________________ meo कुमतौच्छेदन भास्कर // [41] . पड़जाऊं तो निश्चय करके मेरे को उठना न कल्पे अर्थात् फिर वहां से नहीं उतूं ऐसा अपने मनको दृढ़ करके अवगह लेकरके उत्तर दिशा के सन्मुख चला फिर चलता 2 सोमल महर्षि सायंकाल के वक्त जिस जगह अशोक वृक्ष के नीचे अर्थात् हेटे आय करके काष्ठ की कुराड़ी थापी फिर वेदिका चार पादु करके गोबर से लीपी फिर बुआरीफेर करके दाभ (दर्भा) और कलश हाथ मे लेकर के जिस जगह गंगा मोटी नदी है तहां जाय करके प्रवेश किया और अपना सर्वकृत्य करके पीछा जिस जगह अशोक वृक्ष था उस जगह आता हुआ फिर उस जगह वेदी बांधी उस वेदी में शक्कर आदि सामग्री से होम किया और देव पूजन करके बाद काष्ठ की मुद्रा अर्थात् मुहपत्ती से मुख को बांध के चप होकर बैठा रहा तिसके बाद सोमल सन्यासी के समीप अर्ध रात्रि के समय एक देवता आय कर प्रगट हुवा और सोमल सन्यासी से कहने लगा कि भो सोमल ब्राह्मण तू प्रवज्या करके दुष्ट प्रवज्या खोटी है इस रीति से सोमल ब्राह्मणने उस देवता का दो तीन बार बचन सुना और उस देवता के बचन को अनजाना और चप होकर बैठा रहा कुछ जवाब न दिया तब वो देवता सोमल सन्यासी के उत्तर न आने से जिस तरफ़ से आया था उसी तरफको चलागया तिसके बाद सोमल प्रभात सूर्य उगने के बाद बल्कल का वस्त्र पहर काठकी कुराडी लेके और हायमें गड़ा आदि उपगरण लेकर काष्ट की मुद्रा से मुख बांधके उत्तर दिशा मुख करके चलता हुवा जिसके बाद सोमल ब्राह्मण महर्षि दूसरे दिन संध्या काल के समय जिस जगह से पुपानी वृक्ष के नीचे ठरहता हवा ओर उगरन आदि रख कर जिस रीतिसे पहिले दिन अशोकवृक्ष के नीचे आग्निहोत्रादि क्रिया करके काष्ट मुद्रा से मुख बांधके चुर होकर बैठता हुवा तिस के बाद सोमल महर्षि आधीरात के समय एक देवता आकाश के विषे खड़ा होके जिस रीतिसे अशोकवक्ष के नीचे कहा था उसी | रीतिसे दो तीन वार कहा कि हे सोमल तेरी प्रवज्या खोटी है।