________________ [4] जैन लिंग निर्णय // भयोत् साधु के व्रत समान श्रावक का व्रत पालता हुवा अर्धमास की संलेहणा सहित अपनी आत्मा बश करके दीक्षा पालता प्रमादादिक अन्न आलोइ अर्थात पहिले अयोगकिया था तिसको गुरु के पास आलोया नहीं अथीत् पाप से निवृत्ति नहीं काल करके शुक्रावंत शुक्रविमान के उपायान सभामें देवता संबंधी संध्या के विषे यावत् उंगल नो असंख्यातमो भाग शुक्र नाम देवता मोटा ग्रहपण उपजा तिसके बाद शक नाम मोटा ग्रह तत्काल निश्चय उप मने पर्याप्ता एक समय उपजे हैं गोतम इसलिये देवता पांच पजतीया कहा यह निश्चय. हे गोतम शुक्र नाम ग्रह ते देवता यारत् सन्मुख हुवा एक पल्यापम की स्थिति जिसकी उस वक्तश्री गोतम स्वामी पूछने लगे कि हे पज्य यह मोटा ग्रह देवलोक से आयु आयकर के कहां जायगा इस रीतिसे हे जंबू जिस रीति से श्रवण भगवान् कहा तिस रीति से मैं तेरेको कहता हुआ अब इस जगह भी सूत्र में अनुमति अर्थात् बीटामत वाले का मुख बंधन कहा परंतु किसी सत्र में जैन का साधु वा श्रावक मुख धांधके बिचरे ऐसा न कहा इसलिये हे भव्यप्राणियो! इस मोह निद्रा को छोड़ कर बुद्धि का विचार करो कुमति कदाग्रह को परिहरो अन्य लिंग को क्यों अंगिकार करो मुख बांधनेही से तुम्हारा प्रेम है तो जैनी नाम क्यों धरो क्योंकि जिस मत में जो आचारना होगी उस आचारनाकू तो आज्ञा देंगे परंतु अपने मत वाला दूसरे मत की आचारना को न अंगीकार करेगा और उस दूसरे की आचारना की आज्ञा कदापि न देगा किन्तु खोटी कह कर निरादर करैगा इसलिये जो जेन मत में मख बांधना होता तो वो तापसी अर्थात् संन्यासी लोग आज्ञा न देते और सोमल संन्यासी को उलटा बहकादेते इसलिये उन संन्यासियों का मुख चांधना अच्छा था इसलिये सामल संन्यासी को मुख बांधने की आज्ञा दी और वो सामल संन्यासी मुख बांधका उनर दिशा को चना तब उसका मुख बांधना खोटा जान कर बारह वत अंगिकार कराया उसका मुख वांधना