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श्रो सेठिया जैन अन्धमाला
(५) अण्हवयकर- आश्रव वाले कार्यों में मन की प्रवृत्ति । (६) छविकरे- अपने तथा दूसरों को प्रायास (परेशानी)
पहुंचाने वाले व्यापार में मन को प्रवृत्त करना। (७) भूयाभिसंकणे-जीवों को भय उत्पन्न करने वाले व्यापार
में मन प्रवृत्त करना।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांग सूत्र ५८५) (उववाई सत्र २०) ५०१- प्रशस्तवचनविनय के सात भेद
वचन की शुभ प्रवृत्ति कोप्रशस्तवचनविनय कहते हैं । अर्थात् कठोर, सावद्य, छेदकारी, भेदकारी आदि भाषा न बोलने तथा हित, मित, प्रिय, सत्य वचन बोलने को तथा वचन से दूसरों का सन्मान करने को प्रशस्तवचनविनय कहते हैं। इसके भी प्रशस्तमनविनय की तरह सात भेद हैं । वहाँ पापरहित आदि मन की प्रवृत्ति है, यहाँ पापयुक्त वचन से रहित होना है। बाकी स्वरूप मन की तरह है।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांग सूत्र ५८५) ५०२ अप्रशस्तवचनविनय के सात भेद
वचन को अशुभ व्यापार में लगाना अप्रशस्तवचनविनय है । इसके भी अप्रशस्तमनविनय की तरह सात भेद हैं।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांग सूत्र १८५) ५०३- प्रशस्तकायविनय के सात भेद . काया अर्थात् शरीर से आचार्य आदि की भक्ति करने और शरीर की यतनापूर्वक प्रवृत्ति को प्रशस्तकायविनय कहते हैं । इसके सात भेद हैं(१) आउत्तं गमणं- सावधानतापूर्वक जाना। (२) उत्तं ठाणं- सावधानतापूर्वक ठहरना । (३) उत्तं निसीयणं- सावधानतापूर्वक बैठना ।