Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 7
________________ भूमिका भारतीय संस्कृति की विशेषता उत्सर्ग है। इसमें ग्रहण का नहीं त्याग का महत्त्व है। महान् सम्राट् त्यागियों और लंगोटी धारियों के सामने घुटने टेकते आए है। प्रस्तुत जैन रामायण इसी भारतीय संस्कृति का संक्षिप्त संस्करण है। वह समस्त देश और समस्त जाति की स्थायी सम्पत्ति है। इसमें जातीय सभ्यता तथा संस्कृति का सार अन्तर्निहित है। धर्म और समाज को व्यवस्था, माता-पिता, भाई-बहिन, भाई-भाई, पति-पत्नी, शत्रुमित्र, राजा-प्रजा आदि सम्बन्धों के आदर्श निर्वाह के ज्वलन्त उदाहरण यहाँ विद्यमान हैं। मानव जीवन की सर्वाङ्गपूर्ण झाँकी देखने को मिलती है। जीवन को सरलतम तथा जटिलतम समस्याओं का समाधान तथा पूर्ण विवेचन सर्वत्र बिखरा पड़ा है । लोक-परलोक संग्रह का जो विलक्षण प्रदर्शन इस कथा-काव्य मे है वह अन्यत्र दुर्लभ है। “यन्नेहास्ति न तत्वचित्" वाली बात यहाँ चरितार्थ होती है। पं० प्रवर मुनि श्री शुक्लचन्द जी महाराज की पैनी दृष्टि से प्रायः कुछ बच नहीं सका है। किसी राष्ट्र अथवा जाति की महती परम्पराओ का प्रतीक उसका धन या शारीरिक बल कदापि नहीं । वे तो उसके गौरवमय अतीत के इतिहास में व्याप्त है। जिस राष्ट्र का इतिहास जितना उज्ज्वल और गौरवशाली होता है, वह राष्ट्र भी उतना ही अधिक

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