________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 405 की मूळ अवश्य ही होगी, क्योंकि शरीर कहीं खरीदा नहीं जा सकता / वस्त्रादि की अपेक्षा बहुत दुर्लभ है / अन्तरङ्ग है। अधिक दिन ठहरने वाला है और विशेष कार्यों को सिद्ध करने वाला है। शंका-शरीरादि की मूर्छा अल्प होती है / वस्त्रों में अधिक होती है / इसलिए शरीर में मूर्छा होने पर भी नग्न श्रमण कहे जायेंगे, वस्त्रादि रखने वाले नहीं। उत्तर--वस्त्र के रखने या न रखने से ही कोई त्यागी या भोगी नहीं बनता / पशु, भील और बहुत से दूसरे मनुष्य बहुत थोड़ा परिग्रह होने पर भी गरीबी के कारण मन में दुखी होते हुए धन न होने पर भी सन्तोष का अभाव होने से लोभादि कषाय के वशीभूत होकर दूसरे के धन का चिन्तन करते हुए अनन्त कों को बांध लेते हैं। वे अधिकतर नरक गति को प्राप्त करते हैं / दूसरी तरफ महामुनियों को कोई व्यक्ति उपसर्गादि की बुद्धि से अगर महामूल्यवान् वस्त्र आभरण और माला वगैरह पहिना देता है, शरीर पर चन्दन आदि का लेप कर देता है, तो भी वे सभी तरह की आसक्ति से अलग रहते हैं। श्रात्माको निगृहीत करते हुए, लोभादि कषाय शत्रओं को जीतकर विमल केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पहुँच जाते हैं / इसलिए जिनकी आत्मा वश में नहीं है, जो मन में दुखी होते रहते हैं उनके नग्न होने से कुछ भी लाभ नहीं है। भय का कारण होने से वस्त्रादि को त्याज्य कहना भी युक्ति युक्त नहीं है। आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र को भी उनका उपघात करने वाले मिथ्यात्व से भय है। शरीर को जंगली जानवरों से भय है / इसलिए उन्हें भी परिग्रह मानकर छोड़ देना पड़ेगा।