Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 466
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह। एक जीव से ही, अभिन्न होने पर प्रदेश जीवात्मक कहा जाता है / जीवास्तिकाय में तो परस्पर भिन्न भिन्न अनन्त द्रव्य हैं / इसलिये एक जीव द्रव्य का प्रदेश है / वह समस्त जीवास्तिकाय के एक प्रदेश में रहने पर भी जीवात्मक कहा जाता है , किन्तु धर्मास्तिकाय एक ही द्रव्य है इसलिये सकल धर्मास्तिकाय से अभिन्न होने पर प्रदेश धर्मात्मक कहा जाता है। अधर्मास्तिकाय और आकाश को भी एक एक द्रव्य होने के कारण इसी प्रकार समझ लेना चाहिये / जीवास्तिकाय में तो जीवप्रदेश से तात्पर्य है 'नोजीव प्रदेश / ' क्योंकि जीव प्रदेश का अर्थजीवास्तिकायात्मक प्रदेश है और वह जीव नोनीव है, क्योंकि यहाँ नोशब्द देशवाची है / इसलिये नोजीव प्रदेश का अर्थ समस्त जीवास्तिकाय के एक देश में रहने वाला है / क्योंकि जीवका द्रव्यात्मक प्रदेश समस्त जीवास्तिकाय में नहीं रह सकता। इसी प्रकार स्कन्धात्मक प्रदेश भी नोस्कन्ध है। इस प्रकार कहते हुए शब्द नय को समभिरूढ नय कहता है-- जो तुम कहते हो कि 'धर्मप्रदेश' वह प्रदेश धर्मात्मक है, इत्यादि। यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'धम्मे पएसे, स पएसे धम्मे' यहाँ पर सप्तमी तत्पुरुष और कर्मधारय दोसमास हो सकते हैं। यदि धर्म शब्द को सप्तम्यन्त माना जाय तो सप्तमी तत्पुरुष समास होता है / जैसे- वने हस्ती / यदि धर्म शब्द को प्रथमान्त मानते हो तो कर्मधारय समास होता है , जैसे 'नीलमुत्पलं' / तुम किस समास से कहते हो ? यदि तत्पुरुष से कहते हो तो ठीक नहीं है। क्योंकि 'धर्म प्रदेश' इस प्रकार मानने से धर्म में भेद की आपत्ति होती है, जैसे 'कुण्डे वदराणि' / किन्तु प्रदेश और प्रदेशी में भेद नहीं होता है। यदि अभेद में सप्तमी मानते हो जैसे- 'घटे रूपं तो दोनों में इसी प्रकार देखने से संशय

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