Book Title: Jain Ling Nirnay
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Page 44
________________ - - - - कुमतोच्छेदन भास्कर // [3] धर्म को लजाया अभी जिन धर्म का असल भर्म न पाया जेन लिंगसे अनलिंग को बनाया अजान स्त्री और बालकों को डराया गांव में घुसते वक्त कुत्तों को भुसाया जैन आचार्यों के किये हुवे ओसवाल पोरवाड़ जैनियों को जाल में फँसाया तुमतो डुबे और उन्हों को क्यों डुबाया अनुमान ढाईसे वर्ष से पाखंड मचाया जैमी तुम्हारी क्रिया थी तैसाही ढूंढक नाम पाया मिलना जैन धर्म इससे ढूंढ्या कहलाया इसलिय हे भोले भाई इस हट कदाग्रह को छोड मिथ्यात्व से मन मोड़ शुद्ध जैन धर्म को अंगीकार कर के अपने कल्याण को करो जैन धर्म में मुख बांधना नहीं किन्तु साँख्य मत के भेदमें बीटा मत के संन्यासी लोग काष्ट की मोहपत्ती से मुख बांधते थे सो उन्हीं के मत में बनारसी नगरी का सोमल ब्राह्मण पेश्तर सोमल ब्राह्मण ने श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के पास, पांच अनुवात्ति और सात सिक्षावृति लेकर श्रावक वनाथा सो कितनेही दिनके बाद अनुवृतिदी छोडकर मिथ्यात में भमण कर संन्यासपणा लिया फिर रात्रि के समय मनमें बिचारा और सवेरे सर्व संन्यासियों से पछ कर काष्टकी मोहपत्ती बांधकर उत्तर दिशा को गया भौर रात्रि के समय देवताने दुष्ट प्रविर्जा अर्थात् खोटी प्रवृत्ति कही फिर समझाकर मोहपत्ती दूर कराय कर श्रावक का व्रत धराय कर देवता पीछा गया सो पाठ निरीयावल का सूत्र में दिखाते हैं परंतु जब मोहपत्ती बांध कर उत्तर दिशा में गया वहांमे दिखाते है ग्रंथ वढजाने के भयसे पहिले का पाठ नहीं लिखते हैं तुम्हारे कल्याण होने के वास्ते हमतो तुम्हारे के। बहुत समझाते हैं। पाठः कल्लंजावजलंते बहवेतावसेय दिहाभट्ठयपुत्वसंगति एय तंजाव कठमुद्दाए मुहबंधितिरत्ता अयमेयारुवे अभिग अभिगिणहति जथ्थेष अम्हंजलसिया एवंथलंसिवा एवंदुग्गं निपव्वयंविसमंसिवा इगझाएवा दरिएवा पखलिज्जएवा पविडिजवा नोखलु मेखप्पति एउचुहित एतिकडु अयमेयारुवे आभिगई अभिगिण्हेति उत्तरायदिसाय उत्तराभिमुहपथ्थाणं |

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