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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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४४३ —— कल्पस्थिति छः
साधु के शास्त्रोक्त आचार को कल्पस्थिति कहते हैं । अथवा सामायिक छेदोपस्थापनीय आदि साधु के चारित्र की मर्यादा को कल्पस्थिति कहते हैं । कल्पस्थिति के छः भेद हैं( १ ) सामायिक कल्पस्थिति, ( २ ) छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, (३) निर्विशमान कल्पस्थिति, ( ४ ) निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति, ( ५ ) जिनकल्पस्थिति, (६) स्थविर कल्पस्थिति । ( १ ) सामायिक कल्पस्थिति — सर्वसावद्य विरतिरूप सामायिक चारित्र वाले संयमी साधुओं की मर्यादा सामायिक कल्पस्थिति है। सामायिक कल्प प्रथम और चरम तीर्थंकरों के साधुओं में स्वल्प कालीन तथा मध्य तीर्थंकरों के शासन में और महाविदेह क्षेत्र में यावज्जीव होता है ।
(१) शय्यातर पिंड का परिहार, (२) चार महाव्रतों का पालन, (३) पिण्डकल्प, (४) पुरुष ज्येष्ठता अर्थात् रत्नाधिक का वन्दन, ये चार सामायिक चारित्र के अवस्थित कल्प हैं अर्थात् सामायिक चारित्र वालों में ये नियमित रूप से होते हैं ।
(१) श्वेत और प्रमाणोपेत वस्त्र की अपेक्षा अचलता, (२) श्रद्देशिक यादि दोषों का परिहार, (३) राजपिण्ड का त्याग, (४) प्रतिक्रमण, (५) मासकल्प (६) पर्युषण कल्प, ये छः सामायिक चारित्र के अनवस्थित कल्प हैं अर्थात् अनियमित रूप से पाले जाते हैं । (२) छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति - जिस चारित्र में पूर्व पर्याय को छेद कर फिर महाबूतों का आरोपण हो उसे छेदोपस्थापनीय टिप्पणी--*प्रथम एवं चरम तीर्थंकर के शासन में चार महाव्रतों के बदले पांच महाव्रतरें अवस्थित कल्प है ।