Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 467
________________ 434 भी सेठिया जैन प्रन्थमाला दोष आता है। यदि कर्मधारय मानते हो तो विशेष से कहो। 'धम्मे य से पएसे य सेत्ति' (धर्मश्च प्रदेशाचसधर्मप्रदेशः) / इस लिये इस प्रकार कहना चाहिए कि प्रदेश धर्मास्तिकाय है, क्योंकि वह समस्त धर्मास्तिकाय से तो अव्यतिरिक्त है। किन्तु उसके एक देश में नहीं रहता है / इसी प्रकार नोस्कन्ध तक अर्थ समझ लेना चाहिये। इस प्रकार कहते हुए समभिरूढ नय को अब एवंभूत नय कहता है कि तुम जो धर्मास्तिकाय आदि वस्तु कहते हो, उन सब को कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरवशेष और एक ही नाम से कही जाने वाली मानो / देश, प्रदेश आदि रूप से मत मानो, क्योंकि देश, प्रदेश मेरे मत में अवस्तु हैं। अखण्ड वस्तु ही सत्य है, क्योंकि प्रदेश और प्रदेशी के भिन्न भिन्नमानने से दोष आते हैं। जैसे प्रदेश और प्रदेशी भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न हैं तो भेद रूपसे उनकी उपलब्धि होनी चाहिए, परन्तु ऐसी उपलब्धि नहीं होती है। यदि अभिन्न हैं तो धर्म और प्रदेश शब्द पर्यायवाची बन जाते हैं, क्योंकि एक ही अर्थ को विषय करते हैं। इन में युगपत् प्रयोग ठीक नहीं है, क्योंकि एक के द्वारा ही अर्थ का प्रतिपादन हो जाने से दूसरा व्यर्थ हो जावेगा। इसलिये वस्तु परिपूर्ण ही है। इस प्रकार सब अपने अपने मत की सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। ये सातों नय निरपेक्षता से वर्णन करने पर दुर्नय हो जाते हैं और परस्पर सापेक्ष होने पर सत्य हो जाते हैं। इन सातों नयों का सापेक्ष कथन हीजैनमत है, क्योंकि जैनमत अनेक नयात्मक है। एक नयात्मक नहीं। स्तुतिकार ने भी कहा है हेनाथ जैसे सब नदियाँ समुद्र में एकत्रित होती हैं, इसी प्रकार आपके मत में सब नय एक साथ हो जाते हैं। किन्तु आप के मत का किसी भी नय में समावेश नहीं होता।जैसे समुद्र किसी नदी

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