________________ [26] जेन लिंग निर्णय // हथ्थेणवा मुहेणवा फुमेजवा वीएज्जवासेपुवामेव आलोएजवा आउसंतिवा भगणीशिवा माएतंतुमं असणंवा 4 अच्चुसिणं सूएणवा जावफूमाहिवा अभिकखसीमेदातु एमेवादन याहि सेसेवंवदंतस्स परोसुवेणवा जाववीपीत्ता आहटुदल एज्जा तहप्पगारं असणंवा 4 अफामयं जावणोपडि गाहिजा अर्थः- से भीखुवा कहतां साधु साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करे उसवक्त जो साधु अशणादिक चतुरविधि आहार देने के वास्ते अतिउत्कृष्ठ शीतल करने के अर्थ गृहस्थी साधुके लिये सुप करके (सूपड़ा वा छाजला) अथवा वीजना (पंखा ) अथवा खजरपत्रादिक करके अथवा पत्ता करके अथवा पत्साके टुकड़ा कर के अथवा शाखा ( डाली) करके अथवा शाखा का एक भाग लेकर अथवा मोर के पंख की बीच की मीजी अर्थात् चंदोया अथवा वस्त्र करके अथवा वस्त्र के पल्ले से अथवा हाथ से अथवा मखसे अथवा फूंकसे इत्यादिक रीति कर के शीतल करे तो साधु पहिले ( आलोक ) देखे सावधानीसे देखे तब गृहस्थ ने ऐसा कहा सो दिखाते हैं आयुष्मान् अथवा भगिनी (बहिन ) अशणादिक अति उष्ण जान कर जो वीजना से आदि लेकर जो पाठ कह आये हैं कि मुखसे फंक लगाकर जो हमको देना बांचेहो सो वायुकाय उदारिक बिना दे अर्थत् वायुकाय की हिंसा होने से जाव सुप से लेकर मुख से फंक लगाय कर इस रीतिसे शीतल करके अशणादि चतुर्बिध अपासुक यावत न कल्पे अर्थात् इस रीति से साधको आहार न लेना इस पाठ के देखने से तो श्री वीतगग देव वायु काय की दया कही गृहस्थी मुनि को बीजना आदि से लेकर मुख से फूंक लगाय कर मुनि को देवेतो साधु को नहीं कल्पे कदाचित कोई खुले मुख से कोई बोलकर मुनि को अक्षणाधिक चतुर्विधि आहार देवेतो सुख करके ले अब जो कोई ऐसा कहते हैं कि खुले मुख से बोले तो वायुकाय की हिंसा