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महान आत्माओको जैनधर्ममें 'जिन' अर्थात् विकारोको जीतनेवाला कहा है तथा उनके मार्गपर चलने वालोको 'जैन' बतलाया है ।
ये जैन दो भागो में विभक्त है -१ गृहस्थ और साघु । जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाच व्रतोको एक देश पालते हैं उन्हें गृहस्थ अथवा श्रावक कहा गया है । इनके ऊपर कुटुम्ब, समाज और देशका भार होता है और इसलिये उनके सरक्षण एवं समृद्धिमें योगदान देनेके कारण ये इन व्रतोको साधुकी तरह पूर्णत नही पाल पाते। पर ये उनके पालने की भावना अवश्य रखते हैं। खेद है कि आज हम उक्त भावनासे भी बहुत दूर हो गये हैं और समाज, देश, धर्म तथा कुटुम्बके प्रति अपने कर्त्तव्योंको भूल गये है ।
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जैन का दूसरा भेद साधु है साधु उन्हें कहा गया है जो विषयेच्छा रहित हैं, अनारम्भी हैं, अपरिग्रही हैं और ज्ञान-ध्यान तथा तपमें लीन है। ये कभी किसीका बुरा नही सोचते और न बुरा करते हैं। मिट्टी और जलको छोडकर किसी भी अन्य वस्तुको ये बिना दिये ग्रहण नहीं करते । अहिंसा आदि उक्त पाँच व्रतोको ये पूर्णत पालन करते हैं। जमीन पर सोते हैं । यथाजात दिगम्बर नग्न वेषमें रहते हैं । सूक्ष्म जीवोकी रक्षा के लिये पीछी, शौच-निवृत्तिके लिये कमण्डलु और स्वाध्यायके लिये शास्त्र इन तीन धर्मोंपकरणोके सिवाय और कोई भी परिग्रह नहीं रखते। ये जैन शास्त्रोक्त २८ मूलगुणोका पालन करते हुए अपना तमाम जीवन पर कल्याणमें तथा आत्मसाधना द्वारा बन्धनमुक्ति में व्यतीत करते हैं। इस तरह कठोर चर्या द्वारा साधु 'जिन' अर्थात् परमात्मा पदको प्राप्त करते हैं और हमारे उपास्य एव पूज्य होते हैं । मतु हरिने भी वैराग्यशतकमें इस दि० साधु वृत्तिकी आकाक्षा एवं प्रशंसा की है। यथाएकाकी निस्पृह शान्त पाणिपात्रो दिगम्बर | कदाऽह सभविष्यामि कर्मनिर्मूलन-क्षम ॥
'कब मैं अकेला विहार करनेवाला, निस्पृही, शान्त, पाणिपात्री ( अपने ही हाथोको पात्र बना कर भोजन लेनेवाला), दिगम्बर नग्न होकर कर्मकि नाश करने में समर्थ होऊंगा।'
नग्न-मुद्राका महत्व
नग्नमुद्रा सबसे पवित्र, निर्विकार और उच्च मुद्रा है । श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवका चरित वर्णित है । उसमें उन्हें 'नग्न' ही विचरण करनेवाला वतलाया है। हिन्दू परम्पराके परमहस साधु भी नग्न ही विचरते थे । शुक्राचार्य, शिव और दत्तात्रेय ये तीनो योगी नग्न रहते थे । अवधूतोकी शाखा दिगम्बर वेषको स्वीकार करती थी और उसीको अपना खास वाह्य वेष मानती थी। सहिता (१०-१३६-२) में 'मुनयो बातवसना ' मुनियोको वातवसन अर्थात् नग्न कहा है। पद्मपुराण में नग्न सापूका चरित देते हुए लिखा है
नग्नरूपो महाकाय सितमुण्डो महाप्रभ । मार्जनी शिखिपक्षाणा कक्षाया स हि धारयन् ॥
'वे अत्यन्त कान्तिमान् और शिर मुडाये हुए नग्न वेषको धारण किये हुए थे । तथा बगलमें मयूर पखोकी पोछी भी दवाये हुए थे। इसी तरह जाबालोपनिषद्, दत्तात्रेयोपनिषद् परमहंसोपनिषद्, याइयवाल्क्योपनिषद् आदि उपनिषदोमें भी नग्नमुद्राका वर्णन है ।
ऐतिहासिक अनुसन्धानसे भी नग्नमुद्रापर अच्छा प्रकाश पढता है मेजर जनरल जे० पी० बार फर्लाङ्ग अपनी Short Studies in Science of Comparative Religiors (वैज्ञानिक दृष्टिसे धर्मोका
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