Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 455
________________ 422 श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला (3) गुणपर्याय को मानने वाला / एक गुण से अनेकता होने को गुणपर्याय कहते हैं। जैसे धर्मादि द्रव्यों के एक गतिसहायकता गुण से अनेक जीव और पुद्गलों की सहायता करना / (4) गुण के व्यंजन पर्यायों को स्वीकार करने वाला। एक गुण / के अनेक भेदों को व्यंजन पर्याय कहते हैं। (5) स्वभाव पर्याय को मानने वाला। स्वभाव पर्याय अगुरुलघु को कहते हैं। उपरोक्त पांचों पर्याय सब द्रव्यों में होते हैं। (6) विभाव पर्याय को मानने वाला पर्यायार्थिक नय का छठा भेद है। विभावपर्याय जीव और पुद्गल में ही है, अन्य द्रव्यों में नहीं / जीव का चारों गतियों मे नये नये भावों का ग्रहण करना और पुद्गल का स्कन्ध वगैरह होना ही क्रमशः इन दोनों द्रव्यों के विभावपर्याय हैं। __ दूसरी रीति से भी पर्यायार्थिक नय के छः भेद हैं(१) अनादि नित्य पर्यायार्थिक- स्थूलता की दृष्टि से अनादि नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है / जैसे मेरु पर्याय नित्य है। (2) सादि नित्य पर्यायार्थिक- स्थूलता की दृष्टि से सादि नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला सादि नित्य पर्यायार्थिक नय है / जैसे मुक्त पर्याय नित्य है। (3) अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक- सत्ता को गौण करके सिर्फ उत्पाद व्यय को विषय करने वाला अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। जैसे प्रत्येक पर्याय प्रति समय नश्वर है। (4) अनित्य अशुद्ध पयोयार्थिक- जो उत्पाद व्यय के साथ प्रति समय पर्याय में ध्रौव्य भी ग्रहण करे उसे अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहते हैं। जैसे पर्याय एक समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्य खरूप है।

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