Book Title: Jain Ling Nirnay
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Page 20
________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [13 भेष कहा है क्योंकि जैसे भरतादिक ने जतीके भेष बिना गहस्थ पने में ज्ञान दर्शन, चारित्र करके मोक्ष का साधन किया है गोतम प्रतिज्ञा से तुम्हारी यहां इस रीति से केशी और गोतमस्वामी के शिष्यों को दो प्रकार का भेष देख रक संशय उत्पन्न हुवा सो किसवास्ते संशय उत्पन्न हुवा कि वे लोग आत्मार्थी थे उनका संदेह मिटाने के वास्ते श्रीकेशीकुमार और श्रीगोतमस्वामी यह दोनों आचार्य महाराज आत्माअर्थी और दूसरे के उपकार करने में था चित्त जिनका एक रात्पुरुष दोनों जने मिलकर संशय के दूर करने के वास्ते जिन धर्म की एक्यता करी और पहिली आचरणा को छोड़ श्री माहावीर स्वामी की आचरणा को अंगीकार किया और अपने दोनोंतरफ के शिष्यों का सन्देह दूर करके जिनधर्म में एक भेष अर्थात् एक लिंगही रहेगा लोगों का संशय दूर हुआ इसी कारणसे इस अध्येन में यही कथन लिक्खा है इसलिये इस पञ्चमें कालमें भी जो आत्मार्थी है उन पुरुषों को तो मुख बांधने वाले को देख कर और हाथमें रखने वाले को देख कर अवश्यमेव संशय उत्पन्न होगा कि इन दोनों में जैन का साधु कौन है जब ऐसा संदेह जिन पुरुषों को होगा वे पुरुष तो अवश्यमेव निर्णय करने की इच्छा करेंगे कि जैन के साधू मुख बांधने वाले हैं कि हाथम मुहपत्ती रखने वाले हैं उन्ही आत्माअर्थी सत्पुरुषों के वास्ते हमने इस लिंग निर्णय करने के वास्तेही उद्यम किया है न तु जातिकुल के ओसवाल पोरवाड़ वगेरःजोकि अपने में एसा आभिमानसे समझते हैं कि जैनधर्म हमारेही लारे चलता है और हमारे सिवाय दूसरा इस जैनधर्म को कोई नहीं मानता मो हमारी खशी आवे जिसको साधू माने और उससे बिपरीत को असाध माने और जिसको हमने पकडलिया | उसको कौन छुड़ाने वाला है क्योंकि जैन धर्म में तो हम लोगों की मुख्यता है इसलिये हमारी खुशी होवे जैसा धर्म चलावें ऐसा जिन पुरुषों को अपनी जितिकुल और धन खर्चने का अभिमान | है और आत्माअर्थ धर्म करना परभव को सुधारना असत्य को

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