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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
होता है। इसमें मनुष्यों की अवगाहना तीन कोस की और आयु तीन पल्योपम की होती है। इस आरे में पुत्र पुत्री युगल(जोड़ा) रूप से उत्पन्न होते हैं। बड़े होकर वे ही पति पत्नि बन जाते हैं। युगल रूप से उत्पन्न होने के कारण इस आरे के मनुष्य युगलिया कहलाते हैं। माता पिता की आयु छः मास शेष रहने पर एक युगल उत्पन्न होता है। ४६ दिन तक माता पिता उसकी प्रतिपालना करते हैं। आयु समाप्ति के समय माता को छींक और पिता को जंभाई (उबासी) आती है और दोनों काल कर जाते हैं । वे मर कर देवलोक में उत्पन्न होते हैं । इस आरे के मनुष्य दस प्रकार के कल्पवृक्षों से मनोवाञ्छित सामग्री पाते हैं। तीन दिन के अन्तर से इन्हें आहार की इच्छा होती है । युगलियों के वज्र ऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है। इनके शरीर में २५६ पसलियाँ होती हैं। युगलिए असि, मसि और कृषि कोई कर्म नहीं करते ।
इस बारे में पृथ्वी का स्वाद मिश्री आदि मधुर पदार्थों से भी अधिक स्वादिष्ट होता है । पुष्प और फलों का स्वाद चक्रवर्ती के श्रेष्ठ भोजन से भी बढ़ कर होता है। भूमिभाग अत्यन्त रमणीय होता है और पांच वर्ण वाली विविध मणियों,वृक्षों और पौधों से सुशोभित होता है । सब प्रकार के सुखों से पूर्ण होने के कारण यह पारा सुषमसुषमा कहलाता है । (२) सुषमा-यह पारा तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । इसमें मनुष्यों की अवगाहना दो कोस की और आयु दो पल्योपम की होती है। पहले आरे के समान इस बारे में भी युगलधर्म रहता है । पहले आरे के युगलियों से इस आरे के युगलियों में इतना ही अन्तर होता है कि इनके शरीर में १२८