________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (५)शब्द नय-काल, कारक, लिङ्ग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग आदि के भेद से शब्दों में अर्थभेद का प्रतिपादन करने वाले नय को शब्द नय कहते हैं। जैसे सुमेरुथा, सुमेरु है, सुमेरु होगा। ___उपरोक्त उदाहरण में शब्द नय भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल के भेद से सुमेरु पर्वत में तीन भेद मानता है। इसी प्रकार 'घड़े को करता है ' और 'घड़ा किया जाता है' यहाँ कारक के भेद से शब्द नय घट में भेद करता है / इसी प्रकार लिङ्ग संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से भी भेद मानता है। शब्द नय ऋजुमूत्र नय के द्वारा ग्रहण किए हुए वर्तमान को भी विशेष रूप से मानता है। जैसे ऋजुमूत्र नय लिङ्गादि का भेद होने पर भी उसकी वाच्य पर्यायों को एक ही मानता है, परन्तु शब्द नय लिङ्गादि के भेद से पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थभेद ग्रहण करता है / जैसे तटः, तटी, तटम्, इन तीनों के अर्थों को भिन्न भिन्न मानता है। (6) समभिरूढ नय-- पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को मानने वाले नय को समभिरूढ नय कहते हैं। __यह नय मानता है कि जहाँ शब्दभेद है, वहाँ अर्थ भेद अवश्य है। शब्द नय तो अर्थभेद वहीं मानता है जहाँ लिंगादि का भेद हो / परन्तु इस नय की दृष्टि मेंतो प्रत्येक शब्द का अर्थ जुदा जुदा होता है, भले ही वे शब्द पर्यायवाची हों और उनमें लिङ्ग संख्या आदि का भेद भी न हो। इन्द्र और पुरन्दर शब्द पर्यायवाची हैं फिर भी इनके अर्थ में अन्तर है। इन्द्र शब्द से ऐश्वर्य वाले काबोध होता है और पुरन्दर से पुरों अर्थात् नगरों के नाश करने वाले का / दोनों का एक ही आधार होने से दोनों शब्द पर्यायवाची वताये गये हैं, किन्तु इनका अर्थ जुदा जुदा ही है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द मूल में तो पृथक् अर्थ का