Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग १५ । जैनहितैषी श्रीवर्द्धमानाय नमः । पूस, माघ सं० २४४७ । जनवरी, फरवरी सन् १६२१ विषय-सूची १ - उपासना तस्व २- हाथी गुफाका शिलालेख ३ - पुरानी बातों की खोज ४ - विशेष अनुसन्धान ... ५- सिद्धवरकूट ६ - प्रतिमा के लेखपर विचार ७ - बहुविवाह विरोधका रहस्य ८- सेठ लालचन्दजी सेठीके भाषणका कुछ सारभाग ६- कुछ सामयिक बातें... ६४–७२ ७३–७६ ७६ - ८१ ८२-८३ ८५-८६ ६६-० ८६ - ६१. 83-88 ६६-१०२ | १० – कुछ ऐतिहासिक बातें ११ - जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी ... १२ – कांग्रेस १३ – तीथके झगड़ोंको निबटाने का उपाय १४ – समस्त दिगम्बर जैन पंचों से अपील १५ - विविध विषय १६ - सूत कातनेका कर्त्तव्य ... सम्पादक, बाबू जुगुल किशोर मुख्तार । श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी For Personal & Private Use Only १०२ - १.५ १०५-१०६ १०६ - ११० प्रार्थनायें । १ जैनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धि से प्रेरित होकर निजी लाभ के लिये नहीं निकाला जाता है। इसके लिये समय, शक्ति और धन- का जो व्यय किया जाता है वह केवल निष्पक्ष और ऊँचे विचारोंके प्रचारके लिये; अतः इसकी उन्नतिमें हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए । २ जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको वे जितने मित्रोंको पढ़कर सुना सकें, अवश्य सुना दिया करें । ३ यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध मालूम.. हो तो केवल उसीके कारण लेखक व सम्पादकसे द्वेषभाव धारण न करने के लिये सविनय निवेदन है । ४ लेख भेजने के लिये संभी सम्प्रदायके लेखकों को आमंत्रण है । सम्पादक । ११०-१२२ ११३-११४ ११५- १२७ १२७-१२८ अंक ३, ४. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमावली | १ जैनहितैषी का वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया पेशगी है । २ ग्राहक वर्ष के श्रारम्भसे किये जाते हैं और बीचमें वें अंकसे । श्रधे वर्षका मल्य १॥) i ३ प्रत्येक अंकका मूल्य । चार श्राने । ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ पुस्तकें आदि 'बाबू जुगुल किशोरजी मुख्तार, सरसावा (सहारनपुर ) ” के पास भेजना चाहिए। सिर्फ प्रबन्ध और मूल्य आदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे किया जायः मैनेजर जैन ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । पुष्पलता । हिन्दीमें एक नये लेखक की लिखी हुई अपूर्व गल्पें । प्रत्येक गल्प मनोरंजक, शिक्षा प्रद और भावपूर्ण है । सभी गल्पें स्वतन्त्र हैं और हिन्दीसाहित्यके लिये गौरवकी चीज हैं। जो लोग अनुवाद ग्रन्थोंसे अरुचि रखते हैं उन्हें यह मौलिक गलग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए । ७-८ चित्रोंसे पुस्तक और भी सुन्दर हो गई है । हिन्दीग्रन्थ- रत्नाकर-सीरीजका यह ४९वाँ ग्रन्थ है । मूल्य १) सजिल्दका १ ॥ आनंदकी पगडंडियाँ । जेम्स एलेन अँगरेजीके बड़े ही प्रसिद्ध श्रध्यात्मिक लेखक हैं। उनके ग्रन्थ बड़े ही मार्मिक और शान्तिप्रद गिने जाते हैं । अँगरेजी में उनका बड़ा मान है । यह ग्रन्थ उन्हींके 'Byways of Blessedness नामक ग्रन्थका अनुवाद है । प्रत्येक विवेकी और विचारशील पुरुषको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए । मूल्य १) सजिल्दका १ ॥ ) सुखदास । जार्ज - ईलियट के सुप्रसिद्ध उपन्यास 'साइलस मारनर' का हिन्दी रूपान्तर । इस पुस्तकको हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ उपन्यास-लेखक श्रीयुत् प्रेमचन्दजीने लिखा है । बढ़िया एण्टिक पेपर पर बड़ी ही सुन्दरतासे छुपाया गया है। उपन्यास बहुत ही अच्छा और भावपूर्ण है । मूल्य ॥ =) नये ग्रंथ । १ स्वाधीनता - जान स्टुअर्ट मिलकी 'लिबर्टी' का अनुवाद । यह ग्रन्थ बहुत दिनों से मिलता नहीं था, इसलिये फिरसे छपाया गया है । 'स्वाधीनता' की इतनी अच्छी तात्विक आलोचना आपको कहीं न मिलेगी । प्रत्येक विचारशीलको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए । मूल्य २) सजिल्दका २ || ) २ ज्ञान और कर्म हिन्दीमें अपूर्व तात्विक ग्रन्थ । कलकत्ता हाईकोर्ट के जज स्वर्गीय सर गुरुदास बन्धोपाध्यायके लिखे हुए सुप्रसिद्ध ग्रन्थका अनुवाद | इसमें मनुष्यके इहलोक और परलोकसम्बन्धी सभी विषयोंकी बड़ी विद्वत्तापूर्ण श्रलोचना की गई है। बहुत बड़ा ग्रन्थ है । मूल्य ३) सजिल्दका ३ ॥ ) ३ जान स्टुअर्ट मिल-स्वाधीनताके मूल लेखकका अतिशय शिक्षाप्रद और पढ़ने योग्य जीवनचरित। अबकी बार यह जुदा छपाया गया है । मूल्य ॥ =) दक्षिण अफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास-लेखक, पं० भवानीदयालजी, ३५ चित्रोंसे युक्त । मूल्य ३ ॥ रूसकी राज्यक्रान्ति-लेखक, पं० रमाशंकर अवस्थी । २३ चित्रोंसे सुशोभित । मू० ३॥ ) तमाखूसे हानि - पं० हनुमत्प्रसादजी वेधकृत । मू० मलावरोध- चिकित्सा- " 1=) 99 मू० 13) फिजी में भारतीय प्रतिज्ञाबद्धकुलीप्रथा-लेखक, एक भारतीय हृदय । मूल्य १) For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । KK SC Eavan PRAVNAVRSenbesLOGERBihar RELIGERSORBITIO पन्द्रहवाँ भाग। अंक ३-४ emensteames PRASANNRNBINDABALBLE ecrereams जैनहितैषी। cwwwra anteerNaaveen पौष, माघ २४४७ ३ जनवरी, फरवरी १९२१ MammaNRLoaning Kaivarwww.crowain e rarwa T Sonar RRENIONA न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' । उपासना-तत्त्व । पड़ी रहती हैं; वे उनसे ही अपना मस्तक रगड़ा करते और उन्हें प्रणामादिक किया [ उत्तरार्द्ध । करते । पर ऐसा नहीं है । मूर्तिके सहारेमूर्तिपूजा। से परमात्माको ही पूजा, भक्ति, उपासना और आराधना की जाती है। मूर्तिके परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था- द्वारा मूर्तिमानकी उपासनाका नाम ही । अर्थात् अर्हन्त अवस्थामें सदा और सर्वत्र मूर्तिपूजा है। इसी लिए इस मूर्तिपूजाके विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमा- देवपूजा, देवाराधना, जिनपूजन, देवार्चन, स्माके स्मरणार्थ और परमात्माके प्रति भगवत्पर्युपासन, जिनार्चा इत्यादि नाम आदरसत्काररूप प्रवर्त्तनेके पालम्बन कहे जाते हैं और इसी लिए इस पूजनको स्वरूप उसकी अर्हन्त अवस्थाकी मूति साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके है। यथा :वीतरागता, शान्तता और ध्यानमुद्राआदि गुणोंका प्रतिबिम्ब होती है। उसमें स्थापना "भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या निक्षेपसे परमात्माकी प्रतिष्ठा की जाती कृत्रिमाकृत्रिमा सदा । है। उसके पूजनेका भी समस्त वही उद्देश्य __ यतस्तद्गुणसंकल्याहै जो पहले (पूर्वार्ध) वर्णन किया गया प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥. है, क्योंकि मूर्तिकी पूजासे किसी धातु --धर्मसंग्रहश्रावकाचार अ०९ श्लो० ४२॥ पाषाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट ) नहीं । है। ऐसा होता तो गृहस्थों के घरों में सैंकड़ों उर्दू के एक कवि शेख साहबने भी इस बाट बटेहड़े आदि चीजें इसी किस्मकी सम्बन्धमें अच्छा कहा है : For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ . उसमें एक खुदाईका जलवा है वरनाऐ शेख! तथा पापोंकी निवृत्तिपूर्वक अपने आत्मसिजदा करेसे फायदा पत्थरके सामने ? स्वरूपकी प्राप्तिमें अग्रसर होते हैं। अर्थात्-परमात्माकी उस मूर्तिमें जब कोई चित्रकार चित्र खीचनेका __ अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम खुदाईका जलवा-परमात्माका प्रकाश सुगम और सादे चित्रोंपरसे, उनको और ईश्वरका भाव-मौजूद है जिसकी देख देखकर, अपना चित्र खींचनेका वजहसे उसे सिजदा-प्रणामादिक अभ्यास बढ़ाता है; एकदम किसी कठिन, किया जाता है; अन्यथा, पत्थरके सामने गहन और गम्भीर चित्रको वह नहीं बना सिजदा करनेसे कोई लाभ नहीं था। सकता । जब उसका अभ्यास बढ़ जाता भावार्थ, परमात्माकी मूर्तिको जो प्रणा है, तब कठिन, गहन और रङ्गीन चित्रोंको मादिक किया जाता है वह वास्तव में पर भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है मात्माको-परमात्माके गुणोंको ही और छोटे चित्रको बड़ा और बड़ेको छोटा प्रणामादिक करना है, धातु पाषाणको भी करने लगता है। अागे जब अभ्यास प्रणामादिक करना नहीं है। और इसलिए करते करते वह चित्रविद्यामें पूरी तौरसे उसमें लाभ ज़रूर है। जैन-दृष्टिसे खुदाई निपुण और निष्णात हो जाता है, तब वह का वह जलवा परमात्माके परम वीत - चलती, दौड़ती, भागती वस्तुओका भी रागता और शान्ततादि गुणों का भाव है। जो जैनियों की मूर्तियों में साफ़ तौरसे खींचकर रख देता है और चित्र नायकको चित्र बड़ी सफ़ाई के साथ बातकी बातमें झलकता और सर्वत्र पाया जाता है। परमात्माके उन गुणोंको लक्ष्य करके ही न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही मालूम करके उसका साक्षात् जीता जैनियोंके यहाँ मूर्तिकी उपासना की जागता चित्र भी अंकित कर देता है। इसी जाती है। प्रकार यह संसारी जीव भी एकदम ... परमात्माकी इस परम शान्त और परमात्मस्वरूपका ध्यान नहीं कर सकता; वीतराग मूर्तिके पूजनमें एक बड़ी भारी अर्थात्, परमात्माका फोटो अपने हृदयखूबी और महत्वकी बात यह है कि जो पर नहीं खींच सकता; वह परमात्माकी संसारी जीव संसारके मायाजाल और परम वीतराग और शान्त मूर्ति परसे ही गृहस्थीके प्रपंचमें अधिक फंसे हुए हैं, आपने अभ्यासको बढ़ाता है । मूर्तिके जिनके चित्त अति चंचल हैं और जिनका निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस आत्मा इतना बलाढ्य नहीं है कि जो मूर्तिकी वीतराग छबि और ध्यानमुद्रासे केवल शास्त्रों में परमात्माका वर्णन सुन. वह परिचित हो जाता है, तब शनैः शनैः कर एकदम बिना किसी नकशेके परमा- एकान्तमें बैठकर उस मूर्तिका फोटो अपने स्मस्वरूपका नकशा (चित्र) अपने हृदयपर हृदयमें खींचने लगता है और फिर कुछ खींच सके या परमात्म-स्वरूपका ध्यान देरतक उसको स्थिर रखनेके लिये भी कर सके, वे भी उस मूर्तिके द्वारा पर- समर्थ होने लगता है। ऐसा करने पर मात्म-स्वरूपका कुछ ध्यान कर सके, वे उसका मनोबल और प्रात्मबल बढ़ जाता भी उस मूर्ति के द्वारा परमात्मस्वरूपका है और फिर वह इस योग्य हो जाता है कुछ भ्यान और चिन्तवन करने में समर्थ कि उस मूर्तिके मूर्तिमान श्रीअर्हन्तदेवका हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुःखों समवसरणादि विभूति सहित साक्षात् For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ ] . उपासना-तत्त्व। चित्र भी अपने हृदयमें खींचने लगता है। यह तो हुई मूर्ति विशेष और जैनियों के इस प्रकारके ध्यानका नाम 'रूपस्थध्यान' मूर्तिपूजा-विषयक ख़ास सिद्धान्तकी बात। है और यह ध्यान प्रायः मुनि अवस्था ही अब यदि आम तौरसे मूर्तिपूजाके सिद्धान्त में होता है। पर नज़र डाली जाय और मूर्ति के स्वरूप आत्मीय बलके इतना उन्नत हो जाने पर सूक्ष्मताके साथ विचार किया जाय की अवस्थामें फिर उसको धातुपाषाणकी और उसके अर्थ-संबन्धमें कुछ गहरा मूर्ति के पूजनादिकी या दूसरे शब्दों में यों उतरा जाय तो मालूम होगा कि संसारकी कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिए कोई भी उपासना बिना मूर्तिके नहीं बन मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी सकती-मूर्तिका अवलम्बन ज़रूर लेना नहीं रहती; बल्कि वह रूपस्थध्यानके पड़ता है, चाहे वह मूर्ति सूक्ष्म हो या अभ्यासमें परिपक्व होकर और अधिक स्थूल । आप किसीकी प्रशंसा नहीं कर उन्नति करता है और साक्ष सिद्धोंका सकते जबतक कि मूर्तियों का सहारा न चित्र भी खींचने लगता है जिसको 'रूपा- ले लेवे । शब्द जिनके द्वारा परमात्माकी तीत ध्यान' कहते हैं। इस प्रकार ध्यानके या किसीकी भी स्तुति की जाती है, नाम बलसे वह अपने आत्मासे कर्ममलको लिया जाता है और गुणानुवाद गाया छाँटता रहता है और फिर उन्नतिके सो जाता है वे सब मूर्तिक हैं, मूर्तिकसे पानपर चढ़ता हुआ शुक्ल ध्यान लगाकर उत्पन्न होते हैं, मूर्तिक पदार्थोंसे रोके समस्त कर्मोको क्षय कर देता है और इस जाते है, फोनोग्राफ़में भरे जाते हैं और प्रकार प्रात्मत्वको प्राप्त कर लेता है। इसलिये एक प्रकारकी सूक्ष्म मूर्तियाँ हैं। अभिप्राय इसका यह है कि, मूर्ति है। इसी तरह शब्दोंके द्योतक जो अक्षर हैं ये पूजा आत्मदर्शनका प्रथम सोपान है और - भी शब्दोंकी नाना प्रकारकी प्राकृतियाँ उसकी आवश्यकता प्रायः प्रथमावस्था हैं-मूर्तियाँ हैं जिन्हें भिन्न भिन्न देशों (गृहस्थावस्था) हीमें होती है। बल्कि, __ अथवा जातियोंने अपने अपने व्यवहारके दूसरे शब्दोंमें, यों कहना चाहिये कि लिये कल्पित कर रक्खा है। हाथीको जितना जितना कोई नीचे दर्जे में है, उतना संस्कृतमें 'गज', प्राकृतमें 'गय', फारसी में 'फील', अरबीमें 'पील' और अंग्रेजीमें उतना ही ज्यादा उसको मूतपूजाका या मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत है। 'एलिफेट' ( Elephant ) कहते हैं । यही कारण है कि हमारे प्राचार्योने अन्यान्य भाषाओंमें उसके दुसरे नाम हैं और एक एक भाषामें कई कई नाम भी गृहस्थोंके लिये इसकी ख़ास ज़रूरत रक्खी है और नित्य पूजन करना गृहस्थ हैं-जैसे संस्कृतमें इभ, करी इत्यादिकका मुख्य धर्म वर्णन किया है* । और ये सब नाम अनेक लिपियोंमें भिन्न भिन्न प्रकारसे लिखे जाते हैं। इन शब्द रूप मूर्तियोंके कानोसे टकराने पर या • दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा । • अक्षररूप मूर्तियोंके नेत्रोंके सामने आनेभाणज्झयर्ण मुवखं जइधम्मो तंविणा सोवि ।। -रयणसार। । पर जब हाथी नामके एक विशाल जन्तु पर जब हाथ देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । (जानवर) का बोध होता है तो वह हाथीदानं चेति गृहस्थानां षटकमोणि दिने दिने ॥ की साक्षात् (तदाकार) मूर्तिको देखनेपर -पद्मनंदिपंचविंशतिका। उससे कहीं अधिक हो सकता है और For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ होता है। हाथीके नामसे हाथीकासामान्य सामने रखकर ध्यान करनेसे यदि किसी ज्ञान ही होता है, परन्तु उसकी तदाकार पुण्य-फलकी प्राप्ति होती है तो वह तदा. मूर्तिके देखनेसे रङ्ग-रूप और आकार. कार मूर्ति परसे परमात्माका चिन्तवन प्रकारादिका बहुत कुछ हाल मालुस हो । करनेसे भी जरूर होती है और ज्यादा हो आता है। यही दोनों में विशेष है, और सकती है। ऐसी हालतमें जो खोग परइसी विशेषकी वजहसे आजकल विद्वान मात्माकी शब्दों और अक्षरोंमें लापना लोग शिक्षालयोंमें भी चित्रों और मूर्तियों- करके उन अतदाकार मूर्तियोंके द्वारा के द्वारा बालकको शिक्षा देना ज़्यादा उसकी उपासना करते हैं उन्हें परमात्मापसन्द करने लगे हैं। 'की तदाकार मूर्तियाँ बनाकर उपासना परमात्माके सम्बन्धमें भी यही सब करनेवालों पर आक्षेप करनेकी जरूरत बातें समझ लेनी चाहिएँ। परमात्माके नहीं है और न वैसा करनेका कोई हक ईश्वर, परब्रह्म, अल्ला, खुदा, गौड (God) ही है; क्योंकि वे स्वयं ही मूर्तियों द्वारा आदि नामोंके उच्चारण करनेसे अथवा बल्कि अस्पष्ट मूर्तियों द्वारा-परमात्माकी इन नामोंको किसी लिपिविशेषमें लिख- उपासना करते हैं और उससे शुभ फलका कर सामने रखमेसे इन उभय प्रकारकी होना मानते हैं। वास्तवमें यदि देखा (शब्द अक्षर रूपवाली) मूर्तियोंके द्वारा जाय तो कोई भी चिन्तवन अथवा ध्यान यदि परमात्माका बोध होता है तो पर- बिना मूर्तिका सहारा लिये नहीं बन मात्माकी तदाकार मूर्ति-उसकी जीव- सकता और न निराकारका ध्यान ही मुक्कावस्थाकी आकृति-के देखनेसे हुआ करता है। प्रत्येक भ्यान अथवा वह बोध और भी ज्यादा स्पष्ट होता है। चिन्तवनके लिए किसी न किसी मूर्ति या यदि यह कहा जाय कि ऐसी मूर्तिके आकार विशेषको अपने सामने रखना द्वारा परमात्माका कुछ बोध ही नहीं होता है, चाहे वह नेत्रोंके सामने हो होता तो वह शब्दों और अक्षरोंके द्वारा अथवा मानस प्रत्यक्ष । इसी अभिप्रायको बिलकुल नहीं होता, यह कहना चाहिए, हृदयमें रखकर उर्दूके एक कवि पं० मंगतक्योंकि वे भी मूर्तियाँ हैं और अतदाकार रायजी नानोताने ठीक कहा हैमूर्तियाँ हैं। जब तदाकार मूर्तियोंसे ही, "अबस यह जैनियों पर जो कि ज्यादा विशद होती हैं, अर्थावबोध इत्तहामे बुतपरस्ती है। नहीं होता तो फिर अतदाकार मूर्तियोसे बिना तसवीरके हरगिज यह कैसे हो सकता है ? परन्तु यह कहना तसव्वर हो नहीं सकता।" ठीक नहीं है । इसी तरह यह. भी समझना चाहिए कि परमात्माका नाम लेने अर्थात्-जैनियों पर बुतपरस्तीकासे, शब्दों द्वारा परमात्माकी स्तुति करने मूर्तिपूजा विषयक- जो इलजाम लगाया से-परमात्मनेनमः, ईश्वरायनमः, पर जाता है-यह कहा चाता है कि वे धातुब्रह्मणे नमोनमः, ऊँनमः, णमो अरहंताणं, पाषाणके पूजनेवाले हैं-वह बिलकुल प्रल्हम्दोलिल्ला* इत्यादि मन्त्रोंके उच्चारण व्यर्थ और निःसार हैं; क्योंकि कोई भी करनेसे-या 'ऊँ' श्रादि अक्षरोंकी आकृति तसव्वर-कोई भी ध्यान अथवा चिन्त वन-बिना तसवीरके, बिना मूर्ति या यह अरवी भाषाका मुसलमानी मन्त्र है। चित्रका सहारा लिये नहीं बन सकता। