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हाथ बढ़ा कर उतना घर का उदय किया जाना चाहिए। किंतु दो तीन मंज़िल का घर हो तो पहली मंज़िल (तल्ले) के उदय से दूसरी मंज़िल का उदय बारहवें भाग जितना कम करना चाहिए और तीसरी मंज़िल का उदय दूसरी मंज़िल के उदय से बारहवें भाग के बराबर कम रखना चाहिए। इस प्रकार नीचे की मंज़िल के उदय से ऊपर की मंज़िल का उदय बारहवेंभाग के बराबर कम रखना चाहिए।
"समरांगण" में भी कहा है : घर का उदय सात हाथ हो तो ज्येष्ठ उदय माना जायेगा, छः हाथ हो तो मध्यम उदय तथा पांच हाथ हो तो कनिष्ठ उदय समझना चाहिए। दीवार का प्रमाण "बृहत्संहिता' में बताया गया है वह इस प्रकार है:
घर का विस्तार जितना हो उसके सोलहवें भाग के बराबर मोटी दीवार बनानी चाहिए। किंतु पक्की ईंट, लकड़ी अथवा पाषाण की दीवार अगर बनानी हो तो अपनी इच्छानुसार मोटी दीवार बनाई जा सकती है। अर्थात् जहाँ मिट्टी की दीवार बनानी हो वहीं यह नियम लागू होता है, ईंट या लकड़ी का दीवार हो तो यह नियम लागू करना आवश्यक नहीं है। घर का आरंभ कहाँ से करें
सर्व प्रकार से भूमि के दोषों को शुद्ध करके घर की मुख्य शाला से कार्य का आरंभ किया जाना चाहिए। इसके बाद दूसरे स्थानों का निर्माणकार्य किया जाना चाहिए। किसी स्थान में वेध आदि दोष न आये इस प्रकार से कार्य करें, वेध सर्वधा वर्जनीय है। सात प्रकार के वेध
तल वेध, कोण वेध, तालु वेध, कपाल वेध, स्तंभ वेध, तुला वेध और द्वार वेध - ये सात प्रकार के वेध हैं।
घर की भूमि समविषम - ऊबड़खाबड़ हो, द्वार के सामने कुंभी (घाणी, अरहट या कोल्हू इ.) हो, दूसरों के घर की पानी की नालीया रास्ता हो तो तलवेध समझें और घर के कोण ठीक न हो तो इसे कोणवेध समझें।
एक ही खंड में तुला (पाटड़े) विषम (ऊँचे-नीचे) हो तो यह तालुवेध है। द्वार के उतरांग में मध्यभाग में तुला आये तो शिरवेध समझें।
- घर के मध्यभाग में एक स्तंभ हो अथवा अग्नि या जल का स्थान हो तो इस घर का हृदयशल्य समझें, इसे स्तंभवेध कहते हैं।
घर की नीचे की तथा ऊपर की मंज़िल के न्यून या अधिक हो तो तुलावेध समझना चाहिए। परंतु पाटडों की संख्या समान हो तो दोष नहीं है।
जैन वास्तुसार
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