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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
होने पर भी जब दूसरे साथी चउत्थमत्त (उपवास) आदि करते तो महाबल अट्टमभक्त ( तेला) आदि कर लेता था। तपस्या तथा वात्सल्य आदि गुणों से उसने तीर्थङ्कर नाम बांधा किन्तु तपस्या में कपट होने के कारण साथ में स्त्री गोत्र भी बँध गया। आयुष्य पूरी कर के वे सभी जयन्तनाम के अनुत्तरविमान में देव रूप से उत्पन्न हुए।
वहाँ से चवकर महाबल का जीव मिथिला नगरी के स्वामी कुम्भराजा की प्रभावती रानी के गर्भ में तीर्थङ्कर रूप से उत्पन्न हुआ। माता पिता ने उसका नाम मल्लि रक्खा । दूसरे साथी भी वहाँ से चवकर अयोध्या आदि नगरियों में उत्पन्न हुए। मल्लिकुँवरी जब देशोन सौ वर्ष की हुई तो उसने अवधिज्ञान द्वारा अपने साथियों को जान लिया । उन को प्रतिबोध देने के लिए मल्लिनाथजी ने अपने उद्यान में पहिले से ही एक घर बनवा लिया । उसमें छः कमरे थे। कमरों के बीचो बीच अपनी सोने की मूर्ति बनवाई । अलग अलग कमरों में बैठे व्यक्ति मूर्ति को देख सकते थे किन्तु परस्पर एक दूसरे को नहीं। मूर्ति बहुत ही सुन्दर और हूबहू मल्लिकुँवरी सरीखी थी। मस्तक में छिद्र था जो पद्म के आकार वाले ढक्कन से ढका हुआ था। प्रतिदिन वह अपने भोजन का एक ग्रास उस मूर्ति में डाल देती थी।
मल्लिनाथजी के पूर्वभव का एक साथी साकेत का राजा बना । एक दिन उसने पद्मावती देवी के द्वारा रचाए गए नागयज्ञ में पाँच वर्षों के सुन्दर पुष्पों से गूंथी हुई बहुत ही सुन्दर माला देखी । आश्चर्यान्वित होते हुए राजा ने मंत्री से पूछा- कहीं ऐसी माला देखी है ? मंत्री ने उत्तर दिया-विदेहराज की कन्या मल्लिकुँवरी के पास जो माला है उसे देखते हुए इस की शोभा लाखवां हिस्सा भी नहीं है। राजा ने मल्लिकुँवरी