Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja Author(s): Ratanlal Doshi Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 8
________________ [7] ***************** में सात वि हुए, वे प्रभु द्वारा निर्देशित सभी नियमों का पालन करने वाले थे । मात्र एक नियम में उनका प्रभु से मतभेद हुआ, यानी. वे ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न होते हुए भी किसी एक बात की अमान्यता के कारण वे संघ से बहिष्कृत हुए। जमाली जो भगवान् का संसारी जंवाई एवं भाणेज था, किन्तु जिनवाणी विरुद्ध प्ररूपणा से वह भी संघ से बाहर कर दिया गया । पीछे हाँ तो जैन धर्म में किसी का लिहाज नहीं है, यहाँ तो गुणों के पूजा है । यदि जड़ पूजा का महत्त्व होता तो तीर्थंकर प्रभु के शव को मसालादि भरकर मंदिर में सुरक्षित रखा जा सकता था, जैसा कि अन्य देशों में शवों में मसाला भर कर रक्खा जाता है । क्योंकि पाषाण मूर्ति से शव ठीक ही था, जिसमें अब चाहे गुण न रहे हों, पर पूर्व में तो उनमें गुण थे ही। जबकि पाषाण मूर्त्ति में न कोई पहले और न ही बाद में कोई गुण है? वस्तुतः गुणों की आराधना एवं गुणी की सेवा भक्ति करने से ही उनके गुण आत्मा में प्रकट होते हैं। जड़ पूजा, मूर्त्ति पूजा में ऐसे कोई गुण दृष्टि गोचर नहीं होते, जिनकी पूजा अर्चना करने से जीव के अन्दर आध्यात्मिक गुणों का कुछ विकास होता हो। अतएव जड़ पूजा, मूर्ति पूजा गुणों की अपेक्षा से भी जिनागम विपरीत है। Jain Education International जीव रक्षा, गुण पूजा के साथ जैन दर्शन की तीसरी कसौटी है आगम मान्यता। यह तो सर्व विदित है कि तीर्थंकर प्रभु चार घाती कर्मों का क्षय होने पर वाणी की वागरणा करते हैं, उनकी प्रथम देशना में ही चतुर्विध संघ की स्थापना एवं गणधर भगवन्तों द्वारा प्रभु की वाणी को आगम रूप में गूंथित कर दिया जाता है। वह आगम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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