Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ 426 भी सेठिया जैन प्रन्थमाला है / शब्द से समभिरूड नय का विषय सूक्ष्म है, क्योंकि शब्द नय लिंग वचन आदि समान होने पर केवल शब्द के भेद से अर्थभेद नहीं मानता / समभिरूढ सिर्फ शब्दभेद के कारण भी अर्थभेद मान लेता है। एवंभूत का विषय समभिरूढ से भी सूक्ष्म है, क्योंकि वह व्युत्पत्त्यर्थ से प्राप्त क्रिया में परिणत व्यक्ति को ही उस शब्द का वाच्य मानता है / जिस समय वस्तु अपने वाच्यार्थ की क्रिया में परिणत नहीं है उस समय एवंभूत की अपेक्षा उसे उस शब्द से नहीं कहा जा सकता। एक एक नय के सौ सौ प्रभेद माने गए हैं / इसलिये सात मूल नयों के सात सौ भेद होते हैं / आचार्य सिद्धसेन ने नैगम नय का संग्रह और व्यवहार नय में समावेश करके मूल नय 6 ही माने हैं। इस अपेक्षा से नयों के 600 भेद होते हैं।द्रव्यार्थिक नय के चार भेद और शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीनों को एक ही मानने से नय के मूल 5 भेद ही हैं। इस अपेक्षा से नय के 500 भेद हैं।द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद (संग्रह, व्यवहार, ऋजमुत्र) और चौथा शब्द (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत सम्मिलित)नयमानने से नयों के 400 भेद भी होते हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेद से नय के दो ही भेद नय मानने से नयों के दोसौभेद होते हैं। (प्रवचनसारोद्धार द्वार 124) नय के सौ भेद इस प्रकार माने गये हैं / द्रव्यार्थिक नय के 10 भेद कहे गये हैं। नैगम के तीन, संग्रह के दो, व्यवहार के दो, इस प्रकार 7 भेद हुए / द्रव्यार्थिक के दस भेदों को सात से गुणा करने पर 70 भेद होते हैं। __ पर्यायार्थिक नय के 6 भेद हैं, ऋजुमूत्र के दो, शब्द, समभिरूड और एवंभूत नय का एक एक भेद मानने से 5 भेद


Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483