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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्पन्न होना चाहिये । श्रद्धालु स्वयं मर्यादा में रहता है और दूसरों को मर्यादा में रख सकता है।
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( २ ) सत्य सम्पन्नता - सत्यवादी एवं प्रतिज्ञाशूर मुनि गण पालक होता है। उसके वचन आदेय ( ग्रहण करने योग्य) होते हैं। (३) मेधावीपन - मर्यादा को समझने वाला अथवा श्रुतग्रहण की शक्ति वाला बुद्धिमान पुरुष मेधावी कहलाता है । मेधावी साधु अन्य साधुओं से मर्यादा का पालन करा सकता है तथा दूसरे से विशेष श्रुत ज्ञान ग्रहरण करके शिष्यों को पढ़ा सकता । ( ४ ) बहुश्रुतता - - गणपालक का बहुश्रुत होना भी श्रावश्यक है। जो साधु बहुश्रुत नहीं है वह गण में ज्ञान की वृद्धि नहीं कर सकता | शास्त्र सम्मत क्रिया का पालन करना एवं अन्य साधुओं से कराना भी उसके लिये सम्भव नहीं है । ( ५ ) शक्तिमत्ता - शरीरादि की सामर्थ्य सम्पन्न होना जिससे आपत्तिकाल में अपनी एवं गच्छ की रक्षा की जासके ।
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( ६ ) अल्पाधिकरणता – अधिकरण शब्द का अर्थ है विग्रह । अल्पाधिकरण अर्थात् स्वपक्ष सम्बन्धी या परपक्षसम्बन्धी विग्रह (लड़ाई झगड़ा) रहित साधु शिष्यों की अनुपालना भली प्रकार कर सकता है ।
(ठाणांग ६ सूत्र ४७५)
४५१ – आचार्य के छः कर्तव्य
संघ की व्यवस्था के लिये आचार्य को नीचे लिखी छ: बातों का ध्यान रखना चाहिये
(१) सूत्रार्थस्थिरीकरण - सूत्र के विवादग्रस्त अर्थ का निश्चय करना अथवा सूत्र और अर्थ में चतुर्विध संघ को स्थिर करना ।