Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 451
________________ 418 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बतलाने वाला होता है, कालान्तर में व्यक्ति या समूह में प्रयुक्त होते होते पर्यायवाची बन जाता है। समभिरूढ नय शब्दों के प्रचलित अर्थों को नहीं, किन्तु उनके मूल अर्थों को पकड़ता है। समभिरूढ नय के मत से जब इन्द्रादि वस्तु का अन्यत्र अथोत् शक्रादि में संक्रमण होता है तब वह अवस्तु हो जाती है, क्योंकि समभिरूढ नय वाचक के भेद से भिन्न भिन्न वाच्यों का प्रतिपादन करता है / तात्पर्य यह है कि समभिरूढ नय के मत से जितने शब्द होते हैं उतने ही उनके अर्थ होते हैं अर्थात् प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न भिन्न होता है। शब्द नय इन्द्र, शक्र, पुरन्दर इन तीनों शब्दों का एक ही वाच्य मानता है, परन्तु समभिरूढ नय के मत से इन तीनों के तीन भिन्न भिन्न वाच्य हैं, क्योंकि इन तीनों की प्रवृत्ति के निमित्त भिन्न भिन्न हैं। इन्दन (ऐश्वर्य भोगना) क्रिया में परिणत को इन्द्र,शकन (समर्थ होना) क्रिया में परिणत को शक्र, और पुरदारण (पुर अर्थात् नगरों का नाश) क्रिया में परिणत को पुरन्दर कहते हैं। यदि इनकी प्रवृत्ति के भिन्न निमित्तों के होने पर भी इन तीनों का एक ही अर्थ मानेंगे तो घट, पटादि शब्दों का भी एक ही अर्थ मानना पड़ेगा। इस प्रकार दोष आवेगा। इसलिए प्रत्येक शब्द का भिन्न वाच्यमानना ही युक्ति संगत है। (7) एवंभूत नय-शब्दों की स्वप्रवृत्ति की निमित्त भूत क्रिया से युक्त पदार्थों को ही उनका वाच्य मानने वाला एवंभूत नय है। समभिरूढ नय इन्दनादि क्रिया के होने या न होने पर इन्द्रादि को इन्द्रादि शब्दों के वाच्य मान लेता है, क्योंकि वे शब्द अपने वाच्यों के लिए रूढ हो चुके हैं, परन्तु एवंभूत नय इन्द्रादि को इन्द्रादि शब्दों के वाच्य तभी मानता है जब कि वे इन्दनादि (ऐश्वर्यवान् ) क्रियाओं में परिणत हों। जैसे एवंभूत नय इन्दन क्रिया का अनुभव करते समय ही इन्द्र को इन्द्र शब्द का वाच्य

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