________________
जैन कला एवं स्थापत्य :
(जिनप्रतिमा + प्रासाद वास्तु) जैन वास्तुकला का उद्गम और उसकी आत्मा
जिनालय - जिनप्रतिमा
उद्गम * यात्री : भिन्नत्व लिये हुए - संसार से, सम्बन्धों से, संगों-संसर्गों से एवं पदार्थों
से।सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रशुद्धि-संप्राप्ति। * तीर्थयात्रा: तीर्थ = पवित्र, पूजनीय, तारक स्थान।संसार पारगमन का साधक। * जैन तीर्थस्थान : प्रकृति मध्य में, नैसर्गिक प्रशांत वातावरण में। ध्यान साधनार्थ __ (एकांतपूर्ण)।
वास्तु-स्मारकों : मंदिरों - देवालयों - जिनप्रासादों की स्थापत्यकला पूर्ण वास्तुसिद्धांताधारित। अधिकांश मूर्तिमान तीर्थंकर प्रतिमाओं - जिनप्रतिमाओं पर केन्द्रित। सारी जिनप्रतिमाएँ अपनी अनंत शांति, वीतरागता, आत्मलीनता को संप्रेषित कराती हुईं। भक्त तीर्थयात्री को स्वयं परमात्मतत्व के सन्निधान की
अनुभूति कराने में सक्षम। * तीर्थक्षेत्रों की यात्रा : भक्तजीवन की एक अभिलाषा। ये तीर्थस्थल, उनके
कलात्मक मंदिर, मूर्तियाँ आदि मुक्तात्माओं के . महापुरुषों के पावन घटनास्थानों के जीवंत संस्मरण। कहीं सर्वप्रकार के धार्मिक कृत्य संपन्न। भारत की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करनेवालों में जैन तीर्थ अग्रणी। देश के
सांस्कृतिक भंडार को कला स्थापत्य से संपन्न किया। * जैन कला प्रधानतः धर्मोन्मुख, आत्मोन्मुख रही; विशेषात्मक दृष्टि, ध्यानस्थ
जिनमुद्राएँ एवं वैराग्य की निःसंगता की भावना भी परिलक्षित, अतः वास्तुकला में शिल्पस्थापत्य कला में नीतिपरक, अध्यात्मपरक अंकन अन्य अंकनो पर,
छाया हुआ। * जैन मूर्तियों में जिनों, तीर्थंकरों की मूर्तियाँ, जिनप्रतिमाएँ निस्सन्देह सर्वाधिक ये
सारी मूर्तियाँ प्रायः एक जैसी, एक से आकार की समचतुस्र परिमाण युक्त। अतः कलाकार - शिल्पकार को अपनी कला - प्रतिभा के वैभिन्य के प्रदर्शन का अवसर कम मिल सका। फिर भी जिन प्रतिमाओं के वदनों, मुखाकृतियों में
जैन वास्तुसार
60