Book Title: Jain Ling Nirnay Author(s): Publisher: View full book textPage 8
________________ भी तत्सत् श्री वीतरागायनमः * कुमतोच्छेदन भास्कर * / भर्थात् // जैन लिंग निर्णय // -~000 दोहा॥ प्रथम नम श्री वीरजन शासनपति महाराज। जैन लिंग निर्णय करूं भव्यजीव हितकाज // बिन निर्णय जिन लिंगके किस को कहवो साधु / मन कल्पित करे भेषजो साध नहीं वो बाध // 2 // गौतम स्वामी मुमिर कर सुधर्म स्वामी सिरनाउं / गुरु चरणन को नमन कर श्रुत देवी मन लाउं // 3 // वर्तमान काल में जो जैन धर्म की व्यवस्था होरही है उस को देख कर मेरे को खेद उत्पन्न होता है कि अत्यत्तम चिन्ता मणिरत्न के समान जिन धर्म वीतराग सर्वज्ञ देव का कहा हुवा तरण तारण भव दुःख निवारण था जिस में हुंडा सरपनी काल और पंचम आरा और दश अछेरा में असंजती की पूजा कुछ उसका सहारा दुःख गर्वित, मोह गर्वित वैराग्य वालों ने धर्म को बिगाड़ा इसलिये जैन लिंग निर्णय करना है हमारा भव्य जीव आत्मार्थ करे चाहोतो करो बुद्धि का विचाराPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78