Book Title: Jain Ling Nirnay
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Page 22
________________ - कुमतोच्छेदन भास्कर // [15] काला वर्ण मोटे दांत बिक्राल रूप बांकी नासिका असार वस्त्रधारी पिशाच रूप उकरडी अर्थात् गलियों के पडेहए वस्त्र पहरे हुवे दलिद्री सरीखा इत्यादि अनेक वाक्य निंदारूप हरि केशीमनि को ब्राह्मणों ने कहे और मुख बांधने की निन्दा ती न करी इस से प्रत्यक्ष मालुम होता है कि साधू का मुख बंधा हुआ नहीं जो हरिकेशी मुनिका मुख बंधा हुवा होता तो ब्राह्मण प्रथम यही कहते कि यह मुख बंधा कालावरण पिशाचरूप कौन आया है सोतो न कहा क्योंकि देखो वर्तमान काल में जो मुख बांधते हैं उनको लोग यही कहते हैं कि यह मुख बंधा है ऐसी लौकिक में प्रत्यक्ष बात चलती है इसलिये साधको मुख बांधना ठीक नहीं दूसग और भी सुनो कि नसीय सूत्र उद्देशा 6 में ऐसा लिखा हुवा है कि दांत की बत्तीसी को दांतन आदिक से मले तो प्राश्चित आदिक आवे सोही सत्र दिखाते हैं: जेभिखमाउग्गासम्ममेहुणवडीयाए अप्पणोदन्तेआघसेज्जवाअघसेतंवा साइज्जइ 67 जेभिखुमाउग्गामस्स मेहुण बडीयाए भप्पणोदन्तेसीओदगवीयडेणवा उछोलेज्जवा पधो क्षेज्जवा उछोलतंवा पधोलंतंवा साइज्जइ // 18 // अर्थ-जो कोई साधू साधवी जिस स्त्री की जैसे माता जैसी इन्द्री है उस स्त्रीसे मैथुन के निमित्त अपने अचित दांत करके एक दिन घिसे हररोज घिसे उसको अनुमोदे अर्थात् अच्छा जाने जो कोई साधू साधवी माता जैसी इन्द्री है उससे मैथुन अर्थ अपने दांतको शीतल पाणी (जल) अर्थात् आचित से लेकर एक वार धोवे वारंवार घोवे अथवा एकदफे धोते को बहुदफे धोतेको अनुमोदे अर्थात् अच्छा जाने अब विचारना चाहिये कि जब मुख बांधा हुवा होता तो दांत घिसना अर्थात् धोना ये शृंगार देखकर स्त्री आदिक क्यों खुशी होती इसलिये मुंह बांधना हमेशा से नहीं चला जो मुंह | बांधना हमेशा से चला होता तो ऐसा पाठ कदापि न लिखते | - -

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