Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 9
________________ अङ्क ३-७] उपासना-तत्त्व ।। वह व्यक्ति यमनियमादिके द्वारा अपने अधिक उपयोगी है, इस बातको बतलानेआत्मसुधारके मार्गपर लग जाता है। की जरूरत नहीं, विज्ञ पाठक उसे स्वयं यह दूसरी बात है कि कोई मनुष्य नेत्र- समझ सकते हैं । और ऊपरके इस हीन (विवेकरहित) हो और उसे मूर्तिरूपी सम्पूर्ण कथनसे मूर्तिपूजाकी उपयोगितादर्पणमें परमात्माका जो प्रतिबिम्ब पड़ को बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। रहा है वह दिखलाई ही न देता हो; अथवा हाँ, जब मृर्तिपूजा इतनी अधिक उसका हृदय दर्पणके समान स्वच्छ न उपयोगी चीज़ है तब कभी कभी समाजहोकर मिट्टीके उस ढेलेके सदृश हो जो केसाक्षर व्यक्तियोंके द्वारा-ऐसे विद्वानोंप्रतिबिम्ब (उपदेश) को ग्रहण ही नहीं के द्वारा भी, जो अनेक बार बड़ी प्रबल करता और या इतना निर्बल हो कि उसे युक्तियों और जोरोंके साथ मूर्तिपूजाका ग्रहण करके फिर शीघ्र छोड़ देता हो, मण्डन कर चुके हों-इस समूची उपान्त और इस तरह अपने प्रात्माके सुधारकी या इसके किसी एक अंगका विरोध क्यों ओर न लग सकता हो; परन्तु इसमें मूर्ति- होने लगता है, यह एक प्रश्न है जो निःसका कोई दोष नहीं, न इन बातोसे मूर्ति- न्देह विचारणीय है। हमारी रायमें । की उपयोगिता नष्ट होती है और न इसका सीधा सादा उत्तर यही हो उसकी हितोपदेशकतामें ही कोई बाधा सकता है कि, जब उपासना अपने आती है। ऐसी परम हितोपदेशक मूर्तियाँ, उद्देश्योंसे गिर जाती है, उसमें भाव नहीं निःसन्देह, अभिवन्दनीय ही होती हैं। रहता-वह प्रायः प्राणरहित हो जाती इसीसे एक प्राचार्य महाशय उनका निम्न- है--उसके लिए किरायेके आदमी रखने. प्रकारसे अभिवादन करते हैं: की नौबत आ जाती है, उपासनाके नाम "कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मी पर समाजमें सूखा क्रियाकांड फैल जाता परया शांततया भवान्तकानाम् ।। है, उसकी तहमें अनेक प्रकारके अत्याप्रणमामि विशुद्धये जिनानां चारोंकी वृद्धि होने लगती है, उसमें व्यर्थके आडम्बर बढ़ जाते हैं और समाजप्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमंति ।। की शक्तिका दुरुपयोग होने लगता है, -क्रियाकलापः ।। तब वह उपासना तात्विक दृष्टिसे उप. अर्थात्-संसारसे मुक्त श्रीजिनेन्द्र- योगी होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टिसे देवकी उन तदाकार सुन्दर प्रतिमाओंको उपयोगी नहीं रहती और इसलिये उसका मैं अपनी आत्मशुद्धिके लिए, प्रणाम विरोध प्रारम्भ हो जाता है। विरोध करता हूँ जो कि अपनी परम शान्तताके करनेवालोका मुख्य उद्देश्य, उस समय, द्वारा संसारी जीवोंको कषायोकी मुक्ति- प्रायः यही होता है कि, यदि समाजकी का उपदेश देती हैं। इस उपासनामें कुछ भी प्राण अवशिष्ट है - इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र प्रतिमाओं- तो उसे संजीवित किया जाय, अनेक की यह पूजा आत्मविशुद्धि के लिए की प्रकारके उपयोगों द्वारा उपासना तत्वकी जाती है। और जो काम आत्माकी शुद्धि- पुट देकर उसमें अधिक प्राणका संचार के लिए-श्रात्माकी विभाव-परिणतिको किया जाय, और यदि प्राण बिलकुल नहीं दूर करके उसे स्वभावमें स्थित करनेके रहा हो और न फिरसे उसका संचार हो उद्देश्यसे-किया जाता हो वह कितना सकता हो तो उसके साथ उस मृतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jaigelibrary.orgPage Navigation
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