Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 452
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 419 मानता है और शकन (समर्थ होना) क्रिया में परिणत होने पर ही शक्र कोशक्र शब्द का वाच्य स्वीकार करता है, अन्यथा नहीं। __ शब्द से कही हुई क्रियादि चेष्टाओं से युक्त वस्तु को ही शब्द का वाच्य मानने वाला एवंभूत नय है अर्थात् जो शब्द . को अर्थ से और अर्थको शब्द से विशेषित करता है वह एवंभूत नय है। जैसे घट शब्द चेष्टा अर्थवाली घटधातु से बना है / अतः इसका अर्थ यह है कि जो स्त्री के मस्तक पर आरूढ होकर जल धारण आदि क्रिया की चेष्टा करता है, वह घट है / इसलिए एवंभूत नय के मत से घट वस्तु तब ही घट शब्द की वाच्य होगी जबकि वह स्त्री के मस्तक पर आरूढ होकर जलधारणादि क्रिया को करेगी, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जीव तब ही सिद्ध कहा जाता है जब सब कर्मों का क्षय करके मोक्ष में विराजमान हो। (अनुयोगद्वार लक्षणद्वार) तात्पर्य यह है कि एवंभूत नय में उपयोग सहित क्रिया की प्रधानता है / इस नय के मत से वस्तु तभी पूर्ण होती है जब वह अपने सम्पूर्ण गुणों से युक्त हो और यथावत् क्रिया करे / नय के भेद 'जितनी तरह के वचन हैं उतनी ही तरह के नय हैं। इससे दो बातें मालूम होती हैं। पहली यह किनय के अगणित भेद हैं। दूसरी यह कि नय का वचन के साथ बहुत सम्बन्ध है। यदि वचन के साथ नय का सम्बन्ध है तो उपचार से नय वचनात्मक भी कहा जा सकता है अर्थात् प्रत्येक नय वचनों द्वारा प्रकट किया जा सकता है / इसलिए वचन को भी नय कह सकते हैं / इस तरह प्रत्येक नय दो तरह का है- भाव नय और द्रव्य नया ज्ञानात्मक नय को भाव नय कहते हैं और वचनात्मक नय को द्रव्य नय। नय के मूल में दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार।व्यवहार नय

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