Book Title: Jain Ling Nirnay
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Page 30
________________ - कुमताच्छेदन भास्कर // [ 23 ] महा विस्तारकरके मनुष्यों की परखदामें बैठे हुए मोटे अर्थात् ऊंचे शब्द करके धर्म देमना देते हुए उस परखदा को देखकरक ऐसा कह सो हम आगे कहते हैं आत्मा के विषय संकल्प उपजा यह मूर्खपनसे निश्चय करके मूर्खकी सेवा करते हैं मुंडक मस्तक मुंडाहुयातों मुंड प्रत्ये निश्चय सेवन करहै ते मुंड अर्थात् मुर्व हैं अपंडित क. अपंडित प्रत्यय से है यह पुरुष जडको सेरहे हैं मस्तक मंडत अपंडित ने सेवे हैं निविज्ञान रहित शोभा करी सहित देदीप्यमान शरीर यह पुरुष कैसा है कहांसे आहार कर है कैसी चीज खाय है कहांसे पीवे है सेवकको खर्च कहांसे देता है जिसकरके यह पुरुष मोटा महा वीरता मनुष्यों की पर खदा मांही बैठा है और मोटे 2 शब्द करके बोले है ऐमा बिचार मनमें चिंतवन कर के चितस्वार्थी से ऐसा कहता हुवा कि हे चित्र जड़ पुरुष घणा निश्चय अहो एक जड़ मूर्ख प्रते सेवे है यह सभा में बैठा हवा देसना दे रहा है तिस रीति के पूर्व मनमें विकल्प सो सर्व बिकल्प चित्त स्वार्थी से कहता हुवा परंतु उन बिकल्लों में ऐसा बिकल्प उस प्रदेसी राजा को न उठा कि यह मुख बंधा मुख बांधे हुवे कथा करता है अथवा चित्त स्वार्थी से भी ऐसे वचन से कहा कि हे चितस्वार्थी यह मुख बंधा बेठा हुवा क्या कर रहा है ऐसा भी न कहा और श्री केशी कुमार ने भी प्रदेशी राजा से न कहा कि तुमने ऐसा चितव्या कि यह कौन है मुख बंधा क्योंकि प्रदेशी राजा ने मुख बांधने का बिकल्प अपने चित्त में न किया इसलिये श्री केशी कुमार ने भी न कहा क्योंकि देखो जिन का मुख बंधा होता है उनको प्रत्यक्ष अजान लोग कहते हैं कि यह मुख बंधा कौन है इसलिये मालूम होता है कि मुख बांधना जैन धर्म का लिंग नहीं किन्तु अन्य लिंग है इस रीति से श्री उत्तराध्येनजी के 20 वें अध्येन राजा श्रेणिक अनाथी मुनि को देखकर उनके रूप का वर्णन करताहुआ आचार्य को पाया सो वर्णन चौथी पांचवी छठी

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