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलना-तत्व। भावार्थ, ध्यान तथा चिन्तवनकी सभीको भी महत्व नहीं दिया जा सकता। अथवा निरन्तर जरूरत हुआ करती है. इसलिए यों कहना चाहिए कि ऐसे लोगोंको सभीको मर्तियोंका श्राश्रय लेना पडता मूर्तिका रहस्य मालूम नहीं है। उन्हें यह है और इस दृष्टिसे सभी मूर्तिपूजक हैं। खबर ही नहीं कि ऐसा कोई भी मनुष्य तब, जैनियों पर ही कैसे उसका दोष संसारमें नहीं हो सकता जो मूर्तिका मढ़ा जा सकता है। उन्हें इस विषयमें, उपासक न हो अथवा परमात्माकी उपादोष देना बिलकुल फजूल और निर्मूल सनामें मूर्तिकी सहायता न लेता हो; और है। वे अपनी मूर्तियोंके द्वारा परमात्मा इसलिए उन्हें ऊपरके इस सम्पूर्ण कथनहीका ध्यान तथा चिन्तवन किया करते हैं। से मूर्तिका रहस्य खूब समझ लेना इसलिए जो लोग मूर्तिपूजाका निषेध चाहिए और यह जान लेना चाहिए कि करते हैं, मूर्तिको जड़, अचेतन, कृत्रिम इन स्थूल मूर्तियोंकी पूजाका कोई दूसरा बतलाकर और यह कहकर कि वह उद्देश्य नहीं है, इनके द्वारा परमात्माकी हमारा कुछ भला नहीं कर सकती, उससे ही उपासना की जाती है। ये परमात्माघुणा उत्पन्न कराते हैं, यह सब उनकी के प्रतिरूप हैं, प्रतिबिम्ब है और इसी बड़ी भूल है। वे खुद बात बातमें मूर्ति- सिए इन्हें प्रतिमा भी कहते हैं । बुद्धिमान् का सहारा लिया करते हैं, मूर्तियोंका लोग इनमें परमात्माका दर्शन अथवा आदर सत्कार करते हुए देखे जाते हैं,* इनके सहारेसे अपनी आत्माका अनु. जड़ पदार्थों के पीछे भटकते हैं, उनके लिए भवन किया करते हैं, जैसा कि हमने अनेक प्रकारकी दीनताएँ करते हैं, संसार- शुरूमें प्रकट किया है। नीचेके एक पद्यमें उनका कोई भी काम जड़ पदार्थोकी से भी पाठकोंको ऐसा ही मालूम होगा, सहायताके बिना नहीं होता, वे अपने जिसमें कवि मैथिलीशरणजीने उन भावोंचारों ओर जड़ तथा कृत्रिम पदार्थोसे को चित्रित किया है जो इस विषयमें, घिरे रहते हैं और उनसे नाना प्रकारके एक सामन्तके हृदयमें उस समय उदित काम निकाला करते हैं, जड़ तथा कृत्रिम हुए थे जब कि उसके देशके किलेकी गालीको सुनकर उन्हें रोष हो जाता है, मूर्ति बनाकर एक राणाके द्वारा, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके अभिप्रायसे तोडी जगत्का सम्पूर्ण कार्य व्यवहार प्रायः जाती थी और जिसे उस सामन्तने अपने जड़ तथा कृत्रिम मूर्तियों की सहायतासे उन भावोंके अनुसार तोड़ने नहीं दिया ही चल रहा है। इतने पर भी उनका था, बल्कि उसके लिए राणाले युद्ध मूर्तिको जड़ तथा कृत्रिम बतलाकर किया था । वह पद्य इस प्रकार है:. उससे घृणा उत्पन्न कराना कहाँतक ठीक --------- है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्रतिज्ञा जो सहसा क्रोधके आवेशमें बिना सोचे वास्तवमें, यह सब साम्प्रदायिक मोह, समझे की गई थी, यह थी कि जबतक उस देशके किलेमापसकी खींचातानी तथा पक्षपातका को नहीं तोड़ डालूँगा तबतक अन्नजल ग्रहण नहीं करूँगा। परन्तु सेना सजाकर वहाँतक पहुँचने श्रादिके नतीजा है और तात्विक दृष्टिसे उसे कुछ लिए. कितने ही दिनोंकी जरूरत थी और उस वक्ततक * वेदादि शास्त्रोंकी विनय और अपने महात्माओंके भूखा नहीं रहा जा सकता था, इसलिए प्रतिशा परी करने चित्रोंकी इज्जत करते हैं। परमात्माओंके नामादिकोंको के लिए मन्त्रियों द्वारा मूर्तिको तोड़नेकी योजना की बड़ी भक्तिके साथ उच्चारण करते हैं। गई थी। a For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ तोड़ने दूं क्या इसे कल्पना कीजिये, एक मनुष्य किसी __ नकली किला मैं मानके । स्थानपर अपनी छतरी भूल आया। वह पूजते हैं भक्त क्या प्रभुः जिस समय मार्गमें चला आ रहा था, - मूर्तिको जड़ जानके । उसे सामनेसे एक दूसरा आदमी पाता हुश्रा नज़र पड़ा जिसके हाथमें छतरी अज्ञ जन उसको भले ही थी। छतरीको देखकर उस मनुष्यको जड़ कहें अज्ञानसे। झटसे अपनी छतरीकी याद आ गई और . देखते भगवानको यह मालूम हो गया कि मैं अपनी छतरी धीमान उसमें ध्यानसे ।। अमुक जगह भूल पाया हूँ और इसलिए -रंगमें भंग। वह तुरन्त उसे लानेके लिए वहाँ चला इससे पाठक मूर्तिपूजाके भावको गया और ले आया। अब यहाँपर यह और भी स्पष्टताके साथ अनुभव कर प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस मनुष्यको सकते हैं, और यह समझ सकते हैं कि किसने बतलाया कि तू अपनी छतरी इन मूर्तियोंके द्वारा परमात्माका ही पूजना. अमुक जगहं भूल पाया है। वह दूसरा अभीष्ट होता है-धातुपाषाण का नहीं। श्रादमी तो कुछ बोला नहीं, और भी मूर्तिका विनय-विनय, वास्तव में मूर्ति- किसी तीसरे व्यक्तिने उस मनुष्यके कानमानका ही विनय-विनय है। और यही में आकर कुछ कहा नहीं। तब क्या वह वजह है कि जो कोई किसी महात्मा, जड़ छतरी ही उस मनुष्यसे बोल उठी परमात्मा, राजा या महाराजाकी लोकमें कि तू अपनी छतरी भूल पाया है परन्तु सम्प्रतिष्ठित मूर्तिका अविनय करता है ऐसा भी कुछ नहीं है। फिर भी यह ज़रूर वह दण्डका पात्र समझा जाता है और कहना होगा कि उस मनुष्यको अपनी उसे, प्रमाणित होनेपर, दण्ड दिया भी छतरीके भूलनेकी जो कुछ ख़बर पड़ी है जाता है। और वहाँसे लाने में उसकी जो कुछ प्रवृत्ति : यह ठीक है कि, धातुपाषाण की ये हुई है उन सबका निमित्त कारण वह मूर्तियाँ हमें कुछ देती-दिलाती नहीं हैं। छतरी ही है, उस छतरीसे ही उसे यह और इनसे ऐसी अाशा रखना इनके सब उपदेश मिला है और ऐसे उपदेशको स्वरूपकी अनभिज्ञता प्रकट करता है। "नैमित्तिक उपदेश" कहते हैं। यही उपतो भी परमात्माकी स्तुति श्रादिके द्वारा देश हमें परमात्माकी मूर्तियोपरसे मिलता म सानोको उत्पन्न करके हम जिस है। जैनियोंकी ऐसी मूर्तियाँ, ध्यानमुद्राप्रकार अपना बहुत कुछ हितसाधन कर को लिये हुए, परम वीतराग और शान्तलेते हैं उसी प्रकार इन मूर्तियोंकी सहा- स्वरूप होती हैं। उन्हें देखनेसे बड़ी यतासे भी हमारा बहुत कुछ काम निकल शान्ति मिलती है, आत्मस्वरूपकी स्मृति जाता है। मूर्तियोंके देखनेसे हमें पर- होती है-यह खयाल उत्पन्न होता है कि मात्माका स्मरण होता है और उससे हे आत्मन् ! तेरा स्वरूप यह है, तू इसे फिर मात्मसुधारकी ओर हमारी प्रवृत्ति भूलकर संसारके मायाजालमें और होने लगती है। यह सब कैसे होता है, कषायोंके फन्देमें क्यों फँसा हुआ हैइसे एक उदाहरणके द्वारा नीचे स्पष्ट नतीजा जिसका यह होता है कि, (यदि किया जाता है बीचमें कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती तो) For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-७] उपासना-तत्त्व ।। वह व्यक्ति यमनियमादिके द्वारा अपने अधिक उपयोगी है, इस बातको बतलानेआत्मसुधारके मार्गपर लग जाता है। की जरूरत नहीं, विज्ञ पाठक उसे स्वयं यह दूसरी बात है कि कोई मनुष्य नेत्र- समझ सकते हैं । और ऊपरके इस हीन (विवेकरहित) हो और उसे मूर्तिरूपी सम्पूर्ण कथनसे मूर्तिपूजाकी उपयोगितादर्पणमें परमात्माका जो प्रतिबिम्ब पड़ को बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। रहा है वह दिखलाई ही न देता हो; अथवा हाँ, जब मृर्तिपूजा इतनी अधिक उसका हृदय दर्पणके समान स्वच्छ न उपयोगी चीज़ है तब कभी कभी समाजहोकर मिट्टीके उस ढेलेके सदृश हो जो केसाक्षर व्यक्तियोंके द्वारा-ऐसे विद्वानोंप्रतिबिम्ब (उपदेश) को ग्रहण ही नहीं के द्वारा भी, जो अनेक बार बड़ी प्रबल करता और या इतना निर्बल हो कि उसे युक्तियों और जोरोंके साथ मूर्तिपूजाका ग्रहण करके फिर शीघ्र छोड़ देता हो, मण्डन कर चुके हों-इस समूची उपान्त और इस तरह अपने प्रात्माके सुधारकी या इसके किसी एक अंगका विरोध क्यों ओर न लग सकता हो; परन्तु इसमें मूर्ति- होने लगता है, यह एक प्रश्न है जो निःसका कोई दोष नहीं, न इन बातोसे मूर्ति- न्देह विचारणीय है। हमारी रायमें । की उपयोगिता नष्ट होती है और न इसका सीधा सादा उत्तर यही हो उसकी हितोपदेशकतामें ही कोई बाधा सकता है कि, जब उपासना अपने आती है। ऐसी परम हितोपदेशक मूर्तियाँ, उद्देश्योंसे गिर जाती है, उसमें भाव नहीं निःसन्देह, अभिवन्दनीय ही होती हैं। रहता-वह प्रायः प्राणरहित हो जाती इसीसे एक प्राचार्य महाशय उनका निम्न- है--उसके लिए किरायेके आदमी रखने. प्रकारसे अभिवादन करते हैं: की नौबत आ जाती है, उपासनाके नाम "कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मी पर समाजमें सूखा क्रियाकांड फैल जाता परया शांततया भवान्तकानाम् ।। है, उसकी तहमें अनेक प्रकारके अत्याप्रणमामि विशुद्धये जिनानां चारोंकी वृद्धि होने लगती है, उसमें व्यर्थके आडम्बर बढ़ जाते हैं और समाजप्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमंति ।। की शक्तिका दुरुपयोग होने लगता है, -क्रियाकलापः ।। तब वह उपासना तात्विक दृष्टिसे उप. अर्थात्-संसारसे मुक्त श्रीजिनेन्द्र- योगी होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टिसे देवकी उन तदाकार सुन्दर प्रतिमाओंको उपयोगी नहीं रहती और इसलिये उसका मैं अपनी आत्मशुद्धिके लिए, प्रणाम विरोध प्रारम्भ हो जाता है। विरोध करता हूँ जो कि अपनी परम शान्तताके करनेवालोका मुख्य उद्देश्य, उस समय, द्वारा संसारी जीवोंको कषायोकी मुक्ति- प्रायः यही होता है कि, यदि समाजकी का उपदेश देती हैं। इस उपासनामें कुछ भी प्राण अवशिष्ट है - इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र प्रतिमाओं- तो उसे संजीवित किया जाय, अनेक की यह पूजा आत्मविशुद्धि के लिए की प्रकारके उपयोगों द्वारा उपासना तत्वकी जाती है। और जो काम आत्माकी शुद्धि- पुट देकर उसमें अधिक प्राणका संचार के लिए-श्रात्माकी विभाव-परिणतिको किया जाय, और यदि प्राण बिलकुल नहीं दूर करके उसे स्वभावमें स्थित करनेके रहा हो और न फिरसे उसका संचार हो उद्देश्यसे-किया जाता हो वह कितना सकता हो तो उसके साथ उस मृतक For Personal & Private Use Only www.jaigelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५. शरीर जैसा व्यवहार किया जाय जो सनाके प्रत्येक अंग और ढंगकी जाँच अत्यन्त प्यारा और उपयोगी होते हुए करें, और रूढ़ियोंके मोहको जलांजलि भी, प्राणरहित हो जाने पर घरमें नहीं देकर, उन्हें बिलकुल उपासना-तत्वके रक्खा जा सकता। अथवा यो कहिये कि अनुकूल बना लेवें। ऐसा हो जानेपर अपने विरोधके द्वारा वे यही सूचित करते समाजके फिर किसी भी समझदार हैं कि, उपासनाके शरीरमें अमुक अमुक व्यक्तिको उनकी इस उपासनापर आपत्ति खराबियाँ उत्पन्न हो गई हैं उन्हें शीघ्र करने की कोई वजह नहीं रह सकती। दूर किया जाय, नहीं तो समूचे शरीर के समाज-हितैषियों को समाजमें इस नष्ट हो जानेका भय है; या शरीरको उपासना तत्वके फैलाने और इसके अनुअमुक अंग गल गया है: उसका यदि प्रति- कूल समाजकी प्रवृत्ति करानेका खास कार नहीं हो सकता तो उसे अलग कर तौरसे यत्न करना चाहिए। इसी में समाजदिया जाय, नहीं तो उसके संसर्गसे का कल्याण है। और इसी हितसाधनाकी. दूसरा अंग भी खराब हो जायगा, इत्या- दृष्टिसे यह निबन्ध लिखा गया है। दिक। जब समाजकी तरफसे इस बरोधकी कुछ सुनाई नहीं होती, बल्कि उलटी सरसावा । ता० २१-१-१९२१ खींचातानी बढ़ जाती है-समाज अपने दोषों पर विचार नहीं करता और न अपनी उपासनामें जीवन संचार करनेका कोई उपाय करता है, बल्कि उसे ज्योंका स्यों अस्वस्थ दशामें ही रखना चाहता है ___ गहरे अनुसंधान तथा गहरे विवेचन और इस तरहपर उसकी हालत ज्यादा को लिए हुए तत्व और इतिहास विषयखराब होने लगती है तब विरोध अपना के मौलिक लेखोंके तय्यार करने में कितना उग्र रूप धारण कर लेता है और उसके परिश्रम होता है-शक्ति और समयका उसमें कितना व्यय किया जाता है, इस कारण, देयादेयका विचार नष्ट होकर, उपासनाके उन अच्छे अच्छे स्वस्थ अंगों बातको वे ही विद्वान् अनुभव कर सकते हैं जो स्वयं उस प्रकारका काम किया को भी धक्का पहुँच जाता है जिनको धक्का पहुँचाना विरोधकारियों को कभी भी इष्ट करते हैं अथवा करना जानते हैं । अन्यथा, नहीं होता। और इस तरहपर एक अच्छी ऐसे लेखोकी जिस एक पंक्ति तथा वाक्यऔर उपयोगी संस्था समाजके दोषसे । को साधारण जनता श्राधे सेकंड में पढ़ बहुत कुछ नष्ट भ्रष्ट हो जाती है और . डालती है उसके प्रस्तुत करनेमें कितने भावी संतति उसके समुचित लाभोंसे 0 घंटे अथवा, कभी कभी, कितने दिन लगे वंचित ही रह जाती है । होंगे, इसे वह नहीं समझ सकती। इसलिये, समाजके व्यक्तियोंका यह -खंड विचार। खास कर्तव्य है कि वे उपासनाके तत्वको अच्छी तरहसे समझकर अपनी उपा जैनियोंमें स्थानकवासी और तारनपंथी जैसे सम्प्रशय ऐसे ही बिरोधके परिणाम हैं। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथीगुफाका शिलालेख। तो पहली पंक्तिके प्रारम्भमें एक दूसरेके हाथीगुफाका शिला-लेख। ऊपर हाशिए पर खुदे हुए हैं, जिनमें - पहला चिह्न वर्तमान राज-मुकुटकी भाँति जैन सम्राट् खारवेलका इतिहास। है, और यह जैनियोंके अष्ट-मंगलों मेसे [ लेखक-कुमार देवेन्द्रप्रसादजी, पारा।] बद्धमंगल कहलाता है । इसी चिहके नीचे उडीसा प्रान्तके 'खण्डगिरि पर्वतपर. दूसरा प्रसिद्ध 'स्वस्तिक' नामक चिह्न है। जो कि कटकके पास भुवनेश्वरसे ४-५ तीसरा चिह्न "नन्दिपद” है। यह प्रथम मीलकी दूरी पर है, 'हाथीगुफा' नामका का पंक्तिमें 'खारवेल' के नामके ठीक नीचे एक प्राचीन सुरम्य स्थान है, जहाँ एक खुदा है। और चौथा चिह्न एक वृक्षकाप्राचीन शिला-लेख पुराने गौरवको अपनी गोदमें लिये हुए है। इस शिलालेखका आजकल इस लेखकी दशा, प्रायः दो क्षेत्रफल १५-१" ४५६' (लगभग ४ हजार वर्षकी गर्मी, सर्दी और वर्षाक वर्ग फीट) है। इसमें १७ पंक्तियाँ हैं और कारण, विकृत हो गई है। बरौंने भी, प्रत्येक पंक्तिकी अक्षर-संख्या ६० और लेखके ऊपर अपने छत्ते बनाकर, उसकी १०.के बीचमें है। अक्षरोंका आकार प्राकृतिको बिगाड़नेमें कोई कसर नहीं ३१ इंचसे लेकर इंचतक पाया जाता। रक्खी। इसीसे उसकी कई पंक्तियाँ तो है। गुफाके मध्य में निकले हुए एक सफेद अभीतक पढ़ी ही नहीं जा सकी। . बलुए पत्थरकी चट्टान पर यह लेख खुदा हुआ है। आजकल धरातलसे यह लेख .