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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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में न्याय की तरह बताए हैं। पृथ्वी आदि द्रव्यों की उत्पत्ति प्रशस्तपादभाष्य में इस प्रकार वर्णित है। जीवों का जब कर्म फलभोग करने का समय आता है तब महेश्वर को उस भोग के अनुकूल सृष्टि रचने की इच्छा होती है। इस इच्छा के अनुसार जीवों के अदृष्ट बल से वायु के परमाणुओं में हलचल होती है। इससे परमाणुओं में परस्पर संयोग होता है। दो परमाणुओं के मिलने से ट्यणुक उत्पन्न होते हैं। तीन व्यणुक मिलने से त्रसरेणु । इसी क्रम से एक महान् वायु उत्पन्न होता है। उसी वायु में परमाणुओं के परस्पर संयोग से जलद्वयणुक त्रसरेणु आदि क्रम से महान् जलनिधि उत्पन्न होता है। जल में पृथ्वी परमाणुओं के संयोग से द्वयणुकादि क्रम से महापृथ्वी उत्पन्न होती है । फिर उसी जलनिधि में तैजस परमाणुओं के परस्पर संयोग से तैजस व्यणुकादि क्रम से महान् तेजोराशि उत्पन्न होती है। इस प्रकार चारों महाभूत उत्पन्न हो जाते हैं। यही संक्षेप से वैशेषिकों का ‘परमाणुवाद' है । यहां इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी भी चीज के टुकड़े करते जाइये, बहुत ही छोटे अदृश्य अणु पर पहुँच कर उसके भी टुकड़ों की कल्पना कीजिए, इसी तरह करते जाइये, जहाँ अन्त हो वहाँ आप परमाणु पर पहुँच गए। परमाणुओं के तरह तरह के संयोगों से सब चीजे उत्पन्न हुई हैं। पाँचवें द्रव्य आकाश का प्रधान गुण है शब्द और दूसरे गुण हैं संख्या, परिमाण, पृथकत्व और संयोग । शब्द एक है आकाश भी एक है, परम महत है, सब जगह व्यापक है, नित्य है। छठा द्रव्य काल भी परम महत् है, सब जगह व्यापक है, अमूर्त और अनुमानगम्य है।
सातवाँ द्रव्य दिक् भी सर्वव्यापी, परम महत् , नित्य और