Book Title: Jain Ling Nirnay
Author(s): 
Publisher: 

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ - कुमतोच्छेदन भास्कर // [11] को करे अब देखो इस पाठ में खासना वा छीकना वा जंभाइका लेना अथवा डकार का लेना ये सब चीज मुख से होती है तो जब मुख बांधा हुवाथा तो फिर ढकना क्यों कहा इसलिये हे भोले भाईयो इस मनकल्पित जालको छोडो क्या अर्थको मरोडो जिन आज्ञाको क्यों तोडो हम तो तुम्हारी करुणा कर के तुम्हारे को समझाते हैं जो तुम को अपना कल्यान करना होयतो अंगी. कार करो परभव से डरो क्यों नाहक झगड़ा करो राग द्वेषको परिहरो वीतरागके धर्मको अंगीकार करो जिनराजके शुद्धलिंग को अंगीकार करो मुंहसे मुखपत्ती को परिहरो जिनसे संसारमें जन्म मरण न करो क्योंकि विना लिंग निर्णयके जो जातिकुल के जैनी हैं वे लोग अथवा अन्यमत के लोग हाथमें मुखपत्ती रखने वाले को जैनका साध माने अथवा मुंह बांधने वाले को जनका साधू माने क्योंकि दोनोंका भेष जदार मालम होताहै इसलिये प्रथम जो चिन्ह साधका है उसका निर्णय अवश्य होना चाहिये क्योंकि देखो श्री महावीर स्वामीके वक्त में श्रीपार्श्वनाथ स्वामीके साध विचरते थे सो उन श्री पार्श्वनाथ के साधुओंका भेष श्रीमहा. धीरस्वामी के साधुओंसे भिन्न चिन्हथा और मोक्ष मार्ग साधने में दोनों की प्रवृतीथी सो उन दोनोंका जदार भेष देखनेसे लोगोकुं शंका हतीथी कि इन दोनोंमें जैनी कोन है इस विपरीत लिंग होने से जैनी और वैष्णव मत वाले दोनोंका भर्म मिटाने के वास्ते श्रीगोतमस्वामी और श्रीकेशीकुमार दोनोंजने मिलकर भिन्न लिंगको दूरकर एक लिंग रक्खा सो श्री उत्तराध्येनजी के 23 वें अध्येन में जो पाठहै उसको लिखकर दिखाते हैं:-- अचेत गोयजो धम्मो जोइमो सतरुत्तरो देसीउबद्ध माणेणं पासेणयमाहामुणी 26 एगज्जपवणाणं विसेसकिन्तु कारणं लिंगे दुविहे मेहावी कहविप्प चउनते 30 केसीएवंवुवा गंतु गोयमोइणमव्वबी विन्नांणेण समागम्म धम्मसाह -

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78