यद्यपि सबसे पहले डा. भगवानबहुत ऊँचाई पर है । परन्तु किसी समय- लाल इन्द्रजीने, सन् १८६६ में इस लेखकी में वह ज़रूर ऐसे स्थान पर स्थित होगा, एक प्रतिलिपि तैयार की थी, परन्तु जहाँ मनुष्य सहजहीमें पृथ्वीपर खड़े इसका पता १८२५ में ही पुरातत्त्ववेत्ताओंहोकर उसे पढ़ सकते होंगे। कालान्तरमें को लग चुका था। और तबसे अबतक भूमिके नीचेकी ओर धंस जाने के कारण इसके विषयमें बराबर विद्वानों द्वारा लेखकी ऊँचाई निःसन्देह अधिक हो गई अनुसन्धान और विवाद जारी रहा। है। आजकल तो वह इस ऊँचाईकी वजह- डा. फ्लीटने डा० भगवानलालके किये से बड़ी कठिनताके साथ पढ़ने में आता है। हुए उक्त लेखके अर्थकी आलोचना की इस लेखकी भाषा अपभ्रंश प्राकृत और उसे कई स्थानों पर गलत बताया। है। परन्तु यत्र-तत्र अर्ध-मागधी और अन्तमें, पाटलिपुत्रके सुप्रसिद्ध विद्वान् जैन-प्राकृतके भी कुछ लक्षण पाये जाते श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवाल एम० हैं। प्राचीन पाली-भाषा और उस लेख ए. बैरिस्टर-एट-लाकी प्रार्थना पर, की भाषामें बहुत कुछ सादृश्य है। श्रीयुत आर. डी. बनर्जी महोदयने उक्त लेखकी लिपि उत्तरी-ब्राह्मी है, जिसका शिलालेखसे डा. भगवानलालकी प्रतिसमय बृहर (Buhler) साहबके मता- लिपिको मिलाया और उससे उन्हें यह नुसार ईसासे प्रायः १६० वर्ष पूर्व (160 ज्ञात हुआ कि डा. भगवानलालकी प्रतिB.C.) है। लिपि पूर्णरूपेण विश्वसनीय नहीं है। लेखमें चार चिह्न हैं। प्रथम दो चिह्न परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनहितैषी। [भाग १५ इस कार्यको भली भाँति प्रारम्भ करनेका श्रीयुत के. पी. जायसवालजी इस श्रेय डा० भगवानलालको प्राप्त है। लेखकी विशेषताओंका उल्लेख करते हुए श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवालकी लिखते हैं किप्रार्थनापर बिहार और उड़ीसाके वर्तमान लेफ्टिनेण्ट गवर्नर सर एडवर्ड गेटने "ईसवी सनसे पूर्वकी कुछ शताश्रीयुत आर. डी. बनर्जी द्वारा उक्त ब्दियोंका इतिहास जाननेके लिये यह शिला-लेखकी प्रतिलिपि तैयार कराई । " धनजा द्वारा उक्त शिलालेख अत्यन्त उपयोगी है। अशोकबनर्जी साहबने एक प्रतिलिपि अपने लिये के पश्चात् यह दूसरा शिलालेख है। भी तैयार की। बादमें जायसवाल महा. पहला लेख वेदीश्रीका नानाघाटवाला शय और बनर्जी साहबने स्वतन्त्र रूपसे लेख है। परन्तु मौर्य-कालसे पूर्व-समयका इस लेखका अर्थ निकालनेका यत्न किया। निर्णय करने और जैन-धर्मका इतिहास और अन्त में दोनों सज्जनोंने अपने अपने जाननेकी दृष्टिसे यह शिलालेख उन कार्योको मिलाया। यद्यपि बहुत बातोंमें सम्पूर्ण शिलालेखोंसे सबसे अधिक महत्वउक्त दोनों महाशय सहमत हो गये, फिर __ का है जो अबतक देशमें पाये गये हैं। भी कई बातोंमें उनमें परस्पर मत-भेद इस लेखसे यह भी प्रमाणित होता है कि बना ही रहा, और महाशय जायसवाल जैन-धर्मका प्रचार उड़ीसामें भी हुआ और सम्भवतः वीर सम्बत् १०० के भीतर ने दिसम्बर १६१७ के "Journal of Bihar&Orissa Research Society". वह वहाँ राज-धर्म बन गया था। इससे में अपने विचार प्रकाशित किये। बिहार और उड़ीसाके एक ही देशमें केवल प्रतिलिपिसे सन्तोष न करके परिगणित होनेका ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है। इस देशके सामाजिक-इतिजायसवालजीने कुछ कालके अनन्तर हासकी एक अत्यन्त आवश्यक बातका पुनः श्रीमान् सर एडवर्ड गेट साहबसे । उक्त शिला-लेखको स्वयं अध्ययन करनेके भी पता इस लेखसे चलता है । वह यह है कि ईसासे लगभग १७२ वर्ष पूर्व लिए सरकारी सहायताकी प्रार्थना की। प्राचीन उड़ीसाकी जनसंख्या ३५ लाख श्रीमान् लाट साहबने आपकी प्रार्थना थी। इससे कौटिल्यके अर्थशास्त्र और स्वीकार की और मि० हरनन्दन पाण्डेय, मेगास्थनीज़के ग्रन्थमें वर्णित इस बातकी असिस्टेंट सुपरिंटेंडेण्ट पुरातत्त्व विभाग, केवल पुष्टि ही नहीं होती कि हमारे पूर्वज पूर्वीय मण्डलको, इस कार्यके लिए उस मनुष्यगणना करते थे, बल्कि इससे स्थानपर आवश्यक सहायता देनेकी प्राचीन कालमें उत्तर-भारतकी समस्त हिदायत की। जनसंख्याका भी पता चल सकता है। कोई ७ दिनके कठिन परिश्रमके अन इस शिलालेखसे पुराणों में वर्णित, अंध्रन्तर महाशय जायसवालजीने मिस्टर वंशीय तृतीय नृपति, सातकर्णि प्रथमके पाण्डेयजीकी सहायतासे उक्त शिला भो इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। और लेखको फिरसे पढ़ा; जिसका नतीजा सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसी यह हुआ कि अब बहुत कम स्थानोंपर यह शिलालेखमें सबसे पहले मुरीय-नृपति लेख भस्पष्ट रह गया है, और पहलेसे बहुत सी बातें अब इसके द्वारा अधिक (चन्द्रगुप्त) के सम्वत्का उल्लेख है।' बात हुई हैं। इस शिलालेख परसे सम्राट् खार For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को महाराज' अङ्क ३-४] हाथीगुफाका शिलालेख। वेलका. जो जीवनवृत्तान्त* या इतिहास लिया था। यह कलिंगका द्वितीय राजमालूम होता है वह इस प्रकार है:- वंश होगा।मौर्य-शासनके अन्तिम समयमें नाम और उपाधि । चेतवंशी राजाओंके अधीन कलिंग फिर स्वतन्त्र हो गया होगा। इस प्रकार इसी सम्राटका नाम 'खारवेल' (सं० क्षार- तृतीय कलिंग-राजवंशमें खारवेल हुए, ऐसा मालूम होता है। लिखा है और साथ ही आपकी दो उपाधियोंका भी उल्लेख किया है। एक 'ऐर' केतुभद्र। (ऐल) और दूसरी 'महामेघवाहन'। ऐर शिलालेखकी ११वीं पंक्तिमें 'केतुभद्र' उपाधिको जायसवाल महाशय 'आर्य' का उल्लेख है, जो १३०० वर्ष पूर्व विद्यशब्दसे सम्बद्ध बतलाते हैं। मान् था । वह इसी वंशका राजा था। इस प्रकार ईसाके (१३०० +१६०) १४६० वंश। वर्ष पूर्व केतुभद्र रहा होगा । हिन्दू शिलालेखकी प्रथम पंक्तिसे यह शात पुराणोंके अनुसार महाभारत युद्ध ईसा. होता है कि महाराज खारवेल 'चेतराज' के १४२४ वर्ष पूर्व हुआ है। महाभारतके के वंशमें उत्पन्न हुए थे। और अन्तिम भीष्मपर्वमें कलिंग-सेनाके सेनानी केतुपंक्तिमें उन्हें राजर्षि वंश और कुलमें भद्र' का वर्णन है; जी भीमके साथ उत्पन्न हुआ प्रकट किया है। इससे यह युद्ध में वीरगतिको प्राप्त हुआ था। सम्भव पता चलता है कि खारवेलका वंश भाय्या- है, इसी केतुभद्रके उपलक्ष्यमें खारवेलने, वर्तके किसी प्राचीन राजवंशकी शाखा पंक्ति ११ में उल्लिखित, उत्सव किया हो। होगा। सम्भव है 'ऐर' शब्दका प्राचीन ___ यौवराज्य और राज्याभिषेक। भारतवर्षके प्रसिद्ध राजवंश 'ऐल' से सम्बन्ध हो, ऐसा श्रीयुत जायसवालजी- पन्द्रह वर्ष कुमार-क्रीड़ामें विताका मत है। कर तथा अनेक विद्याओंमें नैपुण्य प्राप्त शिलालेखकी तीसरी पंक्तिमें खार- करके श्रीखारवेल १६वे वर्ष में युवराज वेलका तृतीय कलिंग-राजवंशमें होना पदपर विराजमान हुए और उन्होंने नौ बतलाया गया है। हिन्दू पुराणों के अनु. वर्षतक युवराजके तौर पर शासन किया। सार महाभारत-युद्धके समयसे १३०० ऐसा लेखकी दूसरी पंक्तिसे मालूम होता वर्ष उपरान्ततक कलिंग-वंश चला आया है। साथ ही, यह भी जान पड़ता है कि था, और महापद्मके कुछ पूर्व उसका अन्त सिंहासन कुछ पहले हीसे ख़ाली था और हो गया था। नन्दवर्द्धनने कलिंगको २४ वर्षकी अवस्था पूर्ण होनेपर राज्याजीत लिया था । मौर्य-राजाओके पूर्व भिषेकका समय नियत हो चुका था । कलिंग फिर स्वतन्त्र हो गया था और शायद उस समय २४-२५ वर्षसे पहले अशोकने उसे पुनः अपने अधीन कर राज्याभिषेक होनेकी प्रथा न रही हो,और शायद यही वजह हो कि अशोक भी • इस जीवन-वृत्तान्तके लिखने में हमें सबसे अधिक राज्याधिकारी होनेके ३, ४ वर्ष बाद सहायता श्रीयुत के० पी० जायसवालके तद्विषयक निबन्ध- अभिषिक्त हुए थे। से मिली है । अतः हम इसके लिए उनके खास तौरसे खारवेल यद्यपि जैन थे, परन्तु वैदिक आभारी है। लेखक। विधानोंके अनुसार उनका महाराज्या For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी । भिषेक हुआ था। इससे यह प्रकट होता है कि जैनमतके कारण प्राचीन प्रथाओं में बाधा नहीं पड़ने पाती थी । इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है । वह यह कि, शिलालेखकी तीसरी पंक्ति लिखा है कि "एक पुरुषयुगके लिए महाराज्याभिषेक पाया ।" प्राचीन कालमें तीन प्रकारके अभिषेक होते थे। पुरुषयुगके लिए - अर्थात् निर्वा चित राजाके जीवन कालके लिए -द्विपुरुष युगके लिए और परम्पराके लिए । राजमहिषी । सातवीं पंक्तिसे खारवेलकी राज'महिषीका नाम 'धिसि' या 'धृष्टि' मिलता है जो वज्रकुलकी थी । कलिंगकी जनता । पहले लोगोंका यह मत था कि प्राचीन भारतमें मनुष्यगणनाकी प्रथा नहीं थी । परन्तु अब कौटिल्य के अर्थ शास्त्र और मेगास्थनीज़के लेखोंसे यह बात भली भाँति सिद्ध हो गई है कि मौर्य - कालमें राजनैतिक और आर्थिक प्रयो- जनसे मनुष्यगणना की जाती थी। इस शिलालेख से भी उक्त बातका समर्थन होता है। इसकी चौथी पंक्तिके अनुसार कलिंग राज्यकी जनसंख्या उस समय ३५ लाख थी । उड़ीसाकी वर्तमान जनसंख्या ५० लाख है । खारवेलकी राजधानी । शिलालेख में कई स्थानोंपर कलिंगकी राजधानीका वर्णन है । उसके लिए कहीं "कलिंग नगरी” और कहीं “नगरी " शब्दका प्रयोग किया गया है, परन्तु स्पष्ट नाम कहीं उपलब्ध नहीं होता । ऐसा जान पड़ता है कि शिलालेखके समीप ही कहीं वह स्थित होगी। प्राची [भाग १५ नदीके तटपर खारवेलने एक भवन बनवाया था। हाथीगुफा और धौलीसे कुछ दूरपर वर्तमान भुवनेश्वर के समीप, इस नामकी एक छोटीसी नदी है। धौलीके समीप सम्राट् अशोकका तोशलीवाला शिलालेख है । अशोकके अधीन कलिंगकी राजधानी तोशली थी । और खारवेलके शिलालेखसे यह प्रकट है कि उसने प्राचीन राजधानीका परिवर्तन नहीं किया। इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि वर्तमान धौली ही खारवेलकी राजधानी थी, और उस समय उसका नाम 'तोशली' था । खारवेल दिग्विजय । सातकर्णि-अपने राज्यके दूसरे वर्ष हीसे सम्राट् खारवेलने भारत-दिग्विजय करना प्रारम्भ कर दिया था। शिलालेखकी चौथी पंक्तिसे मालूम होता है कि सम्राट्ने सातकर्णिकी कुछ भी चिन्ता न करके पश्चिम देशको एक सेना भेजी । ईसाके २१० या २१३ वर्ष पूर्व प्रतिष्ठान ( वर्तमान पैठन) में ब्राह्मण-वंशीय राजाओंका राज्य स्थापित हुआ था। उसी वंशके तीसरे नृपति सातकर्णि प्रथमसे सम्राट् खारवेलकी मुठभेड़ हुई होगी । मूषिक | तदनन्तर सम्राट्ने मूषिक नगरपर आक्रमण किया । महाभारत (भीष्मपर्व अध्याय 2 ) में मूषिकोंका वनवासियोंके साथ वर्णन है । नाट्यशास्त्र के अनुसार कलिंग के निवासियोंके तीन भेद थेतोशल ( तोशलीके निवासी ), कोशल (दक्षिण- कोशलके निवासी) और मोशल ( मूषिक के निवासी ) । विष्णुपुराण में मूषिक और स्त्रीराज्यको एक ही राज्यमें सम्मिलित किया गया है । कामसूत्रके For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ ] अनुसार स्त्रीराज्य पश्चिममें विन्ध्याचल के समीप एक देश था । इन सब प्रमाणपर विचार करनेसे यह ज्ञात होता है कि मूषिक देश पैठान और गोंडवाना के मध्यमें, २० और २२° अक्षांशोंके अन्तर्गत होगा । उसके बाद कोशल देश था । हाथीगुफाका शिलालेख । राष्ट्रिक और भोजक । सातकर्णि और मूषिकोंपर विजय प्राप्त करके खारवेल पश्चिम में अपनी सेना ले गया । राष्ट्रिकों और भोजकोने सम्राट् - के चरणोंकी वन्दना की - श्रर्थात् उसको स्वामी स्वीकार किया । राष्ट्रिक और भोजक वर्तमान महाराष्ट्र और बरार प्रान्तों में रहते थे । अशोक के शिलालेखोंमें भी उनका उल्लेख है । ऐतरेय ब्राह्मणके अनुसार भोजकोंमें कोई राजा नहीं होता था। खारवेलने अपने राज्यके चौथे वर्ष में, उनके नेताओंके छत्रादिकों को नष्ट कर दिया और उसे इनसे बहुतसी सम्पत्तिकी प्राप्ति हुई । 1 मगधपर आक्रमण । आठवें वर्ष खारवेलने बड़ी दीवारवाले गोरथगिरिपर श्राक्रमण किया और राजगृहको घेर लिया । वहाँका राजा मथुराको चला गया । सम्भव है, उसने कुछ कारणोंसे मथुराको अपना सैनिक केन्द्र बनाना उचित समझा हो । पंक्ति ८ का शेष भाग अभीतक पढ़ा नहीं जा सका। इसलिए राजगृहके इस श्राक्रमणका परिणाम ज्ञात नहीं होता । सम्भव है, राजगृहके राजाके मथुरा चले जानेके कारण खारवेलको उससे युद्ध करनेका अनुकूल अवसर प्राप्त न होनेसे उसने अपनी सेना वहाँसे हटा ली हो, और शायद समुचित सेना प्रस्तुत करनेके हेतु वह फिर अपनी राजधानीको लौट या हो। कुछ भी हो, हवें वर्ष में कोई युद्धचर्चा नहीं सुन पड़ती। दसवें वर्ष में सम्राट्ने देश जीतनेकी इच्छासे उत्तरभारतको प्रस्थान किया । परन्तु ग्यारहवें वर्ष में फिर किसी युद्धका उल्लेख नहीं है । बारहवें वर्ष में उसने उत्तरापथके राजाओं में त्रास उत्पन्न किया । और उसके बाद उसी वर्ष वह मगधके निवासियों में भय उत्पन्न करता हुआ, अपनी सेनाको गङ्गा पार ले गया । मगधके राजा 'वृहस्पतिमित्र' पर, जिसको पुष्यमित्र भी कहते हैं, विजय प्राप्त करके खारवेलने 'कलिंग जिन' की मूर्त्तिको उससे छीन लिया और उसे अपने देशमें ले आया । इस मूर्त्तिको नन्दराज कलिंगसे ले गया था । मगधका यह आक्रमण खास तौर से उल्लेखनीय है । उत्तरापथ (सीमान्त प्रदेश ) में विजय प्राप्त करनेके अनन्तर उसने मगध राज्य में प्रवेश किया। इससे यह पता चलता है कि मगध राज्यका विस्तार उस समय सीमान्त प्रदेशोंतक था । पातञ्जलिके अनुसार शक और यवन श्राय्र्यावर्तसे बाहर निकाल दिये गये थे । पुष्यमित्र के अधीन शुंग राज्यकी सीमा पञ्जाब से लेकर कमसे कम अंग (आसाम) तक रही होगी, क्योंकि शिलालेखमें श्रंगकी अमूल्य वस्तुओंके लाने की भी बात है । खारवेलने उत्तर-पश्चिमकी श्रोरसे गङ्गा पार करके राजगृहपर आक्रमण किया होगा, और ऐसा करनेमें उसे दो सुविधाएँ थीं । एक तो सोमकी और पाटलिपुत्र बहुत सुरक्षित है; दूसरे उस और दलदल भी पड़ते हैं, जिनमें हाथियोंका ले जाना कठिन हो जाता । मगधके इस श्राक्रमणमै दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह कि, एक ही वर्ष के भीतर खारवेलने कलिंग नगरीसे प्रस्थान करके सीमान्त प्रदेशोंको For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ قف जैनहितैषी । जीता तथा वहाँसे अपनी सेना मगध देशमें लाकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया और शुंगराज पुष्यमित्रको पराजित किया, और फिर अपनी नगरीको लौटकर सुन्दर शिखर निर्माण कराये । ऐसे शीघ्रगामी विजयी सेनापतिकी 'तुलना नेपोलियन बोनापार्टसे की जा सकती है। दूसरी बात यह है कि पुष्य मित्र उस समय उत्तर-भारतका सम्राट् था और उसका विशाल साम्राज्य था । ऐसे प्रसिद्ध सम्राट्को पराजित करनेवाले विजेताकी महिमा कितनी अधिक होगी । इस युद्धका परिणाम यह हुआ कि मगधसे कलिंग की महत्ता बढ़ गई । पाण्ड्यराज | इसी बारहवें वर्ष में सुदूर दक्षिण के पाण्ड्यराजने भी हाथी, घोड़े, मणि, मोती आदि की भेंट खारवेलकी सेवामें भेजी । इस प्रकार सम्राट् खारवेल के अधीन या उसकी प्रभुताको स्वीकार करनेवाले साम्राज्यकी सीमा पञ्जाबसे लेकर श्रासामतक और विन्ध्याचलसे लेकर सुदूर पाण्ड्य देशतक थी । खारवेलका शासन । १६ वर्ष हीकी अवस्था में राज्य-पद प्राप्त करके उसने शास्त्रानुसार अपनी प्रजाको प्रसन्न रक्खा । शिलालेख में उसके किसी प्रकारके अन्यायका वर्णन नहीं पाया जाता। उसके समयमें कलिंगका प्रताप समस्त भारतवर्ष में व्याप्त हो गया था । खारवेलने राजधानीको सुन्दर भवसे सुशोभित किया, विशाल राजप्रासाद - बनवाये, प्राचीन मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया, प्राचीन नन्दराजकी बनवाई नहरको कलिंग नगरी तक पहुँचाया, और फव्वारों तथा तालाबका पुनः संस्कार [ भाग १५ कराया, बाग लगवाये और नगरकी चहारदीवारीकी मरम्मत कराई । · खारवेल ने राजसूय यज्ञ करके समस्त करोंको क्षमा कर दिया, और पौर तथा जानपद नाम्नी संस्थाओंको अनेक श्रधिकार दिये । राजधानीकी संस्थाको 'पौर' और ग्रामोंकी संस्थाको 'जानपद' कहते थे । वर्तमान समयमें हम इन्हें म्यूनिसि पल और डिस्ट्रिक-बोर्ड के नाम से पुकार सकते हैं। शिलालेखसे यह साफ़ प्रकट है कि युद्धके साथ साथ कलिंग निवासियोंने शान्तिके सुखका भी पूर्ण भोग किया। संगीत और वाद्यके द्वारा सार्वजनिक मनोरञ्जनका भी प्रबन्ध था । इसके अतिरिक्त युद्धों में प्राप्त धनसे कलिंग-राज्य सम्पत्तिशाली भी खूब रहा होगा । इस प्रकार खारवेल के साम्राज्यमें सुख, सम्पत्ति, वैभव और ऐश्वर्यकी प्रचुर सामग्री उपस्थित थी । सामाजिक दशा । इस शिलालेखमें उस समयके भारतवर्षकी सामाजिक दशाका सजीव चित्र विद्यमान है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि उस समय कलिंगकी गणना भारतवर्षमें नहीं की जाती थी। लगभग दो शताब्दियोंके अनन्तर भारतवर्षकी सीमा समस्त उत्तर और दक्षिण देशोंतक मानी जाने लगी । जैन धर्म | खारवेल जैनधर्मावलम्बी था, परन्तु वैदिक विधानानुसार उसका महाराज्याभिषेक हुआ और उसने राजसूय यश भी किया । ब्रह्मणों की जातीय संस्थाओंको उसने भूमि प्रदान की । इससे यह भली भाँति स्पष्ट है कि जैनधर्मानुयायी होते हुए प्राचीन राष्ट्रीय नियमोंका पालन For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ ] पुरानी बातोंकी खोज। .. 8 • करनेके लिये उसे पूर्ण स्वतन्त्रता थी। परानी बातोंकी खोज।.. बौद्ध धर्मके अनुसार यह कदापि नहीं हो सकता था। पंक्ति नं०१७ में बतलाया [गतांकसे आगे] गया है कि खारवेल सभी मतोका मान ४-नेमिनिर्वाणके अन्तिम पद्य । करता है । यह उल्लेख इस महान सम्राटकी धार्मिक सहिष्णुताका अच्छा द्योतक जैनसिद्धान्तभवन, श्राराम, संवत् है। सुख, सम्पत्ति और ऐश्वर्य के साथ १७२७ पौष कृष्ण अष्टमी शुक्रवार की लिखी साथ खारवेलके राज्यमें धार्मिक स्वतं- हुई, 'नेमिनिर्वाण' काव्यकी एक प्रति है, न्त्रता भी होनेके कारण, प्रजाको उस जिसके अन्तमें निम्नलिखित दो पद्य पाये समय सोनेमें सुगन्धि मिलती थी। जाते हैं: जब वह समस्त जैनेतर धर्मों की प्रतिष्ठा भिल्लो विन्ध्यनगे वणिग्वर करता था, तब जैन धर्मकी उन्नति करना गुणश्चेभ्यादिकेतुः सुरः। • तो उसका परम धर्म ही था। शिलालेख के चिन्तायाति खगे महेन्द्र अनुसार उसने पाप और क्षेमकी क्रियाओं- . सुमना भूपोपरादिर्जितः ॥ .. में प्रवृत्त पापज्ञापकों को भी राज्यकी ओर सोऽव्यादच्युतनायको से सहायता प्रदान की थी, और सुयोग्य भ्रमणों के निमित्त एकसंघायन भी निर्माण नरपतिः स्वादि प्रतिष्ठोऽप्यह. . कराया था। . मिन्द्रो यश्चजयन्तके सुरमगध पर आक्रमण करके वह वहाँ वरो नेमीश्वरः पातुवः ।।८६॥ से कलिंग-जिनकी मूर्तिको भी लौटा अहिच्छत्रपुरोत्पन्न लाया था जिसको नन्दराज कलिंगसे ले - प्राग्वाटकुलशालिनः। गया था। यह भी जैनधर्मकी सेवा थी। छाहडस्य सुतश्चक्रे शिलालेख खारवेलके शासनके तेरहुवे वर्ष पर समाप्त हो जाता है। उस . प्रबंधं वाग्भटः कविः ।।८७॥ समय खारवेलकी अवस्था ३७ वर्षकी ये दोनों पद्य बम्बईके निर्णयसागर थी। परन्तु स्वर्गापुरी ( या मञ्चपुरी) के प्रेस द्वारा सन् १८६६ की छपी हुई प्रतियोंशिलालेखमें यह लिखा है कि इस लेख में नहीं हैं । जान पड़ता है, जिस हस्तको वर्तमान् सम्राट् खारवेलकी पाट लिखित प्रतिपरसे उक्त प्रेसने यह प्रन्थ महिषी, (सम्भवतः धृष्टी) ने खुदवाया । छापा है, उसमें यह दोनों पद्य नहीं होंगे। है। इस लेखकी भाषा, खंडगिरिवाले और भी ऐसी अनेक प्रतियाँ हैं जिनमें ये शिलालेखकी भाषासे, ३०-४० वर्ष बाद- पद्य नहीं पाये जाते और यह सब लेखकोंकी मालूम होती है। इसलिये सम्भवतः की कृपाका फल है। वास्तवमें, ये दोनों कमसे कम ६७ वर्षकी आयुतक खारवेल पद्य नेमिनिर्वाणके अन्तिम पद्य मालूम ने अवश्य राज्य किया होगा। और इस होते हैं। इन पद्योंमेंसे पहला पद्य नेमीप्रकार ईसाके १३० वर्ष पूर्वतक अवश्य श्वरके पूर्वभवोंका स्मरण करते हुए इस महान् सम्राटका राज्यशासन रहा ग्रन्थके उपसंहार और अन्तमङ्गलका होगा। (अपूर्ण) सूचक है; और दूसरे पद्यमें ग्रन्थकर्ता कवि वाग्भटने अपना संक्षिप्त परिचय For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनहितैषी। [भाग १५ दिया है, जिससे मालूम होता है कि कवि- टीका की * प्रस्तावनामें तत्त्वार्थ सूत्रकी की जन्मभूमि 'अहिच्छत्रपुर' * थी, वे उत्पत्ति जिस प्रकारसे बतलाई है उसका 'प्राग्वाट' वंशमें उत्पन्न हुए थे और उनके संक्षिप्त सार इस प्रकार है--"सौराष्ट्र पिताका नाम 'छाहड़' था। नम्बर ७ देशके मध्य ऊर्जयन्तगिरिके निकट गिरिवाला दूसरा पद्य पं० दौर्बलि जिनदास नगर (जूनागढ़ ?) नामके पत्तनमें आसन्नशास्त्रीके भण्डारकी एक प्रतिमें भी पाया भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न, श्वेता. जाता है, परन्तु उसका पाठ, जैसा कि म्बर-भक्त ऐसा 'सिद्धय्य' नामका एक वह एक बार जैनहितैषीमें प्रकाशित विद्वान् श्वेताम्बरमतके अनुकूल सकल हुआ था, + कुछ स्पष्ट और अशुद्ध जान शास्त्रका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनपड़ता है। उसमें 'प्राग्वाटकुल' के स्थानमें ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' यह एक सूत्र '."भटकुल' ऐसा कुछ अस्पष्ट और बनाया और उसे एक पाटिये पर लिख अपूर्ण पाठ है। साथ ही 'छाहडस्य' के छोड़ा। एक समय चर्यार्थ श्रीगृध्रपिञ्छास्थानमें 'छादस्य' ग़लत लिखा है और चार्य 'उमास्वाति' नामके धारक मुनिवर उससे तीसरे चरण में एक अक्षर भी कम वहाँ पर आये और उन्होंने आहार लेनेके हो गया है । इसी पाठके आधार पर पश्चात् उस पाटियेको देखकर उसमें उक्त श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने उस समय सूत्रके पहले 'सम्यक्' शब्द जोड़ दिया। प्रन्थकर्ताको 'छाद' का पुत्र प्रकट किया जब वह (सिद्धय्य नामका) विद्वान् बाहरसे था, जो कि अब, शुद्ध पाठके सामने आने- अपने घर आया और उसने पाटिये पर पर साफ़ तौरसे 'छाहड' का पुत्र मालूम 'सम्यक्' शब्द लगा देखा तो उसने प्रसन्न होता है। इस ग्रन्थकर्ताका विशेष इति- होकर अपनी मातासे पूछा कि, किस हास मालूम होनेकी ज़रूरत है। साथ ही, महानुभावने यह शब्द लिखा है। माताने कुछ प्रबल प्रमाणों द्वारा यह भी निश्चित उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्ग्रन्थाहोनेकी ज़रूरत है कि 'वाग्भटालङ्कारः चायने यह बनाया है। इस पर वह गिरि और इस ग्रन्थके कर्ता दोनों एक ही और अरण्यको ढूँढ़ता हुआ उनके आश्रमव्यक्ति थे या भिन्न भिन्न और किस सम्प्र. में पहुँचा और वहाँ भक्तिभावसे नम्रीभूत दायसे सम्बन्ध रखते थे। अभीतक इस होकर उक्त मुनि महाराजसे पूछने लगा विषयमें, काव्यमालाके सम्पादक आदि कि, आत्माका हित क्या है (यह प्रश्न द्वारा जो कुछ लिखा गया है वह पर्याप्त और इसके बादका उत्तर प्रत्युत्तर प्रायः नहीं है। सब वही है जो 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्ता५-तत्त्वार्थ सत्रकी उत्पत्ति। वनामें श्रीपूज्यपादाचार्यने दिया है।) मुनिराजने कहा 'मोक्ष' है। इस पर मोक्षउमाखातिके तत्त्वार्थ सूत्र पर 'तत्त्व तत्त्व का स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय रत्नप्रदीपिका' नामकी एक कनडी टीका पूछा गया, जिसके उत्तररूपमें ही इस बालचन्द्र मुनिकी बनाई हुई है, जिसे ग्रन्थका अवतार हुआ है। 'तत्त्वार्थतात्पर्यवृत्ति' भी कहते हैं। इस इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वान्के देखो जैनहितैषी भाग ११ अंक ७-८। प्रश्नपर एक दिगम्बर आचार्य द्वारा इस +आधुनिक रामनगर जो बरेलीसे प्रायः २० मोलके यह टीका बाराक जैन सिद्धान्तभवन में देवनागरी फासलेपर है। अक्षरों में मौजूद है। For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४] पुरानी बातोंकी खोज। तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति हुई है, ऐसा उक्त . संभव है कि इस मूलको* लेकर ही कथानकसे पाया जाता है। हम नहीं कह किसी दन्तकथाके आधारपर उक्त कथासकते कि उत्पत्तिकी यह कथा कहाँतक की रचना की गई हो; क्योंकि यहाँ प्रश्नठीक है। पर इतना ज़रूर है कि यह कथा कर्ता और प्राचार्य महोदयके जो विशेषया सात सौ वर्षसे भी अधिक पुरानी है; दिये गये हैं प्रायः वे सब कनड़ी टीकामें क्योंकि उक्त टीकाके कर्ता बालचंद्रमुनि भी पाये जाते हैं। साथ ही, प्रश्नोत्तरका विक्रमकी १३वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हो ढंग भी दोनोंका एक ही सा है। और गये हैं। उनके गुरु 'नयकीर्ति' का देहान्त यह भी संभव है कि जो बात सर्वार्थशक सं० १०६8 (वि० सं० १२३४) में सिद्धि में संकेत रूपसे दी गई है वह बालहुआ था। चन्द्र मुनिको गुरु परम्परासे कुछ - मालूम नहीं कि इस कनड़ी टीकासे विस्तारके साथ मालूम हो और उन्होंने पहलेके और किस ग्रंथमें यह कथा पाई उसे लिपिबद्ध कर दिया हो; अथवा जाती है। तत्वार्थसूत्रकी जिनती टीकाएँ किसी दूसरे ही ग्रन्थसे उन्हें यह सब इस समय उपलब्ध हैं उनमें सबसे पुरानी विशेष हाल मालूम हुआ हो । कुछ हो, टीका 'सर्वार्थसिद्धि' है । परन्तु उसमें बात नई है जो अभीतक हमारे तथा यह कथा नहीं है। उसकी प्रस्तावनासे बहुतोंके जानने में नहीं आई थी और सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि किसी इससे तत्वार्थसूत्रका संबन्ध दिगम्बर विद्वान्के प्रश्नपर इस मूल ग्रन्थ (तत्वार्थ- और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके सूत्र) का अवतार हुश्रा है। वह विद्वान् साथ स्थापित होता है। साथ ही, यह कौन था, किस सम्प्रदायका था, कहाँका भी मालूम होता है कि उस समय दोनों रहनेवाला था और उसे किस प्रकारसे सम्प्रदायोंमें आजकल जैसी खींचातानी प्रन्थकर्ता प्राचार्य महोदयका परिचय नहीं थी और न एक दूसरेको घृणाकी तथा समागम प्राप्त हुआ था, इन सब दृष्टिसे देखता था। (क्रमशः) बातोंके विषयमें उक्त टीका मौन है। यथा कश्चिद्भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् • 'स्वहितमुपलिप्सुर्विविक्ते परमरम्ये भव्यसत्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषण्मध्ये सन्निषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परि. पृच्छतिस्म, भगवन् किं खलु आत्मनोहितं * श्रुतसागरी टीकामें भी इसी मूलका प्रायः अतुस्यादिति । स आह मोक्ष इति । स एव सरण किया गया है और इसे सामने रखकर ही अन्यकी पुनः प्रत्याह किं स्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य उत्थानिका लिखी गई है। साथ ही, इतना विशेष है कि प्राप्त्युपाय इति । आचार्य आह......" उसमें प्रश्नकर्ता विद्वान्का नाम 'द्वैयाक' अधिक दिया है। कनड़ी टीकावाली और बातें कुछ नहीं दी। यह टीका ..देखो श्रवण वेल्कोलस्थ शिलालेख नं० ४२। कनड़ी टीकासे कई सौ वर्ष बादकी बनी हुई है। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. जैनहितैषी। [भाग १५ • विशेष अनुसन्धान । टककविचरित्रके कर्त्ताने इन्हें 'समुदायकर माघनन्दि लिखा है और इनका समय ई० सन् १९२६० दिया है । इससे यह ग्रन्थ 'दुष्प्राप्य और अलभ्य जैन ग्रन्थ' नाम- विक्रमकी १३ वीं या १४ वीं शताब्दीका के शीर्षकके नीचे हमने अबतक जितने बना हुआ मालूम होता है। इन्हीं माघग्रन्थोंका परिचय दिया है उनमेंसे जो नन्दि की बनाई हुई 'शास्त्रसार समुश्चय' प्रन्थ पाराके जैनसिद्धान्तभवनकी सूचीसे 'नामक ग्रन्थकी एक कर्णाटकी टीका भी . सम्बन्ध रखते हैं उनके विषयमें अनु- है जो छप चुकी है। सन्धान करनेपर जो कुछ विशेष हाल प्रमाणलक्षण । मालूम हुआ है वह पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे प्रकट किया जाता है: __ इस नामका जो ग्रन्थ भवनकी सूची में नं. ५२२ पर दिया है वह अत्यन्त जीर्ण-... अमृताशीति। शीर्ण अवस्थामें है। उसके पत्रोंकी संख्या ... यह प्रन्थ संस्कृत है, प्रायः उपदेशी ५५ नहीं बल्कि ८० से भी अधिक है। है, ध्यानका भी इसमें कुछ कथन है, । कुछ कथन है, परन्तु शुरूके और अन्तके कुछ पत्र नहीं योगीन्द्रदेव प्राचार्यका' बनाया हुआ है हैं जिनसे मंगलाचरण और प्रशस्तिका और जैनसिद्धान्तभवनमें मौजूद है। सूचीमें पता चलता कितने ही पत्र टूट रहे हैं 'अमृतीशिनी ऐसा नाम गलत छपा है । और जगह जगहसे कुछ खण्डित भी हो. . इसकी पद्य-संख्या ८२ है। कनडीसे देव- रहे हैं। ग्रन्थको पूरा देखनेका अभीतक नागरी अक्षरों में अब इसकी कापी भी हो अवसर नहीं मिला, इससे न तो यह अवसर नहीं मिल गई है और माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें मालूम हो सका कि ग्रन्थ कौनसे प्राचार्य: इसके छपाये जानेका विचार है। इसमें का बनाया हुआ है और न ग्रन्थके नामकई पद्य दूसरे प्राचार्योंके ग्रन्थोसे संग्रह का ही ग्रन्थपरसे कुछ स्पष्टीकरण हो किये गये हैं और कई प्राचार्योके नाम सका। हाँ, इतना ज़रूर मालूम हुआ है भी उन पधोंके साथ दिये हैं; जैसे जटा - कि यह उच्च कोटिका कोई न्यायग्रन्थ है। सिंहनन्द्याचार्य, अकलंकदेव और विद्या इस नामका ग्रन्थ अकलंकदेवका बनाया नन्द स्वामी। हुश्रा मैसूरकी सरकारी लाइब्रेरीमें मौजूद माघनन्दिश्रावकाचार। है जिसकी कापी कराकर भिजवानेके __ भवनकी सूची में इसे भाषाका ग्रन्थ लिए हमने मैसूरके भाइयोंसे प्रार्थना की लिखा है परन्तु यह प्राकृत न होकर थी। परन्तु खेद है कि अभीतक उसपर संस्कृतमिश्रित कनडी भाषाका ग्रन्थ है। कुछ भी ध्यान नहीं दिया गया ! हम अब इसके मंगलाचरणमें भी 'वक्ष्येकर्णाट. इसके लिए श्रीमान् सेठ वर्धमानप्पाजीसे भाषया' ये शब्द साफ़ दिये हैं। श्रीकुन्द- प्रार्थना करते हैं कि वह लाइब्रेरीसे उक्त कुन्दाचार्यसे पहले होनेवाले माघनन्दी ग्रन्थकी कापी कराकर उसे माणिकचन्द्र प्राचार्यका बनाया हुआ यह ग्रन्थ नहीं है, ग्रन्थमालाके मन्त्री साहबके पास बम्बई बल्कि इसके कर्ता दूसरे ही माघनन्दी हैं या हमारे पास शीघ्र भिजवा देवें, जिससे जो कुमुदेन्दु (कुमुदचन्द्र) भट्टारकके उसका उद्धार और प्रचार हो सके। शिष्य और उदयेन्दुके प्रशिभ्य थे। कर्णा- कापीकी उजरत दी जायगी। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष अनुसन्धान । जिनेन्द्र देवाचार्यका, इस विषयमें सिर्फ ... सिद्धान्तसार । इतना बतला देना काफ़ी होगा कि मूल इस नामके जो तीन ग्रन्थ भवनकी ग्रन्थमें 'जिणइन्देण' ऐसा पाठ है और सूचीमें दिये हुए हैं उनमें से जिसका कर्ता उसके टिप्पणके तौर पर 'जिनेंद्रदेवाचार्यभट्टारकसकालकीर्ति लिखा है वह 'सिद्धा. निन्दगताः' ऐसा अर्थ सूचित किया है। न्तसार' नहीं, किन्तु उसका नाम कनड़ी टीकावाली प्रतिके मूलमें 'जिन'सिद्धान्तसारदीपक' ही है, जैसा कि चन्द्रेण' पाठ दिया है, परन्तु अर्थमें वही हमने पहले सूचित किया था। दूसरा 'जिनेंद्रदेवाचार्य' नाम सूचित किया है। प्रन्थ जो जिनेन्द्रदेवाचार्यके नामसे पहले और संस्कृत टीकामें मूल पाठ वही प्रन्थके नीचे दिया है, वह वही प्राकृत 'जिणइन्देण' रक्खा है और उसका अर्थ जिसका मंगलाचरण हमने सेठ 'जिनचन्द्रनाना सिद्धान्तग्रन्थवेदिना' माणिकचन्द्र के 'प्रशस्तिसंग्रह' रजिस्टरके दिया है। इन सब उल्लेखों पर विचार अधार पर उद्धृत किया था। परन्तु इसकी करते हुए, हमारी रायमें, ग्रन्थकर्ताका गाथा-संख्या ७७ के स्थानमें ८० है। तीसरा नाम ज्यादातर 'जिनचन्द्र' ही प्रतीत प्रन्थ भी यही प्राकृत ग्रन्थ है जो कनडी होता है । अस्तु; भवनके ये सब ग्रन्थ उस अक्षरोंमें लिखा हुआ है। हाँ, इसके साथ सिद्धान्तसार नामके तर्क ग्रन्थसे भिन्न प्रभाचन्द्रकी बनाई हुई कनडी टीका हैं जिसका उल्लेख श्रीजयशेखर सुरिने अधिक लगी हुई है। सूचीमें इसकी अपने 'षड्दर्शन समुच्चय' नामके ग्रन्थमें भाषा संस्कृत गलत दी है और पत्र- किया है और जिसकी खोजके लिए ही संख्या भी ४० के स्थानमें १४३ ग़लत दर्ज वह नोट लिखा गया था। इस तर्क ग्रन्थ की है। इस ग्रन्थकी एक संस्कृत टीका का पता लगाते हुए हमें मूडबिद्रीके . भी हालमें भवनको उपलब्ध हुई है पंडुवस्ति भंडारकी सूची परसे यह मालूम जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित है कि वहाँ 'सिद्धान्तसार प्रमाण, " होने योग्य है । यह टीका किसकी बनाई नामका एक संस्कृत ग्रन्थ है, जिसकी हुई है, इसका यद्यपि अभीतक ठीक श्लोक-संख्या ७०० (सात सौ) है और जो निश्चय नहीं हुआ, तो भी टीकाकारके 'भावसेन' मुनिका बनाया हुआ है। निम्नलिखित मंगलाचरणपरसे ऐसा ग्रन्थके नामके साथ 'प्रमाण' शब्द लगा ख़याल उत्पन्न होता है कि शायद यह होनेसे साफ जाहिर है कि यह तर्क ग्रन्थ टीका शानभूषण भट्टारककी बनाई हुई है है और 'भावसेन' मुनि भी बहुत बड़े जो कि विक्रमकी १६ वीं शताब्दीमें हो तार्किक विद्वान् हुए हैं, इसलिये बहुत करके गये हैं : यह दिगम्बरोंका वही तर्क-ग्रन्थ जान पड़ता श्रीसर्वशं प्रणम्यादौ है जिसे जयशेखर सूरिने जयलक्ष्मीको लक्ष्मीवीरेन्द्रसेवितं । दिलानेवाला परमकर्कश तर्कग्रन्थ प्रति पादन किया है। अतःमाणिकचन्द्र ग्रन्थभाध्यं सिद्धान्तसारस्य माला और भवनके मंत्री साहवानको वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम् ॥ १॥ यह ग्रन्थ उक्त भण्डारसे नकल कराकर प्राकृतका यह सिद्धान्तसार ग्रन्थ शीघ्र मँगाना चाहिए और इसका जल्दी 'जिनचन्द्र' का बनाया हुआ है या कि उद्धार करना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ रत्रमाला। सूची में १००२ नम्बरवाले प्रन्थकी भाषा जो संस्कृत लिखी है वह ग़लत है। यह यह श्रावकाचार विषयका एक छोटा मूल प्राकृत ग्रन्थ कनड़ी टीका सहित है। सा, ६७ श्लोक परिमाण अच्छा संस्कृत इसकी पत्र-संख्या १४० है, सूचीमें वह प्रन्थ है। ग्रन्थके अन्तिम पद्यमें 'स शुद्ध- २६२ ग़लत दर्ज हुई है। इसी तरह १००१ भाषनो नूनं शिवकोटित्वमाप्नुयात्' यह नम्बरवालें ग्रन्थकी पत्रसंख्या भी सूचीमेंवाक्य उत्तरार्ध रूपसे दिया है और इसके की जगह १४ गलत दर्ज है। यह प्रति बाद "इतिश्री समन्तभद्रस्वामिशिष्यशिव- अधूरी है। तीसरा १००३ नम्बरवाला ग्रन्थ कोट्याचार्य विरचितारत्नमालासमाप्ता" अभीतक भवनमें मिला नहीं । परन्तु जहाँ यह समाप्तिसूचक वाक्य है। इससे यह तक हम समझते हैं, वह नेमिचन्द्रकी इसी ग्रन्थ स्वामिसमन्तभद्रके शिष्य शिवकोटि त्रिभंगीका, नं० १००२ के सदृश, कनड़ी , प्राचार्यका बनाया हुआ मालूम होता है। टीकावाला ग्रन्थ गोम्मटसारके कर्ता नेमिन . प्रन्थके मंगलाचरणमें वीर भगवान और चन्द्राचार्यका बनाया हुआ है और इसकी अनेकात्तमय अहद्वचनके बाद सिर्फ कितनी ही गाथाएँ गोम्मटसारमें भी ज्योंसिद्धसेन भट्टारक और स्वामिसमन्त- की त्यों पाई जाती हैं। चौथा 'त्रिभंगी' भद्रकी ही स्तुति की गई है। ये दोनों ग्रन्थ जो देवनागरी लिपिमें है और जिसे स्तुतियाँ इस प्रकार है: सूचीमें श्रीकनकनन्दीका बनाया हुआ सदाऽवदातमहिमा. लिखा है, वह वास्तवमें कई त्रिभंगियोंका . - सदा ध्यानपरायणः । एक संग्रह है, उसमें उक्त नेमिचन्द्रकी भी मिसेन मुनिर्जीयाद् त्रिभंगी हैं और कनकनन्दीकी त्रिभंगीके दो पाठ हैं जिनमेंसे एकमे ४= और दूसरे . भट्टारक पदेश्वरः ॥ ३॥ में ५२ गाथाएँ हैं । कनकनन्दीकी यह स्वामी समन्तभद्रो त्रिभंगी मंगलाचरण और प्रशस्ति सहित __ मेऽहर्निशं मानसेऽनघः । गोम्मटसारके कर्मकांडमें ज्योंको त्यों उद्तिष्ठताज्जिनराजोद्य धृत की गई है और इसे उक्त ग्रन्थका च्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ॥४॥ तीसरा अधिकार बनाया गया है। सिर्फ इस ग्रन्थकी, कनड़ी लिपिपरसे, देव- E या १२ गाथाएँ छोड़ी गई हैं और कुछ नागरी अक्षरोंमें प्रेस कापी तय्यार करा गाथाओंका क्रम भी बदला गया है । ली गई है और अब यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र प्रशस्तिकी वे गाथाएँ जो गोम्मटसारमें ग्रन्थमालामें छप जायगा। भी ज्योंकी त्यों उठाकर रक्खी गई हैं, त्रिभंगी। इस प्रकार हैं: वर इंदणंदिगुरुणो पासे ' 'त्रिभंगी' नामके जिन चार ग्रन्थोका उल्लेख भवनकी सूची परसे किया गया .. सोऊण सयलसिद्धतं । था, उनमेंसे १००१ और १००२ नम्बरके ये सिरिकणयणंदिगुरुणा दोनों ग्रन्थ एक ही ग्रन्थकर्ता नेमिचन्द्र __ सत्तट्ठाणं समुद्दिडं ॥ आचार्यके बनाये हुए हैं, दोनोंका मूल जह चक्केण य चक्की एक ही है और वह प्राकृत भाषामें है। छक्खंड साहियं अविग्घेण । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिखवर ट। तह भइचकेण मया सिद्धवर कूट । __ छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ (ले० श्रीयुत भगवन्त गणपति गोइलीय।) इससे पाठक समझ सकते हैं कि गोम्मटसार कितना अधिक संग्रह ग्रन्थ सिद्धवरकी ही असीम पुनीतता,है, जैसा कि हमने पहले भी एक बार पातकीको खींच ले आई इधर; सूचित किया है। प्रस्तु; ऐसी हालतमें मैं नहीं पाया न मेरा दोष है, . कनकनन्दीकी त्रिभंगीके नामसे जो पत्र- . हे अचल ! हे शैल ! हे सारंगधर! , संख्या (७३) और श्लोक संख्या (१४००) सूचीमें दी है, वह गलत है । कनकनन्दीकी फिर भला क्यों मौन है धारण किया ? यह त्रिभंगी भी माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला- सोचते हो क्या कि हूँ मैं पातकी ? में छप जानी चाहिये, जिससे मूल ग्रन्थ हाय तुम ही सोचने जब यो लगेअपने असली रूपमें विद्वानोंके सामने मन तो कमी कलिमें रही किस बातकी ? रहे और गोम्मटसारके अध्ययन करनेचालोको भी छूटे हुए पोका सम्बन्ध 'मौनकी कुछ दूसरी ही बात है, मिलानेसे कुछ विशेष अनुभव हो सके। गिरि ! न तुम त्यों सोचते होगे अरे; (क्रमशः) याद क्या तो पूर्व दिन हैं भा रहे- . गर्व मिश्रित सौख्य श्री आशा भरे। जब कि मुनिगण ठौर ठौर विराजके, ___या खड़े हो योग थे करते रहे। करते हैं। और फिर उपदेश दे चिरसुख भरे, .. विश्वके विकराल दुख हरते रहे। (भीयुत भगवन्त गणपति गोइलीय।) तो उन्हींके विरहमें या ध्यानमेंत्याग सदा तुष धान्य समान . महा चिरसत्य गहा करते हैं। इस तरह एकान्तमें एकाग्र होकोई सुनो न सुनो हम सन्तत . ध्यान क्या तुम कर रहे अानन्दसे ? . ही वह सत्य कहा करते हैं। धन्य गिरिवर सिद्धिवर! तुम धन्य हो। दोष नहीं, फिर भी हँसके सबकी फटकार सहा करते हैं। या कि उनकी स्वार्थपरता पर तुम्हें.. जातिहितैषितामें दिन रात __ हे निराश्रित त्यक्त गिरि ! कुछ खेद है? लगे बिन स्वार्थ रहा करते हैं। तो विचारों नित्य होता वृक्षका विहग दलसे उषामें विच्छेद है। पर विटप तो नित्य हँसता खेलता, .. और हर हर गीत गाता सर्वदा; चन्द्रिकाके साथ करता मोद है, हैन होता मन दुखमें एकदा । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) और तो फिर सोचते हो क्या भला ? पूर्व वैभव ? आज भी वह कम नहीं, इस तुम्हारी धूलिका कण एक भी - विश्वकी सम्पत्तिसे मौलिक कहीं । ( ह ) सत्य है वह पुण्यकाल न अब रहा, वृक्ष भी तुमपर न उतने हैं भले : और फिर वे फल फलाते हैं नहीं, ऋतुमें क्यों फूलने फलने चले ? ( १० ) बात ऋषियोंकी किनारे ही रही, श्राज उतने विहग क्या बसते यहाँ ? इन्द्रका आना तुम्हें अब स्वप्न है, पतित पापी भी अरे आते कहाँ ? ( ११ ) रो दिये खग़की चहक के ब्याजसे, ; शान्त हो हे सिद्धिवर ! ढारस धरो नर्मदा भी है तुम्हारे दुःखसे, दुःखिनी, कुछ ध्यान उसका भी करो । ( १२ ) नर्मदा तो आज भी रोती हुई प्रिय तुम्हारे पूर्व वैभवकी कथाकह रही है, बह रही बन मन्थरा, सान्त्वना दे बोलती " यह दुख वृथा ।” ( १३ ) नर्मदे ! तू कौन है ? कह तो तनिक, काम तेरे हैं अलौकिकता भरे; परिक्रमा देती उधर श्रकारकी, इधर इनके चरण में मस्तक धरे । ( १४ ) क्या रही दृष्टान्त है दिखला रही एकसे हो उभय धारा तू यहाँ ; "जैन वैष्णव आदि सब ही एक हैं, एक उगम, एक मुख सबका वहाँ ।” ( १५ . ) भेद मत रक्खो अनादर मत करो तुम किसीसे धर्मके हित मत लड़ो ; 9 जैनहितैषी । [ भाग -२५ " स्वीयको जानो उचित उन्नति करो, बुरा कहने में किसीके मत पड़ो । ( १६ ) सिद्धिवर ! गाश्रो यही अब भावना "वीर प्रभु सा शीघ्र ही अवतार हो : स्वार्थ, हिंसा दूर हो जावें सभी,विषमताका अब न कुछ व्यवहार हो । ( १७ ) मुनि वही घूमें पुनः इस देशमें, - शान्ति सुखका फिर वही विस्तार हो; दानवी दुर्भाव सारे नष्ट हों मुक्त हों हम, देशका उद्धार हो ।” प्रतिमा के लेखपर विचार | ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने देहली, सेठके कूचेके जैनमन्दिरकी एक प्रतिमाका लेख अपने जैनमित्रके गताङ्क नं० = में प्रकाशित किया है और उसके सम्बन्ध में यह लिखकर कि "इसमें जो संवत् ४६ है वह यदि विक्रम संवत् माना जाय तो यह प्रतिमा साढ़े उन्नीस सौ वर्षकी प्राचीन है, " इतिहासज्ञ विद्वानों को उसपर विचार करनेकी प्रेरणा की है । अतः हम उसपर अपने विचार नीचे प्रकट करते हैं । ब्रह्मचारीजीको चाहिए कि वे इन्हें अपने पाठकोंपर भी प्रकट कर देवें, जिससे व्यर्थ ही किसी प्रकारका कोई भ्रम फैलने न पावे । प्रतिमाका उक्त लेख, जिसकी श्राठ पंक्तियाँ हैं, दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भागकी चार पंक्तियोंमें उन 'सहस्रकीर्ति' मुनिकी वंशपरम्पराका उल्लेख है जिनके उपदेशसे यह प्रतिमा स्थापित अथवा प्रतिष्ठित कराई गई है। साथ ही, उसके इस तरहपर स्थापित तथा प्रतिष्ठित किये जानेका For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाके लेखपर विचार । समय भी दिया है, जो विदादग्रस्त है।' कुन्दाचार्यकी प्रान्नायमें हो.गये हैं। पं० दूसरे भागकी शेष चारों पंक्तियों में उन मेधावीने वि० सं० १५१६ में एक दान. गृहस्थोंका परिचय है जिन्होंने उक्त मुनि- प्रशस्ति बनाई थी जो मूलाचारको वसु. के उपदेशसे इस प्रतिमाको स्थापित नन्दिवृत्तिकी उस प्रतिमें लगी हुई है अथवा प्रतिष्ठित कराया और जो नित्य जिसका उल्लेख पिटर्सन साहबने अपनी इसकी पूजा-वन्दना किया करते थे। ऐति- द्वितीय रिपोटके पृष्ठ १३६ पर किया है। हासिक निर्णयके लिए लेखका पहला संवत् १५१६ में उसी दातारकी तरफ़से भाग सबसे अधिक ज़रूरी और मुख्य है. फिर एक दूसरा ग्रन्थ दान किया गया और इसलिए उसे हम ज्योंका त्यों नीचे जिसका नाम 'त्रैलोकाप्रज्ञप्ति' है। उसके उद्धृत करते हैं : साथ भी वह दानप्रशस्ति जुड़ी हुई है और ... "संवत् ४९ वर्षे जेष्ठ बदी ६ बधवारे जिसका उल्लेख पिटर्सन साहबने अपनी श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाए धवलाकार गणे चौथी रिपोर्ट में किया है। इस दानसरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकंदाचार्यान्वये भ. प्रशस्ति में भी पं० मेधावीने, जिनका दूसरा पद्मनंदिदेवा तत्पट्टे भ० श्रीशुभचंद्रदेवा नाम 'मीहा' था, अपने गुरु जिनचन्द्रके तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रानाये मुनिश्रीसहस्रकीर्ति सम्बन्धमें यही सूचित किया है कि वे उपदेशात् ।" उन शुभचन्द्राचार्य के पहपर प्रतिष्ठित हुए थे जोकि पद्मनन्दिके पट्टधर थे। यथाःलेखके इस अंशसे यह बिल्कुल स्पष्ट अथश्रीमूलसंघेऽस्मिन् है कि मुनि सहस्रकीर्ति उन श्रीजिनचन्द्रकी मानार्यमें थे जो कि भट्टारक पद्मनंदि . नंदिसंघेऽनघेजनि । के पट्टधर श्रीशुभचन्द्राचार्यके पट्टपर बलात्कारगणस्तत्र प्रतिष्ठित हुए थे। अब देखना यह है कि गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ॥११॥ उक्त 'श्रीजिनचन्द्र भट्टारक' कब हुए हैं। तत्राजनि प्रभाचन्द्रः उनका निश्चित समय मालूम होनेपर सूरिचन्द्राजितांगजः। .. लेखका सब हाल खुल जायगा। दर्शनज्ञानचारित्र पण्डित मेधावी (मीहा) का बनाया तपोवार्यसमन्वितः ॥१२॥ दुमा 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' नामका श्रीमान् बभूव मार्तडएक ग्रन्थ है जो कि विक्रम संवत् ५४१ स्तत्पट्टोदय भूधरे । में बनकर समाप्त हुआ है। इसकी प्रशस्ति पद्मनंदी बुधानंदी में प्रन्थकर्ताने अपनेको 'जिनचन्द्र' का शिष्य लिखा है और यह प्रकट किया है तमच्छेदी मुनिप्रभुः ॥१३।। कि ये जिनचन्द्र श्रीशुभचन्द्राचार्यके पट्ट- तत्पट्टाम्बुधिसञ्चान्द्रः पर प्रतिष्ठित हुए थे और शुभचन्द्राचार्य शुभचन्द्रः सतांवरः। । उन पद्मनन्दिके पट्टधर थे जो श्रीकुन्द- पंचाक्षवनदावाग्निः कषायक्ष्माधराशनिः ॥१४॥ * यह 'बलात्कार' होना चाहिए; क्योंकि इस गखका ठीक नाम यही है। सम्भव है कि प्रेसकी गलतीसे ऐसा तदीय पट्टाम्बर भानुमाली ....... अशुद्ध रूप छपा हो। क्षमादि नानागुणरत्नशाली। .. For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ee [ भाग १५ भट्टारक श्रीजिनचंद्रनामा प्रतिमाको प्राचीन बनाकर अधिक धन सैद्धान्तिकानां भुवियोस्तिसीमा || १५ || लेनेकी गुरजसे उसे किसी प्रकार दूर + किया है । परन्तु यह बात प्रतिमाकी गौरसे जाँच करने पर मालूम हो सकती है । उक्त के दूर किये जानेकी हालत में 'संवत्' के बाद कुछ स्थान खाली होगा । और यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिये कि १५ का श्रङ्क उत्कीर्ण होनेसे रह गया है। और यह तो कह नहीं सकते कि उस वक्त श्रधा संवत् लिखनेका भी रिवाज था, जैसाकि श्राजकल अँग्रेजीका सन् प्रायः श्रर्धरूपसे लिखा जाता है— १६२० को २० लिखते हैं--क्योंकि इस प्रकारके रिवाजका दूसरा कोई उदाहरण उस वक्तका देखने में नहीं श्राता । x x तत्पुत्रो जिनचंद्रस्य पादपंकज षट्पदः । महारव्यः पंडितस्त्वस्ति श्रावकव्रतभावकः ||२५|| जैनहितैषी । x इण्डियन एण्टिक्वेरीमें नन्दिसंघकी जो पट्टावली प्रकाशित हुई है उसमें भी जिनचन्द्र की यही गुरुपरम्परा दी है और साथ ही उनके पट्टपर प्रतिष्ठित होनेका संवत् भी १५०७ दिया है । और भी कई जगह इस गुरुपरम्पराका उल्लेख है । इन सब प्रमाणोंसे साफ जाहिर है कि प्रतिमा के लेखोंमें जिन श्रीजिनचन्द्रका उल्लेख है वे वही जिनचन्द्र हैं जो पं० मेघावीके गुरु थे और उनका अस्तित्वकाल विक्रमकी १६वीं शताब्दी है । और इसलिए उनकी श्रनायमें होनेवाले सहस्रकीर्ति या तो उनके समकालीन थे और या उनसे भी कुछ पीछे हुए हैं। ज्यादातर खयाल तो यही होता है कि वे जिनचन्द्रके शिष्यों में थे; नहीं तो वे अपने नामसे पूर्व अपने गुरुका नाम जरूर उस लेख में लिखाते । ऐसी हालतमें उक्त लेख का संवत् ४६ गलत है, यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता। हमारी रायमें वह संवत् १५४६ होगा । 'संवत्' शब्द के बाद १५ का श्रंक या तो घिस गया है या उस काबुलीने, जिससे बहुत रुपया देकर प्रतिमा खरीदी गई है, * - देखो जैनसिद्धान्त भास्कर किरण ४ पृष्ठ ७६ । * जिनचन्द्र भट्टारकके बहुतसे शिष्य थे, ऐसा उक्त दान प्रशस्तिसे मालूम होता है। उसमें कुछके नाम दिये हैं और शेषको 'अन्ये च दशधर्मधरा वरा:' इन शब्दोंके द्वारा सूचित किया है। इन शब्दोंमें वे रत्नकोर्ति भी दाखिल हैं जिनका उल्लेख धर्मसंग्रह श्र० में खास तौर से किया गया है। एक बात यहाँ पर और भी प्रकट कर देनेकी है; और वह यह है कि इण्डियन पेंटिक्वेरी में प्रकाशित नन्दिसंघकी पट्टावलीसे यह भी मालूम होता है कि उक्त जिनचन्द्र के पश्चात् उनका पट्ट-दो भागोंमें विभक्त हो गया है, एक गद्दी नागौर में स्थापित हुई और दूसरी चित्तौड़ में । नागौर के भट्टारकों की नामावली में सहस्रकीर्ति नामके दो श्रचायका उल्लेख है और उनका समय, उक्त नामावली में दिये हुए कुछ संवतोंके अनुसार, क्रमशः १७वीं और १६वीं शताब्दी के करीब होता है। यदि पट्टावलीका यही सब उल्लेख ठीक है और प्रतिमा के लेख में जिन सहस्रकीर्तिका नाम है वे इन्हीं दोनोंमें कोई एक हैं, तो प्रतिमाका, उक्त संवत् १६४६ या १८४६ होना चाहिये । परन्तु ऐसा होनेकी संभाबना बहुत कम है; क्योंकि लेख में सहस्रकीर्ति से पहले उनके दूसरे किसी साक्षात् गुरुका नाम नहीं है, जिसके उस हालतमें होनेकी बहुत ज्यादा संभावना थी । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १-४] बहुविवाह विरोधका रहस्य । 8. बहुविवाह विरोधका रहस्य। नहीं माना और बहुसम्मतिके ज़ोरपर उक्त प्रस्ताव पास हो गया। - [लेखक-श्रीयुत नाथूराम प्रेमी।] ऐसा क्यों हुआ? बहुविवाहके अनुकलकत्तेकी खण्डेलवाल जैन महा- कूल शास्त्र-प्रमाणोंके रहते हुए और सभामें एक प्रस्ताव यह भी पास हुआ समाजके एक धुरन्धर पण्डितके द्वारा है कि किसी खण्डेलवाल पुरुषको एक उसके अनुकूल व्यवस्था मिलते हुए भी स्त्रीके रहते हुए दूसरा, तीसरा आदि खण्डेलवाल समाजने उसे क्योंघृणित और विवाह नहीं करना चाहिए । उक्त महा- त्याज्य ठहरा दिया, इस पर कुछ अधिक सभाके संस्थापक या सर्वस्व पं० धन्ना- विचार करनेकी आवश्यकता है। इसीके लालजी काशलीवाल स्वयं इस प्रस्तावके भीतर प्रत्येक सुधारका और समयानुकूल • विरुद्ध थे। इसके पहले और भी एक दो प्रगतिका बीज छिपा हुआ है। बड़ी बड़ी सभाओं में वे बहुविवाहका जो लोग यह समझते हैं कि समाजमें मण्डन कर चुके हैं। बहुतसे शिक्षित- प्रत्येक सुधार शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार यहाँतक कि पण्डितजन भी-आपके इस किये जाते हैं और अशिक्षित जनता तो मण्डन-हठको बड़े आश्चर्यकी दृष्टिसे शास्त्रोंको बहुत अधिक प्रमाण मानकर देखते हैं। परन्तु हमें इसपर ज़रा भी चलती है, उन्हें इस घटनापर विशेष आश्चर्य नहीं होता है। जब वे जैनकथा- मनोयोगपूर्वक विचार करना चाहिए । प्रन्योतकको अक्षरशः सत्य मानते हैं- हमारी समझमें साधारण जनता शामोंयहाँतक कि त्रिवर्णाचार जैसे ग्रन्थोंको की अपेक्षा रूढ़ियोंकी अत्यधिक गुलाम भी प्रमाण-कोटि में एक इंच भी पीछे होती है। इस विषयमें हम और भी कई रखना पसन्द नहीं करते हैं, तब उनके बार लिख चुके हैं । 