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॥ ॐ नमः ॥
जन जन का वास्तु - जैन वास्तुसार
'वास्तु' शब्द का सीधा सादा सरल अर्थ है - वास करना, बसना, निवास । 'वास्तुशास्त्र' या 'वास्तुविद्या' का अर्थ है - मकान बांधने की विद्या, कला, विज्ञान या स्थापत्य (The science or art of building a house) | इसी 'वास्तुकला' को हम वास्तु-शिल्प और स्थापत्य के (Art and architecture) नाम से भी जानते हैं।
आप, हम सभी, प्रत्येक जन, कहीं न कहीं बसते ही हैं, कहीं न कहीं अपना कार्य करते ही हैं। वह स्थान फिर छोटी-सी कुटिया हो या बड़ा विशाल महल ।
अपनी यह काम करने की जगह कैसी होनी चाहिये? कहाँ बनी होनी चाहिये? किस प्रकार बनी हुई होनी चाहिये?
वह सही दिशा में, सही-शुद्ध-स्थान पर, सही रूप में बनी होनी चाहिये न? वह सुंदर, कलात्मक, शांति- शातादायक रुप में सजायी गई होनी चाहिये न? वह सुव्यवस्थित प्राकृतिक ढंग से रखी गई, दर्शित की गई चाहिये न?
ये सारी बातें स्पष्ट और वैज्ञानिक तरीके से बतलाता है वास्तु, वास्तु की विद्या, वास्तु का शास्त्र, वास्तु नियमों से युक्त वास्तुविज्ञान |
उसे विद्या कहें, कला कहें, विज्ञान कहें, शास्त्र कहें - कुछ भी कहें, वह है बसने का रहने का सही स्थान और सही, समुचित सुचारु ढंग । प्रकृति के व्यवस्था - का वास्तविक तरीका । वह 'विज्ञान' विशेष ज्ञान ही है और कुछ नहीं ।
नियमों
यह सारा का सारा हमारे आर्ष- दृष्टा ऋषियों ने, अर्हत् जिनों ने प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक, आज तक बतलाया है - वास्तु शास्त्र वास्तु कला-शिल्प स्थापत्य, वास्तुविद्या, वास्तु विज्ञान के नाम से । मानव संस्कृति के आदि पुरस्कर्त्ता भगवान आदिनाथ ने ही प्रथम इसे स्थान दिया अपनी 72 एवं 64 कलाओं में ।
वास्तव में ये वास्तुविद्या-नियम प्राकृतिक प्रकृति आधारित हैं। वे प्राचीन भी हैं, अर्वाचीन भी, शाश्वत - सनातन भी हैं, नित्य नूतन भी । इसलिये कि ये प्रकृति के तत्त्वों क्षिति-जलादि पांच तत्त्वों - पांच महाभूतों पर आधारित हैं । प्रकृति तब भी थी, अब भी है। प्राचीन काल में भी थी, वर्तमान काल में भी है और भविष्य काल में भी रहेगी ।
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प्रकृति को समझकर उसके नियमों को अपनाकर, उसके उपयोग-विनियोग को हम सही ढंग से काम में लायेंगे तो प्रकृति हमें सुख - स्वास्थ्य-शांति - शाता-समतासंवादिता-सकारात्मकता प्रदान करेगी और नहीं समझने - अपनाने से इन सब से विपरितता ।
जन-जन का
वास्तुसार