Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 469
________________ 436 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला विवक्षा से अवक्तव्य नाम का भङ्ग बनता है और यह भी मूल भङ्ग में शामिल हो जाता है। इन तीनों के असंयोगी (अस्ति, नास्ति, प्रवक्तव्य )द्विसंयोगी (अस्ति नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवन्तय) और त्रिसंयोगी (अस्ति नास्ति अवक्तव्य) बनाने से सात भङ्ग हो जाते हैं। ___ अनेकान्त का अर्थ है अनेक धर्म / प्रत्येक वस्त में अनेक धर्म पाए जाते हैं, इसीलिए वह अनेकान्तात्मक मानी गई है। यदि चारों दिशाओं से किसी मकान के चार फोटो लिए जावें, तो फोटो एक से तो नहीं होंगे, फिर भी एक ही मकान के होंगे। इसी तरह अनेक दृष्टियों से वस्तु अनेक तरह की मालूम होती है / इसीलिये हमारे प्रयोग भी नाना तरह के होते हैं। एक ही आदमी के विषय में हम कहते हैं यह वही आदमी है जिसे गत वर्ष देखा था / दूसरे समय कहते हैं यह वह नहीं रहा अब बड़ा विद्वान् हो गया है। पहिले वाक्य के प्रयोग के समय उसके मनुष्यत्व पर ही दृष्टि है / दूसरे वाक्य के प्रयोग के समय उसकी मूर्ख, विद्वान् आदि अवस्थाओं पर / इसलिए परस्पर विरोधी मालूम होते हुए भी दोनों वाक्य सत्य हैं / आम के फल को हम कटहल की अपेक्षा छोटा और बेर की अपेक्षा बड़ा कहते हैं / इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि एक ही फल को छोटा और बड़ा क्यों कहते हो ? बस यही बात अनेकान्त के विषय में भी है। एक ही वस्तु को अपेक्षा भेद से ' है ' और 'नहीं है' कह सकते हैं। जो पुस्तक हमारे कमरे में है, वह पुस्तक हमारे कमरे के बाहर नहीं है। यहाँ पर है और नहीं में कुछ विरोध नहीं आता। यह अविरोध अनेकान्त दृष्टि का फल है / शीत और उष्ण स्पर्श के समान अस्ति और नास्ति में विरोध नहीं हो सकता, क्योंकि

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