'शास्त्रादिबलीयसी' द्वारा बहुविवाहका विरोध हो भी कैसे का सिद्धान्त हमारे समाजके प्रायः प्रत्येक सकता है ? हमारा प्रायः प्रत्येक महा- कार्यमें स्पष्टतासे दिखलाई देता है । पुरुष या शलाकापुरुष हज़ारों स्त्रियोंका जिन लोगोंने खंडेलवाल सभामें उक्त धनी रहा है। बहुतसे लोग तो उनकी प्रस्ताव पास कराया है, ऐसा नहीं है कि महत्ताका माप उनकी नियोंकी संख्यासे वे इस बातको न जानते हो कि जैनपुराणही किया करते हैं । चक्रवर्तीके ४६ हज़ार, से बहु-विवाहकी प्रथाका प्रायः अनुमोदन नारायणके १६ हज़ार, वासुदेवके ८ ही होता है; परन्तु एक तो वे देख रहे हैं हज़ार, इस तरह पदकी मर्यादाके अनु- कि पारिवारिक सुखशान्तिके लिए एक सार ही तो स्त्रियोकी संख्या बतलाई गई पुरुषके लिए एकसे अधिक स्त्रीका होना है। और त्रिवर्णाचारमें तो यहाँतक कहा ठीक नहीं है; दूसरे देश भरमें प्रायः यह है कि जैन गृहस्थको सन्तान अवश्य उत्पन्न प्रथा इतनी रूढ़ हो गई है कि अब इसके करना चाहिए-यह उसका धर्म है ! जो विरुद्ध चलनेका साहस तक लोग नहीं ऋतुस्नाता स्त्री अपने पतिसे सम्भोग कर सकते, तीसरे हमारी शासक जाति नहीं करती है वह दूसरे जन्ममें कुत्ती, जिसका अनुकरण शात और अज्ञात भावशृगाली श्रादिका जन्म पाती है। सुनते से प्रायः सारा ही देश कर रहा है-इस है, पण्डितजीने ये शास्त्रप्रमाण सभामें प्रथाको एक सभ्यताको निशानी समझती उपस्थित भी किये थे। फिर भी लोगोंने है; चौथे देशकी वर्तमान परिस्थिति में For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग १ साधारण जनताके लिए एकसे अधिक वारिक अवस्थायें ऐसी तेजीके साथ स्त्रियाँ रख सकना शक्य भी नहीं है; और बदल रही हैं, जनताके मानसिक क्षेत्रमें खंडेलवाल जातिकी तो यह दशा है कि ऐसी विलक्षण क्रान्ति मच रही है, अविउसमें लड़कियों की कमीके कारण हजारों वाहितोंकी संख्या इतनी बढ़ रही है, युवा-एक विवाह करनेका भी सुयोग नहीं स्त्रियोंके दुःखों और कष्टोंकी ओर शिक्षितोंपा रहे हैं, तब एकाधिक विवाह करना का हृदय इतना अधिक आकर्षित हो रहा तो सम्भव ही कैसे हो सकता है; और है, और स्त्रियाँ भी दिन पर दिन इतनी पाँचवें उनके मनमें रह रहकर यह प्रश्न अधिक सज्ञान होती जा रही हैं कि वह भी उठता है कि हम शास्त्रोंकी सभी बातें समय बहुत दूर नहीं जान पड़ता जब कि. मानकर कहाँ चलते हैं? यदि बहुविवाह विधवा विवाहकी प्रथा भी बहुसम्मतिसे शास्त्रसम्मत है तो असवर्ण विवाह, अन्य स्वीकार कर ली जायगी। जातीय विवाह, अन्य धर्मीय विवाह, बहुतोंके खयालमें इस प्रथाके प्रचलित गान्धर्व विवाह, मामाकी लड़कीके साथ होने में सबसे बड़ी बाधा शास्त्रविरोधविवाह, श्रादि भी तो शास्त्रनिषिद्ध नहीं की है; परन्तु हम इसे नहीं मानते । हमारे हैं। परन्तु हम इस प्रकारके विवाहोंको कहाँ खयालमें तो इस समय यदि कोई बड़ेसे पसन्द करते हैं-इन्हें भी तो हम बुरी बड़ा पण्डित किसी सर्वोपरि प्रामाणिक दृष्टिसे देखते हैं। इन्हीं सब कारणोंसे ग्रन्थकर्ताके इस तरहके स्पष्ट प्रमाण भी उक्त बहुविवाह-विरोधी प्रस्ताव बहु- जनताके सामने उपस्थित कर दे कि विधवा सम्मतिसे पास किया गया है; और जिन विवाह करना जायज़ है-धर्मसम्मत हैलोगोंके आँख है, वे इस बातको बड़ी तो भी दक्षिणकी सेतवाल चतुर्थ पंचम स्पष्टतासे देख रहे हैं कि जनता केवल आदि दो चार जैन जातियोंको छोड़कर , शास्त्रों के ही वचनोंको सिरपर रखकर अन्य जैन जातियाँ कदापि इस प्रथाको नहीं चलती, वह अपने दूसरे सुभीतोंका एकाएक स्वीकार नहीं करेंगी। वे उस भी खयाल रखती है । और शास्त्रकार इस शास्त्रको अप्रामाणिक भले ही न ठहरावे, पातका अनुभव कर चुके थे, इसी कारण और विधवा विवाहकोधर्मसम्मत भी मान उन्होंने भी प्रत्येक कार्य द्रव्य-क्षेत्र-कालादि- लें, तो भी वे यह कहकर छुटकारा का विचार करके करनेकी व्यवस्था दी है। पानेका रास्ता अवश्य निकाल लेगी कि यहाँपर प्रसङ्गवश हमको विधवा "यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं ना करणीयं विवाहकी प्रथा पर भी एक दृष्टि डाल ना चरणीयं" असवर्ण विवाह, मामाकी लेनी चाहिए । यद्यपि हमारा विश्वास है लड़की के साथ विवाह आदि शास्त्रसिद्ध कि अन्य विवाहों के समान विधवा विवाह बातोंको इसी तरह की बातें कहकर ही भी शास्त्रनिषिद्ध नहीं किया जा सकता, तो लोग टाल दिया करते हैं । हमारी. फिर भी यदि थोड़ी देरके लिए यही मान समझमें इस प्रथाके मार्गमें सबसे बड़ी लिया जाय कि यह निषिद्ध ही है, तो भी बाधा यही 'लोकविरुद्धता' की है। जब ऊपरके उदाहरणसे हमें यह मानना तक यह प्रथा लोकविरुद्ध बनी रहेगीपड़ेगा कि केवल शास्त्रनिषिद्ध होनेके 'लोक-लाजका हौत्रा'. लोगोंको डराता कारण ही किसी प्रथाको रोका नहीं जा रहेगा, तभीतक लोग इसे ग्रहण करने में सकता। हमारी सामाजिक और पारि- संकुचित होंगे। परन्तु यह लोकविरुद्धता For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४] सेठ लालचन्दजी सेठीका भाषण । भी चिरजीविनी नहीं है।ज्यों ज्यों लोगोंकी आसानीके साथ उसकी नक्ल करवाकर मानसिक दुर्बलताये कम होंगी, 'मनःपूतं बहुत जल्दी उस जगह भेज दें। चूहे और समाचरेत्' के सिद्धान्तको लोग मानने दीमकके खाये खण्डित शास्त्रोंकी यथालगेंगे, समाजके अग्रस्थानीय सदाचारी शक्ति पूर्ति की जाय और फिर उनको धनी और विद्वान् लोग साहस करके इस छपवाकर सस्ते मूल्यमें उनका प्रचार प्रथाका अवलम्बन करना शुरू कर देंगे, किया जाय । हर्षकी बात है कि कुछ विधवा स्त्रियाँ और अविवाहित पुरुष सजनोंने इस काममें हाथ डाला है। यह समझने लगेंगे कि छिपकर महान् पाप फिलहाल मैं "माणिकचन्द्र संस्कृत ग्रन्थकरनेकी अपेक्षा खुलकर विवाह कर लेना माला" का काम तारीफके लायक कहूँगा। अच्छा है. त्यो त्यों इस प्रथाके मार्गकी समाजका फर्ज है कि इस ग्रन्थमालाको बाधायें आपसे श्राप हटने लगेगी और खूब सहायता देकर हमारे प्राचीन शास्त्र शास्रोके विरोध और अनुमोदनकी परवा स्वल्प मूल्यमें प्रकाशित करावे । इससें । किये बिना ही विधवा-विवाहकी प्रथा साहित्यका उद्धार होगा और हमारे चल निकलेगी। माणिकचन्द्रजीके स्मारकोंमें यह रत्न भी अपूर्व होगा क्योंकि उन्होंने जातिकी बहुत कुछ सेवा की है । इस ग्रन्थमालाका सेठ लालचन्दजी सेठीक सम्पादन भी सन्तोषजनक हो रहा है ।।. भाषणका कुछ सार भाग। "मुझे आशा है कि हिन्दी साहित्यकी . (गताङ्कसे आगे।) उन्नतिमें भी हमारे जैनियोंका अच्छा भाग 'भाइयो! सच समझिये कि अगर है। हमें चाहिए कि हम राष्ट्रभाषा हिन्दीआपको जैन-धर्मका अस्तित्व कायम रखना की उन्नतिके लिए खूब प्रयत्न करें और है, तो सबसे पहले आप जिनबाणीको किसीसे पीछे न रहें।" संभालिये; तभी आपका धर्म भी कायम "श्रीयुत बा० देवेन्द्रप्रसादजी जैन रहेगा। जाति और भाषाका बहुत गहरा आरासे अँगरेजीमें जैन ग्रन्थोंका उल्था सम्बन्ध है। इतिहास हमें बता रहा है निकालनेका बहुत प्रशंसनीय कार्य कर कि निजका साहित्य नष्ट होनेसे बड़े बड़े रहे हैं।" देश गारत हो गये। फिर एक कौमका . "हस्तलिखित ग्रन्थ तो मिलना दुश्वार तो कहना ही क्या है ! मैं अपने भाइयोंसे है, मगर उस छापेका प्रचार करनेवाले जोरकी अपील करूँगा कि पुराने भंडारों- विज्ञानीको अनेक धन्यवाद है जिसकी को खुलवाकर सारे शास्त्रोको बाहर लाया कृपासे हमें छपे ग्रन्थ श्रासानीसे और जाय, उनको तरतीबवार रक्खा जाय, कम कीमतमें मिल जाते हैं। फिर ज्ञानउनकी सूची बनाई जाय, उनकी बराबर सम्पादन करनेसे वञ्चित रहना सिर्फ सम्हाल रक्खी जाय, उनकी वृद्धिकी हमारा दोष है, हमारी भूल है। तरफ खूब ध्यान रहे और वे हमारे भाइयों- मेरे खयालसे हस्तलिखित ग्रन्थों के को बे-रोकटोक खूब स्वाध्यायके लिए साथ एक एक प्रति छपे ग्रन्थोंकी भी दिये जावें। एक जगहके शास्त्रकी दूसरी पुस्तकालयोंमें रखनी चाहिए और यो जगह जरूरत हो तो हमारे भाई बहुत साहित्यको तरोताजा रखनेमें जरा भी. For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनहितैषी। [भाग १५ कमी नहीं करनी चाहिए। पुस्तकालयो- आज वह कैसी जगमगा रही है। यह भी का महत्त्व आप साहबोसे छिपा नहीं हमारी तरह व्यापार-पेशा कौम है। है। मेरी प्रार्थना है कि प्रत्येक मन्दिर, तादादमें हमसे काम है। मगर उनमें प्रत्येक गाँव. प्रत्येक कस्बे. प्रत्येक शहर विद्याका खब प्रचार है। यही वजह है और जहाँतक हो सके प्रत्येक घरमें अच्छे कि वे हमसे बढ़े हुए हैं और हम लोगोंमें अच्छे ग्रन्थोकी लाइब्रेरियाँ होनी चाहिएँ।” टाटा जैसे संसार-प्रसिद्ध व्यवसायशील .. स्वर्गीय बा० देवकुमारजी द्वारा उद्योगी व्यापारी नजर नहीं आते । मैं स्थापित प्राराके "जैनसिद्धान्त भवन" चाहता हूँ कि हमारे भाई धार्मिक हदसे की प्रशंसा करते हुए आपने कहा-"कुछ बाहर न होते हुए संस्कृत, भारतकी राष्ट्र दिनों पहले इसने एक ऐतिहासिक पत्र भाषा हिन्दी और अँगरेजीकी ऐसी भी निकालना शुरू किया था, परन्तु खेद योग्यता प्राप्त करके निकले जो अपना है कि वह बहुत जल्दी बन्द हो गया। मैं जीवन तो भली भाँति निभावे ही-मगर चाहता हूँ कि इस तरह के बृहत् सरस्वती साथ ही बड़े जबरदस्त व्यापारी भी हो, भवन (विद्या-मन्दिर) प्रत्येक प्रान्तमें कम- उनकी भी आवाज हो और उनका भी से कम बहुत जल्दी खुलने चाहिएँ। प्रभाव राजनीतिपर पड़े।मैं चाहता हूँ कि क्योंकि इन शास्त्रोकी बदौलत ही अपना यह सभा ऐसा प्रबन्ध करे जिससे हम पुराना इतिहास, पुराना गौरव और लोगों की धार्मिक शिक्षाके ही साथ साथ पुराने उच्च नियम जाने जा सकते हैं और लौकिक विद्या भी बहुत ऊँचे दर्जेकी हो प्राचार-व्यवहारको बतानेवाले भी यही और हमारी जाति किसीसे भी पिछड़ी न प्रन्थ हैं।" रहे। खाली अँगरेजीके विद्वानोंसे भी काम विद्या और विद्यालयके सम्बन्धमें नहीं चलेगा। हम लोगोंको अपना अस्तित्व जो विचार आपने प्रकट किये हैं वे इस कायम रखनेके लिए और उत्तरोत्तर प्रकार हैं-"जैन जातिमें कुछ वर्षोंसे जातीय तथा धार्मिक गौरव बढ़ानेके विद्यालय और स्कूल आदि खुले हैं, मगर लिए सञ्चरित्र और धर्मानुरागी उद्योगइनमेंसे जो विद्वान् निकलते हैं उनसे शील विद्यार्थी विद्यालयों से कैसे निकले, यथेष्ट नहीं होता । जमानेकी इत्यादि बातोंका खूब विचारकर विद्यागतिको देखते हुए कोरी संस्कृत या का सिलसिला कायम करना चाहिए । प्राचीन विद्यासे अब काम नहीं चलने- हमारी वर्तमान शिक्षा-पद्धति सन्तोषका। हम लोग व्यापारी हैं। व्यापार दायक नहीं है।" हमारा खास पेशा है-जीवन है। एक पुरानी संस्थाओं से 'जैन-सिद्धान्त जमाना ऐसा भी बीत गया कि हमारा विद्यालय मोरेना, स्याद्वाद महाविद्यालय काम यहाँके व्यापारसे ही चल जाता था। काशी, ऋषभब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर, मगर अब विदेशोंसे व्यापार किये बिना महाविद्यालय मथुरा, जैपुरकी जैनपाठकाम नहीं चलता और विदेशोंसे ठीक शाला और छात्रालयके कामका उल्लेख ठीक व्यापारिक-सम्बन्ध रखनेके लिए करते हुए आपने कहा-"मगर इनमें जरूरत है कि अँगरेजीकी अच्छी योग्यता समयानुकूल उचित परिर्वतन करके हमें हो । हम देखते हैं कि व्यापार विद्या हीके, चाहिये कि इनको 'शान्तिनिकेतन' और पलसे चलता है। पारसी कौमको देखिए, 'प्रेम महाविद्यालयके' ढंगके आदर्श विद्या लली For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक ३-४] सेठ लालचन्दजी सेठीका भाषण । लय बना दे और उनमें उत्तमसे उत्तम भाषामें जवाब देते हैं, जिससे द्वेष उत्तरीव्यापारिक शिक्षा धार्मिक शिक्षाके साथ त्तर बढ़ता है। जैनसमाजके उपदेश स्वरूप दी जावे जिससे यह लोक और परलोक समाचारपत्रोंको भाषा-समितिका विषय दोनों सुधरें और जिनमेंसे श्रादर्श नव- नहीं भूल जाना चाहिये। युवक तैयार होकर निकलें। . कितने ही भाइयोंकी सम्मतिमें चन्द प्राथमिक शिक्षाके लिये जगह जगह पत्र का वहिष्कार आवश्यक अँचता है। जो हमारी जातीय पाठशालाएँ हैं उनका परन्तु इस विचार-स्वातन्त्र्यके जमानेमें पठनक्रम भी ऐसा रक्खा जाय जो विद्या- इस तरहके बहिष्कार तो बहुत कम चल र्थियोंको उच्च शिक्षा प्राप्त करानेमें उप- सकते हैं । आवश्यकता तो यह है कि योगी हो। इसके सिवा, जहाँ जहाँ पाठ- अहितकर लेखोका योग्यतापूर्वक जवाब शालाएँ नहीं हैं, वहाँ वहाँ अवश्य छपाया जाय । उनको मनानेका यही एक खुलनी चाहिये। इस तरह पाठशालाओं अच्छा साधन है। मेरे खयालसे इस तरह आदिका उचित प्रबन्ध करके जातिका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। एक भी बच्चा अशिक्षितन रखना चाहिये। मैं वर्तमान सामाजिक पत्रोंमें 'जैनऔर मेरी सम्मतिसे जो माँ बाप अपने हितैषी' और 'जैनमित्र की प्रशंसा किये बच्चोंको नहीं पढ़ावें, उनको जातिसे उचित बिना नहीं रहूँगा, जिनका सम्पादन बड़ी दण्ड अवश्य दिया जाना चाहिये। योग्यतासे किया जाता है। बल्कि 'जैनसमाजका भविष्य बालकोपर ही निर्भर हितैषी' के कितने ही लेख तो बड़ी खोजहै । मैं यह भी चाहता हूँ कि शिक्षालयोंमें के साथ लिखे जाते हैं। हालाँकि मैं उसके और और पढ़ाई के साथ साथ सेवाधर्म भी कितने ही लेखों और कितने ही विचारोंसिखाया जावे।" से सहमत नहीं हूँ।" समाचार-पत्रोंकी आवश्यकता और दानकी प्रथाका उल्लेख करते हुए उनपर अपने विचार प्रकट करते हुए आपने आपने सखेद प्रकट किया कि- "आजकल कहा-"जातिकी कुरीतियाँ मिटाने, जातिमें हमारे समाजमें गुप्तदानकी परिपाटी अच्छी नीतियाँ और सदाचार फैलाने, बहुत कम हो गई है । इससे अपने कई गति करने और उत्साह बढ़ाने में समा- असहाय बन्ध और महिलामोको हम चारपत्र भी बड़े अच्छे साधन हैं । खेद है बहुत कुछ सहायता नहीं पहुंचा पाते। कि सारे दिगम्बर जैन समाजमें दो तीन- मैं ऐसे दानको वास्तवमें दान न कहकर को छोड़कर ये भी नहींके बराबर हैं। सहायता कहना ज्यादा उचित समझता उनसे जैसा चाहिये वैसा फायदा नहीं हूँ। हमारे असहाय भाइयोको सहायता पहुँचता । हमारे सामाजिक पत्र ऐसे होने ज़रूर दी जाय। मगर हम चाहे कि बा. चाहिये, जो प्राचीन गौरवको प्रकट करते कायदा नाम दर्ज करके और रसीद लेकर हुए हमें आदर्श बनानेमें सहायक हो। सहायता दें, तो इसमें कदापि सफलता माजकलकी दुनियाँमें तोसमाचारपत्रोंके नहीं हो सकती। सहायता तो जितनी • बिना काम ही नहीं चल सकता। गुप्तसे गुप्त दी जाय उतनी ही अच्छी बात प्रायः देखने में आता है कि जो समा- है। प्रत्येक धनवामका फर्ज है कि वह चारपत्र किसीके खिलाफ कोई लेख अपने शहरके असहाय स्त्री पुरुषोंको छापता है, तो दूसरे पत्र उसका द्वेषपूर्ण पूरी पूरी सहायता देकर अपना जन्म For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग-१५ सफल करे और उन्हें तकलीफसे बचावे। जातिके लड़के दूसरी जातिकी लड़कियोंआवश्यकता है-मनुष्य परमार्थ में स्वार्थ से विवाह न करें, तो ज़रूरत है बिरादरीसमझे। इस जगह मैं नवीन मन्दिर- में ऐसा नियम करने की. कि जहाँतक हो, निर्माणके सम्बन्धमें कुछ कहूँ तो अनुचित हमारे नौजवान भाई कुंवारे न रहे और नहीं होगा। माना कि प्रतिष्ठा कराना उनको कन्यायें मिल सकें। यह तबतक पुण्य और प्रभावनाका कारण है; परन्तु न होगा जबतक कि बालविवाह, वृद्धदेखने में आता है कि कई मन्दिर जीर्ण विवाह, बेजोड़ विवाह आदि सत्यानाशी हो रहे हैं और उन्हें सुधारने की कोई फ़िक्र रीतियों का समूल संहार न कर दिया नहीं करता। इसी तरह कई जगह पूजा जावे । और विवाहके खर्चका नियम यहाँप्रक्षालके लाले पड़ रहे हैं और समाज तक बना दिया जावे कि पढ़े लिखे योग्य ध्यान नहीं देता। ऐसी सूरतमें नवीन तरुण युवाको पढ़ी लिखी सुशीला कन्या मन्दिर बनाया जाना वास्तव में जैनधर्म- कमसे कम खर्च में भी मिल सके. यहाँकी अवहेलना करना है । पहले इन तक कि लड़के लड़कियों का विवाह ५) मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करना चाहिये तकमें हो जावे और किसी प्रकारकी और पूजा प्रक्षालका इन्तजाम । मेरी कठिनाई न हो। ऐसे विवाहों में हमारे सम्मतिमें इस समय ऐसे कामों में अधिक भाई वैसी ही दिलचस्पीके साथ भाग पुण्य प्रतीत होता है। हाँ, जहाँपर जैन ले, जैसा कि वे लाख रुपये खर्च करनेमन्दिर नहीं हो वहाँपर जैन मन्दिर अवश्य वालेके विवाहमें लेते हैं । हाँ, इस बातकी बनने चाहिये। बाकी हमारे दानका भी बड़ी भारी आवश्यकता है कि विवाह उपयोग जातिके अभ्युदयके कामों में होना होनेके पहले वरकी इतनी योग्यता हो ही चाहिये । जैसे-विद्यामन्दिर, पुस्तका. जानी चाहिए कि वह गृहस्थीको अच्छी . लय, जाति भाइयोंके सहायतार्थ फण्ड तरह चला सके और समाजके लिए भारआदि दान देकर खुलवाना। रूप न हो । यहाँ यह कह देना भी अत्यन्त.. हमारे शास्त्रों में जीर्णोद्धारका भी से ज्यादे आवश्यक है कि विवाहके समय महान पराय लिखा है। इसलिये ऐसे ऐसे कन्याकी अवस्था १३ और पुरुषकी १८कार्यों में द्रव्य लगाना उचित है। मेरा १६ वर्षसे किसी हालतमें कम न हो। मतलब यह नहीं है कि नवीन प्रतिष्ठा "खर्चेमें ही मान मर्यादा मानना भयंकराना मैं अच्छा नहीं समझता,-नहीं। कर भूल है। बस, हमारी समाजको ऐसे ज़मानेकी हालतको देखकर द्रव्य, क्षेत्र, नियम बना देने चाहिएँ, जिनसे न तो काल, भावका विचार करते हुए अब कोई मजबूर होकर ज्यादे खर्च ही करे दानकी प्रथाको पलटना मेरी रायमें बहुत और न खर्चके कारण कोई लड़काकुँवारा ज़रूरी जचता है।" ही रहे। बल्कि जमानेको देखते हुए इस ____फजूलखर्ची और कुरीतियोंको दूर समय सुपात्र कुँवारीको परणा देना मैं करनेकी प्रेरणा करते हुए आपने यह पुण्यका काम नहीं तो शुभ काम तो भी कहा अवश्य कहूँगा। क्योंकि जातिके अस्तित्व.. "यदि आप चाहते हैं कि हमारी को कायम रखने के लिए ऐसे विवाह जाति विधवाविवाह आदि कुप्रथाओंसे आदिकी कुप्रथाएँ नष्ट हो जावेगी।" बची रहे, यदि आप चाहते हैं कि हमारी व्यापार और झगड़े टंटोपर आपने For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ लालचन्दजी सेठीका भाषण । अपना वक्तव्य प्रकट करते हुए कहा-- उससे व्यापार और धार्मिक कामों में "व्यापारमें भी हम लोग बहुत पिछड़े हुए बहुत उन्नति हो सकेगी। हैं। सबसे पहले मैं उन भाइयों का जिक्र हमारे धनाढ्य भाइयोंको देशमें मिले करूँगा जो बेरोजगार हैं। ऐसे भाइयोंको इत्यादि कारखाने खोलकर अपनी और सहायता देकर रोजगारमें