Book Title: Jain Vidya 02
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ प्रास्ताविक अपभ्रंश भाषा के संदर्भ में महाकवि पुष्पदंत (10वीं शती ई.) का स्थान भी महाकवि स्वयंभू के समान ही प्रमुख है। इन्होंने महापुराण, णायकुमारचरिउ एवं जसहरचरिउ की रचना कर अपभ्रंश भाषा के इतिहास में अपना अमर स्थान बनाया है। विख्यात विद्वान् राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित 'हिन्दी काव्यधारा' नामक अपभ्रंश काव्यों के संकलन में भी महाकवि स्वयंभू के पश्चात् दूसरा स्थान महाकवि पुष्पदंत को ही प्रदान किया गया है। अपभ्रंश भाषा के अन्य इतिहासकार विद्वान् भी उनके इस विचार से सहमत हैं। उद्योतनसूरि (8वीं श.) का कथन है कि अपभ्रंश का प्रभाव बरसाती पहाड़ी नदियों की भांति बेरोकटोक होता है और प्रणयकुपिता नायिका की भांति यह मनुष्यों के मन को शीघ्र ही वश में कर लेता है । उद्योतनसूरि का यह कथन पुष्पदंत की रचनाओं पर पूर्णरूप से घटित होता है। अपभ्रंश में मानव-जीवन से संबंधित कई विषयों पर लिखा गया है। स्तोत्र, प्रबंधकाव्य, मुक्तक, चरितकाव्य, कथा मादि साहित्य की सभी विधाओं से अपभ्रंश साहित्य भरा-पूरा है जिनमें दर्शन, इतिहास, पुराण, संस्कृति आदि विषयों पर अति सरल एवं भावपूर्ण रचनाएं लिखी गई हैं । जैन ग्रन्थभण्डारों की खोज के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि संस्कृत और प्राकृत की भांति ही अपभ्रश में भी भक्ति साहित्य का प्रचुर मात्रा में निर्माण हुमा है जिसने हिन्दी के भक्तिकाल को पर्याप्त प्रभावित किया है। कवि धनपाल (11वीं श.वि.) ने 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह', जिनदत्तसूरि (12वीं श. वि.) ने 'चर्चरी' और 'नवकारफल कुलक', देवसूरि (12वीं श. वि.) ने 'मुनि चन्द्रसूरि स्तुति' का निर्माण अपभ्रंश में ही किया है। श्री जिनप्रभसूरि (13वीं श.वि.). ने "जिनजन्माभिषेक', 'जिनमहिमा' पौर

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 152