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इस शाखा के अन्तिम आचार्य २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक बीकानेर में विद्यमान थे और वे कँवलागच्छ के अधिपति माने जाते थे। बीकानेर में चौदह गवाड़ कँवलागच्छ की ही मानी जाती है। ४. काम्यकगच्छ - यह शाखा राजस्थान प्रान्त के भरतपुर जिले में अवस्थित कामा नामक स्थान से हुई है। बयाना में ११३० का एक शिलालेख प्राप्त होता है। जिसमें कि निवृत्तिकुल का उल्लेख किया गया है और महेश्वरसूरि से सम्बन्ध रखता है। इसका कोई विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ५. काशहृदगच्छ - आबू पर्वत की तलहटी में कासीन्द्रा या कायंद्रा विद्यमान है उसी से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जालिहरगच्छीय देवप्रभसूरि रचित पद्मप्रभचरित्र (१२५४) में इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। ११९२ से लेकर १३०० तक कुछ लेख प्राप्त होते हैं। इसी गच्छ के नरचन्द्रोपाध्याय की प्रश्नशतकज्ञानदीपिका टीकासह (१३२४), जन्मसमुद्रसटीक और ज्योतिषचतुर्विंशतिका आदि कृतियाँ प्राप्त होती हैं। ६. कोरंटगच्छ - राजस्थान के कोरटा नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई है। यह गच्छ चैत्यवासी आम्नाय का है। इसमें भी कक्कसूरि, सावदेवसूरि (सर्वदेवसूरि) और नन्नसूरि आचार्यों के नाम क्रमशः प्राप्त होते रहते हैं। इस गच्छ के संवत् १२०१ से १६५२ तक के १४२ लेख प्राप्त होते हैं। कोरंटगच्छ की पट्टावली भी प्राप्त होती है। ७. कृष्णर्षिगच्छ - प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन निर्ग्रन्थों में एक कृष्णर्षिगच्छ भी प्राप्त होता है। कृष्ण मुनि के अनुयायी होने से यह कृष्णर्षि गच्छ कहलाया। जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि और नयचन्द्रसूरि ये नाम क्रमशः प्राप्त होते रहते हैं। संभवतः आगे जाकर यह सम्प्रदाय चैत्यवास से सम्बन्ध रखने लग गया। संवत् १२८७ से १६१६ तक इस गच्छ के लेख प्राप्त होते हैं। जयसिंहसूरि-धर्मोपदेशमालाविवरण (र.सं. ९१५), शीलोपदेशमाला के कर्ता जयकीर्ति भी जयसिंहसूरि के शिष्य थे। दाक्षिण्यचिह्न
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