लगाना--इस देशकी उन्नति करनी चाहिए। तरफ भी हमारा ध्यान जाना चाहिए। हमारे भाइयों को चाहिए कि स्वदेशी इस मामले में मैं आप साहबोंको बहोरे वस्त्रोंका व्यवहार ज्यादेसे ज्यादे करें 'बिरादरीका अनुकरण करने की सलाह और स्वदेशी वस्त्र तथा अन्य स्वदेशी दूंगा।" वस्तुओका व्यवहार और व्यापार करके __ "क्या, छोटा' क्या बड़ा, कोई भी काम अपने लाभके साथ देशको भी लाभ पहुँ.. हमारा न्यायविरुद्ध नहीं होना चाहिए। चावे और देशोन्नतिमें सहायक हो। न्यायपूर्वक उपार्जित किया हुश्रा द्रव्य ही क्योंकि देशोन्नतिमें ही हमारी उन्नति हमारे समाजका, हितसाधन कर सकता पूर्णतया समाई हुई है।" है और धार्मिक कार्योको पूर्णतया सफल श्रीसम्मेद शिखरजीके झगड़े पर दुःख कर हमको पुण्यात्मा बना सकता है। प्रकट करते हुए आपने कहा-"हाय ! इसलिए अपने व्यापारमें हमको सत्य- जिस तीर्थसे हम अपना उद्धार कर सकते निष्ठ और निष्कपटतासे काम लेना चाहिए। हैं, उसीको हमने अपने डुबानेका साधन यदि हमारा व्यापार-व्यवहार, न्याय और बना लिया। जिसके नामसे हमारे भाव सचाईसे चले, तो हमको परलोक सुधा-- निर्मल होने चाहिये, जिसका नाम लेनेसे रनेके सिवा, इस लोकमें सफलता प्राप्त हम पवित्र होते हैं और जिसका माहात्म्य होगी। ऐसा न करनेसे ही हजारों रुपया हमारे शास्त्रों में यहाँतक लिखा है कि एक जो हमारा मुकद्दमे-मामलों में वृथा खर्च बार जो तनमनसे बन्दना कर ले, तो फिर हो जाता है--बहुत कम हो जायगा और नरक और तिर्यश्च गति नहीं पाता, शर्म हजारों दिक्कतोसे हम बचे रहेंगे। इसके है कि वही हमारे लिये अशान्तिका घर अलावा, यदि हम में आपसमें कोई झगड़ा हो-अफसोस ! जैन जातिके लिये इससे पड़े तो हम लोगोंको उचित है कि बढ़कर लांछनकी बात और क्या हो मापसमें ही फैसला कर ले। यह प्रथा सकती है ? मैं इसका उलाहना अपने हमारी बहुत पुरानी है। इसको फिर श्वेताम्बरी और दिगम्बरी दोनों भाइयोंकाममें लानेकी परमावश्यकता है। इतना को समान रूपसे दूँगा। जिस स्थानको. तो मैं प्राग्रह के साथ कहूँगा कि हमारे स्पर्शकर और जिसका पूजनकर हम मन्दिर आदिके धार्मिक झगड़े और बिरा- संसारसे पार उतरनेका भरोसा रखते दरी सम्बन्धी झगड़े तो किसी हालतमें हैं और जिसमें हमारा सांसारिक स्वार्थ भी अदालत में न जायँ और पञ्चायतों कुछ भी नहीं है, उसके लिये लड़ाई द्वारा तै हो, तो कहना ही क्या है। अगर क्यों ? अगर यह लड़ाई इसी तरह चलती पञ्चायतोंसे यह झगड़े तै न हो सके, तो रही, तो इसका दुष्परिणाम हमीको हमारी जातीय महासभाको बीचमें पड़ भोगना पड़ेगा और यह स्वयंसिद्ध बात कर तै करवा देना चाहिए। ऐसा करनेसे है कि दोकी लड़ाई में हमेशा तीसरा लामा जो हमारा समय और द्रव्य बचेगा, उठा ही जाता है । .. For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ मेरा दोनों सम्प्रदायोंके अगुआ महा- है कि उसपर खयाल करते हृदय थर्राता शयोंसे सविनय निवेदन है कि आप लोग है। सचमुच इस फूटने बहुतसे उन्नतोंको अब कोई ऐसा मार्ग निकालिये, जिससे अवनत कर दिया है। आप इस फूटको यह झगड़ा शान्तिपूर्वक जल्दी ही तय हो अपनी जातिमेसे बिलकुल निकाल जावे। अच्छा हो कि यह झगड़ा दोनों दीजिये। हमारे नेताओको चाहिये कि सम्प्रदाओंमें आपसमें तै हो जाय और हमारेआपसके झगड़े अवश्यमेव आपसमें दुनियाँ को हम बता दें कि जैसे हम ही निपाट लें और आगे न बढ़ने दें।" लड़ना जानते हैं, वैसे मिलना भी जानते पंचायतोकी हालत और उनके द्वारा हैं। अगर हम किसी तरह से नहीं कर निर्णयके सम्बन्धमें आपने कहा-“पंचा. सके तो देशके निष्पक्ष नेताओंके हाथमे यतोंमें प्रायः देखा गया है कि पंच लोग यह मामला देकर निपटारा कराना अक्सर किसी मामलेका विचार करते चाहिये। आप देखते हैं कि अदालतोंके हुए पक्षपात, रिश्तेदारी और मान मुलाजज बैरिस्टरों मादिसे देशके कितने ही हिजेको न्याय और सत्यकी अपेक्षा ज्यादे नेताओंकी योग्यता बहुत ऊँचे दरजे की काममें लाते हैं। यह बहुत बुरी बात है, है। और फिर अदालतोंमें हमको लाखों इससे बाज वक्त कई अन्याय और अत्यारुपया स्वाहा करना पड़ता है और यहाँ चार हो जाते हैं और निर्बल पिस जाते सिर्फ प्रार्थना पर ही मामलेका अन्त आ हैं, इसीसे बखेड़े उठते हैं। हमें चाहिये कि सकता है। अगर दोनों सम्प्रदायके भाई पंचायतके फर्शपर बैठकर रेव धर्म और इसपर ध्यान दें तो यह बहुत अच्छा गुरुकी साक्षीले न्यायाधीशका सञ्चा काम तरीका है। करें। और मनुष्योचित धर्म है कि हम भाइयो! हजारों वर्षोंका हिन्दू मुसल- इसे राजाशाके समान माने । खासकर मानोंका आपसका झगड़ा तै हो गया- हमारे मुखियाओंको तो इसका पूरा पूरा वे एक हो गये; और इस बीसवीं सदीमें ध्यान अवश्य रखना चाहिये तभी वे सच्चे ऐसी न मालूम कितनी असम्भव बातें मुखिया हो सकते हैं। आवश्यकता है। सम्भव हो गई। क्या ऐसे समयमें हम इसलिये ये बातें हमको अवश्यमेव करनी ही ऐसे दुर्भागी रहेंगे जो अपनी शक्ति चाहिये । हमारे त्यागी मुनियोको चाहिये और पैसेको इस तरह आपसके झगड़ेमें कि इसका जगह जगह उपदेश करें और व्यय करेंगे! मैं चाहता हूँ कि यह खंडेल- पंचायत बनाकर जातिका सुधार करें। बाल सभा ही इस वर्षोंके झगड़ेको शान्त जैनियोंकी राजभक्तिका उल्लेख करते हुए करके श्रेय प्राप्त करे। इससे बहुतसा आपने खेदके साथ प्रकट किया किदव्य जो इस झगड़ेके कारण मांसभक्षियों "जैनियोको कौंसिलमें जुदा हक़ न मिलनेकेजेबमें जाता है, रुककर हमारी जातीय से हमारे कई भाइयोंका जी दुखा है । उन्नतिमें लगेगा और समय व शक्तिका मगर अब तो कौंसिलके मोह नहीं रहे । जो बचाव होगा वह अलग। क्योंकि देशके बहुत लायक आदमी भी साहेबान ! फूट बहुत बुरी चीज है। अब उससे बाहर रहकर ही देशकी सेवा इस फूटसे ही असंख्य घरों, कई गाँवों, करना उपयोगी समझते हैं। समझे क्यों कई प्रान्तों, और कई देशोंका नाश हो नहीं, जबकि आर्थिक स्वराज्य तक हमको गया है और इस बुरी तरहसे नाश हुआ महीं दिया गया, जिसका कि देशके For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४] सेठ लालचन्दजी सेठीका भाषण । व्यापारके साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है बन सके। ऐसी सूरतमें हमारा प्रधान और हमारी कौमका जीवन ही व्यापारपर कर्त्तव्य होना चाहिए कि हम स्त्रियोंको. अवलम्बित है। हमें चाहिये कि राजभक्ति पूर्ण सन्मानकी दृष्टिसे देखें। यह श्लोक कायम रखते हुए देशसेवाके कामोंमें तो आपने सुना ही होगा कि- “यत्र यथासाध्य खूब भाग लेते रहें।" और स्त्री. नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।" और शिक्षापर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए न यह श्लोक ही हम श्रादि पुराणके अभ्या. मापने कहाः सियोंको भूल जाना चाहिये कि “नारी __"स्त्रियाँ ही एक ऐसी चीज हैं, जिनकी गुणवती धत्ते स्त्री सृष्टेरग्रिमम् पदम्। गोदमें हमारे सब बड़े बड़े व्यापारी,राजा, प्राचीन समयमें भी स्त्रियोंकी मानमर्यादाचक्रवर्ती, गणधर यहाँतक कि तीर्थङ्कर का बहुत खयाल रक्खा जाता था और भगवान तक खेले हैं और ये सुशीला व उनकी कतई अवहेलना नहीं की जातीथी, गुणवती स्त्रियोंके ही हाथ हैं जो हमारी यह बात हमको नहीं भूलनी चाहिए। नेशन तककी तैयार करते हैं। यह बात मगर अफसोस है कि श्राज हमारी स्त्रियोंहमको हमारी प्राचीन सतियों के चरित्रों- की, बालविधवाओकी, तरुण विधवाओं. को पढ़नेसे स्पष्ट प्रकट होती है। की और असहाय वृद्ध नारियोंकी क्या ___"पुरुष समाज चाहे कितनी भी उन्नति दुर्दशा है ! प्रत्येक मनुष्यका कर्त्तव्य होना कर ले और महिलासमाज इसी अवनत । स्त्रीजाति उसके लिए दशामें पड़ा रहे तो हमारी उन्नति होना मातृरूपमें, भार्यारूपमें, भग्निरूपमें, पुत्रीअसम्भव है। जैसे पुख्ता नीवके बिना रूपमें बड़े स्नेहके साथ स्वार्पण करती है। सुन्दर मकान भी नहीं ठहर सकता वैसे उसका प्रतिफल भक्तिभावसे किसीन ही हमारी उन्नतिके लिए स्त्रीरूपी नींवको किसी रूपमें सच्चे हृदयके साथ अवश्य दृढ़ करना होगा। पर खेद है कि वर्त्त- देवे । यह तो हुई श्राम स्त्रियोकी बात। मान समयमें हमारा स्त्रीसमाज बहुत अब मैं खास विधवाओंकी हालतपर कुछ लक्ष्यसे गिर गया है। पुरुषोंकी तरह विचार करता हूँ। लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षाका भी विधवाओंकी हालत बहुत शोचनीय प्रबन्ध करना जातिका महान्, कर्तव्य होना है। समाजमें कई ऐसी असहाय विधचाहिए । हमें स्त्रियोंको इस प्रकारकी वाएँ हैं जो बड़े दुःख के साथ सदाचार.. शिक्षा देनी चाहिए कि जिससे वे श्रादर्श पूर्वक अपना जीवन बिताती हैं। कितनी गृहिणी और आदर्श माताके कर्तव्योंको ही विधवाओंका तो निर्वाह ही बड़ी अच्छी तरह पालन कर सकें। हम उनको कठिनतासे होता है और कितनीको अपने ऐसी शिक्षा नहीं देना चाहते, जिससे वे कुटुम्बमें ही बहुत दुःख भोगना पड़ता हमारे प्राचीन श्रादर्शसे गिरे और ग्रहस्थी- है, सो श्राप साहबोसे छिपा नहीं है। अब के कामोंसे उनकी रुचि हट जाय । बल्कि ज़रूरत है कि वे अपना वैधव्यजीवन स्त्रियोंके शिक्षालयोंमें धर्मकी पढ़ाईके . धर्मपूर्वक निभा सके-ऐसे उचित प्रायोसाथ साथ सिलाई, व्यञ्जन, कला, जन इनके लिए अवश्य होने चाहिएँ। स्वास्थ्य-रक्षा, बालचिकित्सा, गृहव्यवस्था वरना इस कठिन समयमें ये अपने आदर्श आदि आदिकी शिक्षा भी स्त्रियों को दी से बहुत गिर जायँगी। विधवाओंके लिए जानी चाहिए, ताकि वह सन्मानपात्र स्त्री ऐसे विधवाश्रम हो और उनमें ऐसी For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ शिक्षा दीक्षा होनी चाहिए कि जो इनके चाहिए । और जहाँतक हो सके, गृहस्थके जीवनको सदाचारपूर्वक निबाहनेमें पूरी छः कर्म प्रति दिन पालें, तो अच्छा है। सहायता दे। जैनसमाजमें आजकल (४) हम लोगोंमें प्याहशादी जैनअध्यापिकाओंकी बहुत कमी है, और इस विवाह-पद्धतिके अनुकूल अवश्य होना कमीके कारण ही कई जगह कन्या पाठ- चाहिए। शालाएँ नहीं खोली गई हैं । क्या ही अच्छा (५) सोलह-संस्कार भी यथासाध्य हो कि हमारी विधवा बहिनोंको ऐसे किये जायँ, तो अच्छा है। कामोंके लिए तैयार कर उनसे जातिको (६) जातिका कोई बच्चा भूखा और उन्नतिके काम लिये जायँ और पढ़ानेके बेपढ़ा-लिखा न रहे । इसके लिए ज्यादेसे बाद वे अपना शेष जीवन शान ध्यानमें ज्यादे ध्यान देना अत्यन्तसे ज्यादे भावब्बतीत करें। श्यक है। ____ "मेरी तुच्छ सम्मतिसे यदि हमारी (७) हम लोगोंका खानपान भी बहुत.. विधवा बहिनोंको महात्मा गान्धीजीका शुद्धतापूर्वक शास्त्रानुकूल होना चाहिए। चर्खा या हाथके लूमोंपर कपड़ा बनाना (E) नवयुवकोंमें बीड़ी सिगरेट और सिमाया जाय, तो बहुत उपयोगी हो। अन्य मादक पदार्थों का सेवन रोकनेके इससे इनके लिए एक प्रकारका काम भी लिए उचित आयोजन करना चाहिए हो जायगा और ये दूसरोंके लिए भाररूप क्योंकि इनसे शारीरिक और मानसिक न होकर स्वयं अपने पैरोंपर खड़ी होनेके दोनों प्रकारकी हानियाँ होती हैं। योग्य हो जावेंगी। जैसा कि मैंने अपने __(8) हमारे दिगम्बर जैन समाजमें व्याख्यानमें ऊपर गुप्तदानका जिक्र किया जैसवाल, बागड़िया, अग्रवाल आदि है, वह ज्यादेसे ज्यादे हमारी इन्हीं जितनी बिरादरियाँ हैं, उनके साथ अपनी बहिनोंके काममें आना चाहिए और यही जातीय मर्यादा कायम रखते हुए, उनको उनकी सबसे ज्यादे हकदार हैं । हमारा अपना सहधर्मी भाई समझते हुए उनके फर्ज है कि इस तरह इनके जीवनको साथ भी हमको बहुत सहानुभूतिका सुगम बनाते हुए इनको अपने पुराने बर्ताव करना चाहिए। अन्दरूनी हम लोग मादर्शपर कायम रखते हुए गिरनेसे इस प्रकार जुदे होते हुए भी धार्मिक बचावें। स्त्रियोंको नर्सिंगकी शिक्षा भी कार्यों में तो हमको ऐसे शरीक हो जाना दी जाय, तो वे रोगियोंकी सेवामें बहुत चाहिए कि बाहरवाले भी यह आने कि सहायक होंगी। हम सारे दिगम्बरी एक समाजमें हैं। अन्तमें सेठजीने निम्नलिखित सूचनाएँ (१०) अपनी जातिका प्राचीन गौरव देकर अपने व्याख्यानको समाप्त किया है- और महत्त्व आदि बतानेके लिए योग्य (१) क्या स्त्री क्या पुरुष हम सबको पुरुषों द्वारा एक बहुत उत्सम और सर्वाङ्गप्रति दिन जिन भगवान्के दर्शन करने पूर्ण जातिका इतिहास अवश्य तैयार चाहिएँ। - होना चाहिए । (२) खाध्याय जितना ज्यादेसे ज्यादे . . (११) विधवा-विवाह करना और कर सके, अवश्य करना चाहिए । जाति-व्यवसा आदि तोड़ना क्यों हानि (३) यथासाध्य प्रति दिन आलोचना कर है और इनकी आवश्यकता क्यों नहीं और सामयिक प्रतिक्रम भी करना है, इत्यादि विषयों पर योग्यता और For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-७] कुछ सामयिक बातें। युक्तिपूर्वक अच्छे अच्छे ट्रेकृ निकालकर में उसी तरह बेरोक-टोक चला जा रहा समाजमें उनका खूब प्रचार किया जाना है। बीसा और दस्ता दमड़ों में पारस्प. चाहिए। रिक सम्बन्ध तो अब और भी बहुतायतसे होने लगा है। स्वयं सेठ माणिकचन्द जीके परिवारमें अनेक दस्सा कम्या कुछ सामायिक बातें। ब्याही जा चुकी हैं। अभी पिछले ही वर्ष सेठ माणिकचन्दजीके एक भतीजेकी (ले० श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी। ) शादी शोलापुरके एक दस्सा-कुटुम्बमें हुई १-अन्य जातियोंकी कन्यायें है। और यह बात तो अभी बिलकुल लेनेका प्रस्ताव। ताजी है कि पं० अर्जुनलालजी सेठी (खण्डेलवाल) की कन्या भी शोलापुरके पाठकोंने दिगम्बर जैन समाजकी एक दुमड़-कुटुम्बमें ब्याही गई है और दुमड़ आतिका नाम अवश्य सुना होगा। उसका व्यवहार यथापूर्व जा रहा है। स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीने श्वेताम्बरियों के साथ भी इस जातिमें अपने जन्मसे इसी जातिको पवित्र किया कुछ विवाह हुए हैं। था । गुजरात, मालवा, बागड़ और इसी तरह गुजरातमें मेवाड़ा नामको दक्षिणके कुछ जिलों में इस जातिके बहु- एक दिगम्बर जैन जाति है । इसकी संख्यक जैनी रहते हैं। जैन डिस्कृरीके जनसंख्या २१६० है। स्वर्गीय सेठ लल्लूअनुसार इस.जातिकी जनसंख्या २०६४ भाई प्रेमानन्द एल. सी.ई. इसी जातिके है। अन्य जातियोंके समान यह भी बीसा थे। इस जातिमें अबतक ७५ कन्यायें और दस्सा इन दो उपभेदोमें बँटी हुई दूसरी जातियोंकी ब्याही जा चुकी है है। इसमें कन्याओंकी संख्या कम है, और आतिने उनका अनुमोदन किया है। इस कारण विवाहके योग्य युवाओंकी अहमदाबादकी कई श्वेताम्बर जैन संख्या बहुत बढ़ती जाती थी । हमें सूरत- जातियों में भी इस तरहके विवाह प्रचलित के एक धनी और विचारशील सजनके हो गये हैं। द्वारा अभी मालूम हुआ है कि सूरतकी खण्डेलवाल जातिकी उन्नतिका बीड़ा दमड-बिरादरीने कितने ही वर्ष पहले- उठानेवाली खराडेलवाल महामा उठानेवाली खण्डेलवाल महासभाको इन से ऐसा प्रस्ताव पास कर रक्खा है कि बातों पर विचार करना चाहिए, यदि जिस विवाह योग्य पुरुषको अपनी जाति- वास्तवमें वह अपनी जातिका कल्याण में योग्य कन्याकी प्राप्ति न हो सके, उसे करना चाहती है तो। वह देखे कि बरअधिकार है कि वह अन्य किसी ऐसी जैन नगर, इन्दौर, लश्कर, आगरा आदि या अजैन जातिकी कन्याके साथ अपना स्थानों में अविवाहित खण्डेलवाल युवामोंविवाह कर ले जिसके साथ भोजनादि- की संख्या कितनी है और उनके चरित्रका सम्बन्ध हो और ऐसी दशामें वह की क्या दशा है। उनमेंसे कितने लोगोंने जातिच्युत नहीं समझा जायगा। इस जातिकी और गैरजातिकी विधवाओको प्रस्तावके अनुसार कुछ दुमड़ भाइयोंने घरोंमें डाल रक्खा है और यह जाहिर इतर जातिकी कन्याओंके साथ विवाह कर रक्खा है कि हमने इन्हें रसोई बनाने. किया भी है और उनका व्यवहार जाति के लिए रख छोड़ा है, और कितने For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... जैनहितैषी। [भाग १५ विवाह न होनेके कारण परस्त्री तथा लेना और उसके साथ पापमय जीवन वेश्यागामी बन गये हैं । वह यह भी देखे व्यतीत करते हुए वंश और जाति किजिन लोगोंने किसी तरह अपने विवाह उज्ज्वल करना। इसके लिए खंडेलवाल दो दो चार चार हजार रुपये देकर कर जातिने स्वाधीनता भी पूरी दे रक्खी है। लिये हैं, वे कर्जमें किस तरह जकड़े हुए एक ओर तो खण्डेलवाल जातिके हैं और इसके कारण उनका चरित्र उद्धारका बीड़ा उठानेवाले कहते हैं कि कितना उन्नत हो गया है ! यदि उससे धर्मशास्त्र विधवा-विवाह करनेकी भाशा . और कुछ नहीं बन सकता है तो वह एक नहीं देते, इसलिए वह निषिद्ध है; और बार गणना करके यही हिसाब लगा देखे दूसरी ओर जब धर्मशास्त्रों से यह बतकि हमारी जातिमें विवाहयोग्य अवस्थाके लाया जाता है कि उनके अनुसार एक कुमारों और कुमारिकाओं की संख्यामें वर्णकी विभिन्न जातियोंका ही नहीं, कितना अन्तर है। और फिर सोचे कि किन्तु विभिन्न वर्गों का भी विवाह अनु-. अपनी रक्षाके लिए उसे अन्य जातियोंके चित नहीं है, तम आतिके वर्तमान नियमोंसाथ विवाहसम्बन्ध स्थापित करनेकी की दुहाई दी जाती है ! ऐसी दशामें कितनी आवश्यकता है। समझमें नहीं आता कि धर्मशास्त्रोकी .. यह निश्चित है कि खण्डेलवाल जाति- आशा विशेष मान्य है या जातिके में कन्याओंकी बहुत कमी है और मुख्यतः नियमोंकी। इसी कारण इस जातिमें अविवाहित हमारी समझमें दूमड़ और मेवाड़ा युवकोंकी संख्या बढ़ रही है, फिर भी भाइयोंने अपनी जातिकी रक्षा करने के खण्डेलवाल महासभाके संस्थापक पं० लिए जो उपाय किया है, वह बहुत ही धन्नालालजीने कलकत्तेके अधिवेशनमें प्रशंसनीय है और उसका अनुकरण सभी बहुविवाहका प्रतिपादन किया था। जहाँ जैन आतियोंको करना चाहिए और उन एक एक कुमारके बाँटमें एक एक कन्या जातियोंके लिए तो इससे अच्छा रामभी नहीं पड़ती है, वहाँ वे चाहते हैं कि बाण उपाय मिल ही नहीं सकता जिन कुछ मनचले धनी लोग दो दो चार चार जातियों में कन्यायें दुर्मूल्य हो रही हैं। स्त्रियाँ भी चाहें तो रख लें और इस तरह २-नागपुर प्रान्तके खण्डेलवाल । वे और भी सैंकड़ों युवकोंको विवाहसे गत वर्ष नागपुर प्रान्तीय खण्डेलवाल वंचित रक्खें। जैनसभाके मन्त्री श्रीयुत सेठ चेनसुखजी . बेचारे अविवाहितोंकी दशा बड़ी छावड़ाने अपने प्रान्तकी मनुष्यगणना .