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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला करता है और छोड़ता है उसे श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं। इसी को प्राणापान पर्याप्ति एवं उच्छ्वास पर्याप्ति भी कहते हैं। (५) भाषा पर्याप्ति-जिस शक्ति के द्वारा जीव भाषा योग्य भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें भाषा के रूप में परिणत करता तथा छोड़ता है उसे भाषा पर्याप्ति कहते हैं। (६) मनःपर्याप्ति- जिस शक्ति के द्वारा जीव मन योग्य मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें मन के रूप में परिणत करता है तथा उनका अवलम्बन लेकर छोड़ता है उसे मनःपर्याप्ति कहते हैं।
श्वासोच्छ्वास, भापा और मनःपर्याप्ति में अवलम्बन ले कर छोड़ना लिया है। इसका आशय यह है कि इन्हें छोड़ने में शक्ति की आवश्यकता होती है और वह इन्हीं पुद्गलों का अबलम्बन लेने से उत्पन्न होती है। जैसे गेंद फेंकते समय हम उसे जोर से पकड़ते हैं और इससे हमें गेंद फेंकने में शक्ति प्राप्त होती है । अथवा बिल्ली ऊपर से कूदते समय अपने शरीर को संकुचित कर उससे सहारा लेती हुई कूदती है।
मृत्यु के बाद जीव उत्पत्ति स्थान में पहुंच कर कार्माण शरीर द्वारा पद्गलों को ग्रहण करता है और उनके द्वारा यथायोग्य सभी पर्याप्तियों को बनाना शुरू कर देता है । औदारिक शरीरधारी जीव के आहार पर्याप्ति एक समय में और शेष अन्तमुहर्त में क्रमशः पूर्ण होती हैं । वैक्रिय शरीरधारी जीव के शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्त लगता है और अन्य पाँच पर्याप्तियां एक समय में पूर्ण हो जाती हैं।
दलपत रायजी के नव तत्त्व में औदारिक आदि पर्याप्तियों के पूर्ण होने का क्रम इस प्रकार लिखा है। उत्पत्ति स्थान को