________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [21] दुरुह मेहघण सन्निगासं देवसन्निवायं पुढवीसीला पट्टयं यडिलेहइत्ता 2 उच्चारपासवण भूमी पडिलेहइ 5 त्ताः दभ्भसंथारयं संथरइ 2 ता पुरथ्थाभि मुहे संपलियकणिसन्ने करयल परिग्गाहियं दसनहमिरिसावत्तं मथ्थय अंजलीकटु एवं वयासी नमोथ्थुणं अहिंताणं भगवंताणं जाव संपताणं // अर्थ-अब श्री भगवान तथा रूप शक्तीवंत थीवरों का साथ लेकर विसतीरणी पर्वत ऊपर सहज 2 में चढकर सजल मेघ जैसी स्याम देवतों रमणे योग्य पुहुवी शिला अर्थात् (पाखरशाला ) पडिलेहकर बडनी तले धनी तपास की भूमि कापडी लेहकर फेर पादोगमन अनसणथी पहिले उच्ता आदिक की भूमि अर्थात् जमीन को पूजना अर्थात् पडिलेहना ऐसाहै आचार जिनका फिर डाभका संथारा अर्थात् बिछौना करके पूरब सामो अर्थात् पूरव मुख करकं पद्मास्न लगाय कर हाथ दोनों जोड़कर अर्थात् दसों नख इकट्ठा मिलाकर मस्तक के विषय आवरतन अर्थात् माथे (लिलाट ) के चढायकर ऐसा कहते हुवे कि नमस्कार हो अरिहँतको भगवंतको जाव संपत्ताणं कहता मुक्ती स्थान पावे जहां तक इस पाठ को देख करके मुख बांधने वाले ऐसा प्रश्न करते हैं कि दोनों हाथ जोड़ कर माथे को लगावे तो मुख खुला रहता है और जो मुख ढकेतो माथे अंजली क्यों कर कर सके ऐसी कुयक्ति लगाय कर मुख बांधनेको साबित करतेहैं इस कुयक्ति का उत्तर जिनआज्ञा धारने वाले देतेहैं कि हे भोले भाई उचार वड़नीती भूमिका देखकर पीछे संथाराकरा फिर अनुक्रम करके एक एक रीति कर के दूसरी रीति कर के सभी क्रिया इकट्ठी ही करी तब विवेक शून्य बुद्धि विचक्षण कहने लगा कि एक काम को करके पीछे दूसरा काम करेगा तो है भव्य तूं इस जगह भी बुद्धि का विचार कर मिथ्यात को परि हर कुगुरु की बात हृदय में मत धर अपने कल्याण की इच्छा कर क्योंकि देख जैसे तू कहताहै