम से ब्रह्मा और शिव को स्थापन करें।
परंतु शिवलिंग को गर्भ भाग में स्थापित करे नहीं और गर्भभाग को छोड़े भी नहीं, परंतु तल मात्र अथवा अर्ध तल मात्र ईशान कोण की ओर रखें। दीवार को सटकर बिंब स्थापन करे नहीं
दीवार के साथ लगा हुआ देवबिम्ब और उत्तमपुरुषों की मूर्ति सर्वथा अशुभ मानी है, परन्तु चित्रित नाग आदि देवों की मूर्ति जो स्वाभाविक लगी हुई हो तो उसका दोष नहीं है।
जगती का स्वरुप
"जगती" अर्थात् मंदिर की मर्यादित भूमि और प्रासाद का अंतर पीछे के भाग में प्रासाद से छह गुना, आगे के भाग में नव गुना, दायें तथा बायें पार्श्व में तीन तीन गुना रखें। यह मंदिर की मर्यादित भूमि है।
"प्रासाद मंडन" में जगती का स्वरूप विस्तार से कहते हैं :- प्रासाद की जो मर्यादित भूमि उसे "जगती" कहते हैं। जैसे राजा का सिंहासन रखने के लिये अमुक भूमि मर्यादित रखी जाती है, वैसे प्रासाद के लिये भी समझें। ___ समचोरस, लंब चोरस, आठ कोनेवाली, गोल (वर्तुलाकार) और लंबगोल ये पांच प्रकार की जगती है। उसमें से जैसे आकार का प्रासाद हो वैसे आकार की जगती करें। जैसे • सम चोरस प्रासाद को समचोरस जगती, लंबचोरस प्रासाद को लंबचोरस जगती इत्यादि क्रम से जानें।
जैन वास्तुसार
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