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जिनालय - जिनप्रासाद वास्तु
जिनप्रतिमा - जिनप्रासाद वास्तुशिल्प
शयन विवेक : देवगुरु प्रतिमा अर्थात् जिनमंदिर सन्मुख पैर रखकर शयन न करें। (देव, गुरु, अग्नि, गाय, धन के सन्मुख पैर रखकर, उत्तर में मस्तक रखकर, नग्न होकर एवं भीगे पैरों से कभी भी शयन न करें। "वास्तुसार।ऽऽ") बिम्ब-प्रतिमा-मूर्ति के स्वरुप में वस्तुस्थिति
जिनमूर्ति के मस्तक, कपाल, कान और नाक के ऊपर बाहर की ओर निकलता तीन छत्र (त्रि-छत्र) का विस्तार होता है। एवं चरण के आगे - नीचे - नवग्रह एवं उस प्रतिमा के यक्ष यक्षिणी होतो सुखदायक हैं। निर्दाघ पाषाण एवं ऊंचाई : “पाषाण - परीक्षा"
मूर्ति में अथवा उसके परिकर में पाषाण वर्णसंकर (=दागयुक्त) हो तो अच्छा नहीं। अतः पाषाण-परीक्षा कर मूर्ति निर्माण हेतु निर्दाघ पाषाण लायें। मूर्ति सुंदर एवं लाभप्रदाता हो इस लिये "विषमअंगुल (अर्थात् 1, 3, 5, 7, 9, 11, इत्यादि) की ऊंचाई की बनवानी चाहिए।
पाषाण-परीक्षा (काष्ठ परीक्षा भी) करने के लिये निर्मल कांजी के साथ बिलीपत्रवृक्ष के फल की छाल घिसकर पत्थर (अथवा लकड़े) पर लेप करने से उसमें रहे हुए मंडल (दाग) स्पष्ट दिखाई देते हैं।
ये दाग भिन्न भिन्न रंगों के हो सकते हैं और तद् तदनुसार शल्यों को भीतर समाये हुए हो सकते हैं (विस्तृत वर्णन बिम्बपरीक्षा ग्रंथों में)। ऐसे दागवाले पाषाण (अथवा काष्ठ) से संतान, लक्ष्मी, प्राण, राज्यादि का विनाश होता है। अन्य पाषाण - दोष
पाषाण (अथवा काष्ठ) में कीला, छिद्र, पोल, जीवों के जाले, संघ, मंडलाकार रेखा अथवा गारा (मिट्टी) होतो बड़ा दोष समझें।
पाषाण (अथवा प्रतिमा के काष्ठ) में किसी भी प्रकार की रेखा (दाग) दिखने में आये और वह यदि अपनी मूल वस्तु के रंग जैसी हो तो दोष नहीं है, परंतु मूलवस्तु के रंगसे अन्य वर्ण की होतो अति दोषयुक्त समझें।
जैन वास्तुसार