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उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला (र.सं. ७००), प्रभानन्दसूरि-जंबूद्वीपसंग्रहणीप्रकरण टीका, जयसिंहसूरि कृत न्यायसार टीका न्यायतात्पर्यदीपिका, नयचन्द्रसूरिहम्मीर महाकाव्य (संवत् १४४४), रंभामंजरी नाटिका भी प्राप्त होती है। इस गच्छ के १२८७ से १६१६ तक ३१ लेख प्राप्त होते हैं। विभिन्न ग्रन्थों के आधार से इसमें कई ग्रन्थ प्रशस्तियों के आचार्यों के नाम दिए गए हैं। इसमें एक शाखा कृष्णर्षितपा नाम के संवत् १४५० से १४७४ तक के लेख मिलते हैं। ८. खंडिलगच्छ - यह गच्छ खंडेला, सीकर से ४५ कि.मी. दूर नाम से प्रसिद्ध हुआ। खंडेला को जैन तीर्थों की गणना में सिद्धसेनसूरि ने सकलतीर्थ स्तोत्र में और धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति में उल्लेख किया है। भावदेवसूरि इस गच्छ के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। इसीलिए भावदेवाचार्य गच्छ भी इसका नाम मिलता है। इस गच्छ के आचार्य स्वयं को कालकाचार्य संतानीय कहते हैं। प्रतिमा लेखों में इस गच्छ का नाम भावडार गच्छ और भावडगच्छ भी मिलता है। इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों में भावदेवसूरि, विजयसिंहसूरि, वीरसूरि और जिनदेवसूरि इन चारों नामों की पुनरावृत्ति दृष्टिगत होती है। वीरसूरि चालुक्य नरेश सिद्धराज जयसिंह के मित्र माने जाते थे और उन्होंने संवत् ११०७ में बौद्धाचार्य, दिगम्बर आचार्य कमलकीर्ति और सांख्यवादी वादीसिंह को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
भावदेवसूरि की प्रमुख रचनाओं में पार्श्वनाथ चरित्र (संवत् १४१२), कालिकाचार्य कथा, यतिदिनचर्या और अलंकारसार, शान्तिसूरि की भक्तामर रचना, हर्षमूर्ति की गौतमपृच्छा चौपई, चन्द्रलेखा चौपई और पद्मावती चौपई, कनकसुन्दर कृत हरिश्चन्द्रराजा रास की रचना भी प्राप्त होती है। संवत् १०८० का इसका प्राचीन लेख भी प्राप्त होता है। संवत् ११९६ में प्राचीन प्रतिमा लेख पर भावडार गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। संवत् ११९६ से १६९७ तक इस गच्छ के यत्र-तत्र उल्लेख प्राप्त होते हैं।
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