Book Title: Jain Ling Nirnay
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Page 76
________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [6] बताओ (उत्तर) अंग चुलीए सुत्र मध्य देखोः__तऔसुरी हितदानुण एहि पट्टोवरी कुपरी विठिए हिर यहरणं ठावीतावामकरामीया एमुहयती लंवधरीतु // __ अर्थ:-तिसके बाद आचार्य की आज्ञा हुई कि कोनीके ऊपर रजोहरण रख दक्षिणदिशा रजोहरण की डोरी या रस्सी राखे हाथ विषे अनामिका उंगली ऊपर ला विमुख पत्ती धारण करे यह कहने से मुखपत्ती हाथ में रखनी कही है और मुख बांधने को तो किसी जगह नहीं कही क्योंकि देखो जब दिक्षा देने के समय गुरुने शिष्य के हाथ में मुखवस्त्रिकादि अर्थात् रखीतो फिर मुख बांधने की आज्ञा किसने दी आत्मार्थीयोंने सूत्र की बात चीनी इमलिये हे भाइयों जो भगवत का बचन जमालीने तनकसा उठाया तिसपर उमको निन्दक ठहराया डुबानडुबैया बताया जमालीने अनंत संसार अपना बधाया कुछ लिंग का भेद न चला या करे माने अकरे ऐसा शब्द सुनाया इसका वर्णन श्री भगवतीजी में आया तुमने तो भगवतके बचन को उठाकर मुख बांधने का पंथ चलाया अनंत संसार को बधाया इसके सिवाय मुख बांधने में कुछ सार न पाया इसके ऊपर हरको श्रीमहानशीध सूत्र की चूलिकाका पाठ याद आया सो हम भव्य जीवों को लिखकर दिखाते हैं: कोठीया एवामहणतगणवा विण इरियं पडिकमेमिछू कडंपूरी मठेवा // अर्थ मुखपत्ती कानमें थापन करे तथा मुखपत्ती आदिक सों मख को ढांके बिना जो इरीयावहि पडिक्केमे तो दंण्ड नहीं आवे इस जगह कान के विषे मुखपत्ती थापन करने से दण्ड कहा इस हेतु से हाथ में रखना सिद्ध हुया क्योंकि देखो मुखपै बंधी हुई होतीतो मुख ढकेविदून इरीयावइ पडिक्कमे तो दंण्ड आवे एसा कहना मत्रकारका | कदापिन बनता इसलिये मुख साधना अपनी इच्छा का चलानाहै इम /

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