Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 425
________________ 392 श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अतिरिक्त दूसरी जगह भी सुख दुःखादि उत्पन्न करने लगे तो देवदत्त के कमों से यज्ञदत्त को पीड़ा पहुँचने लगेगी। शङ्का- देवदत्त के शरीर में अन्दर और बाहर कर्मों का आना जाना लगा रहता है / इसलिये वे उस शरीर के प्रत्येक विभाग में सुख दुःखादि फल दे सकते हैं। यज्ञदत्त के शरीर में नहीं दे सकते, क्योंकि उसके शरीर में उनका संचरण नहीं होता। उत्तर- यह कहना भी ठीक नहीं / इस तरह तुम्हारा मत बदल जायगा, क्योंकि तुपने कर्मों का सम्बन्ध स्थायी रूप से कञ्चुकी की तरह स्वीकार किया है। बाहर भीतर आना जाना लगा रहने से कञ्चुकी का दृष्टान्त ठीक नहीं बैठता। - दूसरी बात यह है, कर्मों का संचरण मानने से बाहर और अन्दर वेदना का अनुभव क्रम से होगा। एक साथ नहीं / इस के विपरीत लकड़ी वगैरह की चोट लगने पर बाहर और भीतर एक साथ ही अनुभव देखा जाता है। इसलिये कर्मों का संचरण मानना ठीक नहीं है। ___ कर्मों का शरीर में संचरण मान लेने पर दूसरे भव में अनुगमन नहीं होगा / यही बात अनुमान के रूप में दी जाती है / ____कर्मों का दूसरे भव में अनुगमन नहीं हो सकता, क्योंकि वे शरीर में चलते हैं / जो शरीर में बाहर और अन्दर चलता फिरता है, वह दूसरे भव में साथ नहीं जाता / जैसे उच्छ्वास और निःश्वास ।कर्म भी संचरण शील हैं। इसलिये इन का भवान्तरगमन नहीं हो सकता। __शङ्का-- शास्त्र में कर्मों को संचरणशील बताया है। जैसे भगवती सूत्रप्रथम शतक के प्रथम उद्देशे में कहा है 'चलमाणे चलिए' उत्तर-- भगवती सूत्र के उस पाठ का यह आशय नहीं है कि कर्म चलते हैं / उस का अभिप्राय है कि जो कर्म पुद्गल

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