करुणाजनक है। न तो वे जातिमें ही बहुत ही सावधानीसे की थी और उसकी कन्यायें पाते हैं और न गैर जातिकी भोर रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी। हम अपने ही ताक सकते हैं । न उनके हककी रक्षा- पाठकोंका ध्यान उसकी नीचे लिखी हुई के लिए बहुविवाहकी और वृद्धविवाह- संख्याओंकी ओर आकर्षित करते हैं:की ही प्रथायें रोकी जा सकती हैं और न पुरुष ५६६ विधवा-विवाहकी ही उन्हें इजाज़त दी विवाहित ... ... जाती है। बस, उनके लिए केवल एक ही कुँवारे १४ वर्षके भीतरके .... १५१ मार्ग खुला है और वह यह कि किसीको कुँवारे १४ वर्षके ऊपरके ... रसोई-दारिन या नौकरानी बनाकर रख पत्नीरहित (विधुर) ... ७८ २२६ १११ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अङ्क १-४] - कुछ सामयिक बाते। . स्त्रियाँ ५०२ जायज करार दें। पहला उपाय धर्मशास्त्राविवाहितायें ... ... २२३ नुमोदित है और दूसरा अभी विवादग्रस्त कन्यायें ११ से कमकी ... १२६ है। जबतक दूसरा उपाय विवादग्रस्त है कन्यायें ११ से अधिककी ... ५ तयतक पहलेका ग्रहण कर लेने में कमसे विधवायें ... ... ... १४५ कम विचारशील स्वएडेलवालोको तो इन अंकोंसे मालूम होगा कि जहाँ हमारी समझमें कोई एतराज नहीं होना ५६६ पुरुष हैं वहाँ स्त्रियाँ केवल ५०२ हैं; चाहिए । अर्थात् स्त्रियोंकी संख्या पुरुषोंसे लगभग १२ प्रति सैंकड़े योही कम है। इसके सिवा ३-गिरजाघरोंकी षिक्री। सारी कन्याओंकी संख्या १३४ है, परन्तु जैसे हमारे यहाँ मन्दिरोंके बनानेकी कुँवारोंकी संख्या २६२ है। अर्थात् सारी धुन है वैसे ही एक समय विदेशोंमें थी। कन्याओंके ब्याहे जानेपर भी लगभग वहाँ ज़रूरत हो या नहीं, इसका खयाल १२८ कुँवारे ऐसे बच रहेंगे जिनके किये बिना, पुण्य और नाम कमानेके विवाह, उक्त प्रान्तमें, किसी तरह हो ही लिए उपासनामन्दिर या गिरजाघर बनाये नहीं सकेंगे-उनके लिए कन्यायें मिलही जाते थे, यद्यपि अब ईसाई देशों में पहले नहीं सकेंगी ! ५०२ स्त्रियों से १४५ स्त्रियाँ जैसी धर्मभावनायें नहीं रही हैं, इसलिए विधवा हैं ! यह संख्या कितनी भयानक ये उपासनामन्दिर बहुत नहीं बनते, है! सौके पीछे २० से अधिक स्त्रियाँ फिर भी जो पहले बने हुए हैं और इन विधवा हैं यदि इसमेंसे - स्त्रियाँ अधिक दिनों भी जो थोड़े बहुत बन जाते हैं, उम्रकी समझ ली जायँ तोप्रति सैकड़े:. उन्हींके मारे लोग परेशान हैं। अभी त्रियाँ तो अवश्य ही वैधव्यका असह्य लन्दन शहरसे एक खबर आई है कि दुःख भोग रही हैं। वहाँ प्रार्थनामन्दिर इतने अधिक हैं और अच्छा हो यदि खण्डेलवाल महासभा उनमें आनेवालोंकी संख्या इतनी कम भी इसी तरह समस्त खण्डेलवाल जैनियों- होती है कि उनमें से १७गिरजाघर गिरा की मनुष्य-गणना प्रकाशित करनेकी दिये जायेंगे और वह जगह २२ करोड़ व्यवस्था करे।और फिराइसके बाद विचार रुपयों में बेच दी जायगी! इस समाचारकरे कि अपनी रक्षाके लिए उसे क्या करना से पाठक समझ सकेंगे कि संसारमें अब उचित है । जातिके मसले जातीय दशा- उपयोगिता और अनुपयोगिताका खयाल पर विचार करनेसे ही हल होगे। जो कितना अधिक बढ़ गया है और धार्मिकदशा नागपुर प्रान्तीय खण्डेलवालोंकी है क्षेत्रों में भी अब उसकी घुस-पैठ किस यदि वही दशा सारी खण्डेलवाल जाति- ढंगसे हो रही है। हम लोगोंको भी इससे की है और हमारा विश्वास है कि वह कुछ सीखना चाहिए । जो लोग अंधाधुन्ध लगभग वैसी ही होगी-तो खण्डेल- मन्दिरोंकी संख्या बढ़ा रहे हैं और इसी. वालोको अपनी जातिकी और उसके को धर्मप्रभावना समझ रहे हैं, उन्हें चरित्र की रक्षा करनेके लिए हमारी राय- सावधान हो जाना चाहिए। भारतके में केवल यही उपाय शेष रह जाता है कि विचार संसारमें भी बड़े बड़े परिवर्तन हो वे या तो अन्य जातिकी कन्याओंको लेना रहे हैं। वह दिन अधिक दूर नहीं दिखप्रारम्भ कर दे और या विधवा-विवाहको लाई देता जब कि मन्दिरोंकी यह ज्यादती For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ लन्दन के समान यहाँ भी उपयोगितावादियों की नज़र में चुभने लगेगी । कुछ ऐतिहासिक बातें । [ लेखक - पं० नाथूरामजी प्रेमी । ] १. - शाकटायन और पाल्यकीर्ति । जैनहितैषी भाग १२ अंक ७-८ में हमने 'शाकटायनाचार्य के सम्बन्ध में एक लेख प्रकाशित किया था और उसमें वादिराजसूरिका पार्श्वनाथचरित्रके नीचे लिखे श्लोकके आधारसे भी यह सिद्ध किया था कि शाकटायनका ही दूसरा नाम पाल्यकीर्ति था कुतस्त्या तस्य सा शक्ति: जैनहितैषी । पाल्य कीर्तेर्महौजसः । श्रीपदश्रवणं यस्य शब्दकान्कुरुते जनान् ॥ इसका अर्थ यह है कि उस महातेजस्वी पाल्य कीर्तिकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय जिसके श्रीपदके सुनते ही लोग शाब्दिक या व्याकरणश हो जाते हैं। इसपर विचार करते हुए हमने उस लेखमें लिखा था - "अमोघ वृत्तिका प्रारम्म 'श्रीवीरममृतं ज्योतिः' आदि मंगलाचरण से होता है। वादिराजसूरि इस मंगलाचरण के 'श्री' पदपर ही लक्ष्य करके कहते हैं कि पाल्यकीर्ति या शाकटायनके शब्दानुशासनका प्रारम्भ करते ही लोग वैयाकरण हो जाते हैं । अर्थात् जो इस व्याकरणका मंगलाचरण ही सुन पाते हैं वे इसे पढ़े बिना और वैयाकरण बने बिना नहीं रहते। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि उक्त 'श्रीवीरममृतं ज्योतिः' आदि श्लोकके अथवा श्रमोधवृत्तिके कर्त्ता भी पाल्यकीर्ति (शाकटायन) ही हैं ।" 1 [भाग १५ यद्यपि हमें इस विषय में जरा भी सन्देह नहीं था कि पाल्यकीर्ति और शाकटायन एक ही हैं और इसकी पुष्टिमें हमारे लेख में और भी कई प्रमाण दिये गये हैं, परन्तु अभी हाल हीमें हमें जो प्रमाण मिला है, उससे यह बात बिलकुल निर्विवाद हो जाती है । उक्त पार्श्वनाथचरित काव्यकी श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत एक 'पंजिकाटीका' है जो यहाँके स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रन्थभण्डार में मौजूद है । श्लोक के पदोंका अर्थ इस प्रकार किया. है- “तस्य पाल्यकीर्तेः । महौजसः । श्रीपदश्रवणं । श्रिया उपलक्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणं श्राक`र्णनं ॥२५॥” इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीशुभचन्द्राचार्य भी पाल्यकीर्तिको शाकटायनसूत्रोंका कर्त्ता मानते थे और 'श्रीवीरममृतं ज्योति' श्रादि श्रमोधवृत्तिवाले मंगलाचरणके कर्त्ता भी उनके मतसे वे ही थे । २- सिद्धसेन के 'सम्मति-तर्क' पर दिगम्बराचार्यकृत टीका । पार्श्वनाथचरितके कर्त्ता वादिराजसूरिने प्राचीन कवियों को नमस्कार करते हुए लिखा है: नमः सन्मतये तस्मै भवकूप निपातिनां । सन्मतिर्विवृता येन सुखधामप्रवेशिनी ॥ २२ अर्थात् उस सम्मति नामक श्राचार्यको नमस्कार करता हूँ जिसने भवकूपमें पड़े हुए लोगोंके लिए सुखधाम में पहुँचानेवाली सन्मतिको विस्तृत किया, अर्थात् सन्मति नामक ग्रन्थ पर टीका लिखी । हमारी समझमें यह सन्मति ग्रन्थ और कोई नहीं, वही 'सम्मति' या 'सम्मति तर्क' या 'सम्मति प्रकरण' है जो श्राचार्य For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ ] सिद्धसेनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है और जिसपर श्वेताम्बराचार्य मलवादि और अभयदेव सूरिकी टीकायें हैं। इस उल्लेखसे जान पड़ता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारोंमें उस समयतक सिद्धसेनके ग्रन्थोंका प्रचार था और इतना था कि उन्होंने उनपर टीकार्ये भी लिखी थीं. इसी लिए तो हरिवंशपुराणके कर्त्ता और श्रादिपुराणके कर्त्ताने उनकी अतिशय प्रशंसा की है और उन्हें महान् तार्किक बतलाया है । पार्श्वनाथचरितके इस उल्लेखसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि हमारे ग्रन्थों में जिन सिद्धसेनका उल्लेख मिलता है वे और श्वेताम्बरोंमें जिन सिद्धसेन दिवाकर के ग्रन्थोंका प्रचार है वे दोनों एक ही हैंश्रवणवेल्गोलकी मल्लिषेण प्रशस्ति में सुमतिदेव नामक एक श्राचार्यका उल्लेख है जिन्होंने 'सुमतिसप्तक' नामका कोई ग्रन्थ बनाया था:-- कुछ ऐतिहासिक बातें । सुमतिदेवममुं स्तुत येन वः सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । परिहृतापदतत्त्वपदार्थिनां सुमतिकोटिविवर्ति भवर्तिहृत् ॥ जान पड़ता है, ये 'सुमतिदेव' और 'सम्मति टीकाके कर्त्ता 'सन्मति' एक ही होंगे । 'सन्मति' और 'सुमति' प्रायः एकार्थवाची शब्द हैं और कविगण अकसर नामोंमें भी पर्यायवाची शब्दका प्रयोग कर दिया करते हैं, जैसे 'देवसेन और 'सुरसेन' लिखा है । सम्मतिकी टीकाके कर्त्ताका नाम एक कविके लिए 'सुमति' की जगह 'सन्मति' लिखना ही विशेष श्राकर्षणीय मालूम होगा । श्रतः वादिराजने उन्हें सुमतिदेव न लिखकर 'सन्मति ही लिखा जान पड़ता है । यदि हमारा यह अनुमान ठीक है तो सुमतिदेवके बनाये हुए दो ग्रन्थ होने १०३ चाहिएँ- - एक 'सम्मति विवरण' और दूसरा 'सुमतिसप्तक' । ये दोनों ही ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। इनका पता लगाना चाहिए । ३ - शिवकोटिकी 'रत्नमाला' । श्राचार्य जिनसेनने आदिपुराणके प्रारम्भमें 'शिव कोटि' नामके एक प्राचार्यका स्मरण किया है; और उनके उल्लेखसे मालूम होता है कि सुप्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ 'भगवती आराधना' के वे कर्त्ता थेशीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयं । मोक्षमार्ग स पायान्नः शिव कोटिर्मुनीश्वरः ॥ स्वयं 'भगवती श्राराधना' ग्रन्थमें उनका नाम 'शिवार्य' दिया है । संभवतः 'शिवार्य' और 'शिवकोटि' एक ही कर्त्ताके नामके नामान्तर हैं। यद्यपि हस्तिमल्लकृत विक्रान्त कौरवीय नाटकके उल्लेख से इन नामों के विषय में कुछ सन्देह हो जाता है क्योंकि उसमें समन्तभद्रके दो शिष्य बतलाये हैं - एक 'शिवकोटि ' और दूसरे 'शिवायन' । अभी हाल हीमें हमें संपादक जैनहितैषीके प्रयत्नसे एक छोटेसे ग्रन्थकी प्राप्ति हुई है जिसका नाम 'रत्नमाला' है और जिसके कर्त्ताका नाम 'शिवकोटि" लिखा है। इसकी एक प्रति कनड़ी लिपिमें श्राराके जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद है । कुम्भोज (कोल्हापुर) के श्रीयुक्त पं० नाना रामचन्द्रनागने उसकी एक कापी भेजी है। इसके लिए हम नाग महाशयके देवनागरी लिपिमें कराकर हमारे पास अतिशय कृतज्ञ हैं । इस रत्नमालामें संस्कृतके ६७ अनुष्टुप् श्लोक हैं। मंगलाचरण इस प्रकार है : सर्वज्ञं सर्ववागीशं वीरं मारमदापहं । प्रणमामि महामोह शान्तये मुक्तताप्तये ॥ १॥ सारं यत्सर्वसारेषु वंद्यं मद्वंदितेष्वपि । अनेकान्तमयं वंदे तदर्हद्वचनं सदा || २ || For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनहितैषी। [ भाग १५ सदावदातमहिमा सदाध्यानपरायणः।। का फुटकर उपदेश है । माणिकचन्द्रसिद्धसेनमुनिजायाट्टारक पदेश्वरः ॥३॥ ग्रन्थमालामें इस ग्रन्थके प्रकाशित करनेस्वामिसमन्तभद्रो मे का विचार हो रहा है। . हनसे (ऽहर्निशं) मानसेऽनघः। ४-रविषेणका वरांगचरित । तिष्ठताजिनराजोद्य आचार्य रविषेणका इस समय केवल . च्छाशनाम्बुधि चन्द्रमा ॥४॥ पद्मचरित (पद्मपुराण) नामक ग्रन्थ ही इसके तीसरे श्लोकमें सिद्धसेन श्रा- उपलब्ध है; परन्तु हरिवंशपुराणके प्रारम्भचार्यका भी उल्लेख किया गया है। यदि के नीचे लिखे श्लोकोसे मालूम होता है सचमुच ही यह ग्रन्थ शिवकोटिका है, कि 'वरांगचरित' नामका ग्रन्थ भी उनका तो कहना होगा कि सिद्धसेनके सम्बन्धमें बनाया हुआ था। वे श्लोक ये हैं:आदिपुराण और हरिवंशपुराणके सिवाय कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्तिता । यह तीसरा प्राचीन उल्लेख है । यह उसी मूर्तिकाव्यमयीलोके रवेरिव रवः प्रिया॥३४ समयका उल्लेख है जब कि सिद्धसेन- वरांगनेव सर्वागैर्वरांगचरितार्थवाक् । . सरिक ग्रन्थोंका हमारे यहाँ प्रचार था। कस्य नोत्पादयेद्गाढ मनुरागं स्वगोचरम् ॥३५ प्रन्थके अन्तमें नीचे लिखा श्लोक है: श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उद्योतनसूरि यो नित्यं पठति श्रीमान् नागके एक प्रसिद्ध विद्वान् हो गये हैं। रत्नमालामिमांपरां। . उन्होंने 'कुवलयमाला' नामका प्राकृत स शुद्धभावनो नूनं ग्रन्थ शक संवत् ७०० में बनाकर समाप्त - शिवकोटित्वमाप्नुयात् ॥६७॥ किया है । उस ग्रन्थमें प्राचीन कवियोंकी इसका नीचे लिखा श्लोक विशेष प्रशंसा करते हुए आचार्य रविषेण और । ध्यान देने योग्य है; क्योंकि बिलकुल उनके पद्मपुराण और वरांगचरित प्रन्योंइसी प्रकारका श्लोक यशस्तिलक* चम्पू. का भी उल्लेख किया गया है:· में भी पाया है।। जेहिं कए रमणिज्जे सर्वमेवविधि नः वरंग-पउमाणचरिय वित्थारे । प्रमाणं लौकिकस्सतां । कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय रविसेणो । - यत्र न व्रत हानिः अर्थात् जिन्होंने रमणीय.वरांगचरित यात्सम्यक्त्वस्य च खण्डनं ।।६६।। और पनचरितका विस्तार किया, वे ग्रन्थमें सम्यक्त्क, अणुवत, गुणवत, रविषेण कवि किसके द्वारा श्लाघनीय या शिक्षावत, मूलगुण, प्रतिमा, आदि बातों सराहना किये जाने योग्य नहीं हैं। यत्र सम्यत्क्वहानिर्न यत्र न व्रत दूषणं । इसी ग्रन्थमें प्राकृत पउमचरिय (पनसर्व एव हि नानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यश। चरित) के कर्त्ता विमलसूरिका उल्लेख है: च ब्रिह्मसूरिके प्रतिष्ठातिलक नामक त्र वणिकाचार ग्रन्थमें जारासियं विमलंको विमलं भी इसी आशयका निम्न भोक पाया जाता है: को तारिसं लहइ अत्थं। सर्वो ऽपि लौकिकाचारी जैनानामविगहिंतः। यत्र दर्शनहानिर्न यन व्रतदूषणम् ॥ अमयमइयं च सरसं . सम्पादक। सरसंचिय पाइयं जस्स ॥ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ ] जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी। १०५ अर्थात जैसी कीर्ति विमलांक (पउम. के मोहमें बहनेवाले लेखक किस तरह चरिय) ने पाई, वैसी विमल कीर्ति कौन तिलका ताड़ बनाते हैं। पा सकता है जिसकी प्राकृत अमृतमयी इस चरितको चन्द्रय्य नामक कविऔर सरस है। ने दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी ____ यह प्रायः निश्चित है कि पद्मपुराण आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें विमलसूरिके प्राकृत पउमचरियका ही समाप्त किया है । यह कवि कर्नाटक देशकुछ विस्तृत संस्कृत अनुवाद है और के मलयनगरकी 'ब्राह्मणगली' का रहनेउद्योतनसूरिको इन दोनों ही ग्रन्थोंका वाला था । वत्सगोत्री और सूर्यवंशी परिचय था। ऐसी दशामें उन्हें यह भी ब्राह्मण बम्मणाके दो पुत्र हुए, सातप्पा मालूम होगा कि पउमचरियका ही विस्तृत हुब्ब ब्रह्मरस और विजयप्पा। विजयप्पाअनुवाद रविषेणका पद्मचरित (पद्म- के ब्रह्मरस और ब्रह्मरसके देवप्पा हुआ। पुराण) है। शायद इसी लिए उन्होंने इसी देवप्पाकी कुसुमम्मा नामक पुत्रीसे 'वरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे' पदमें कवि चन्द्रय्यका जन्म हुआ था। 'वित्थार'शब्द देकर यह व्यक्त किया है कि "कर्नाटक देशके 'कोले' नामक ग्रामपद्मचरित पउमचरियका ही विस्तार है। के माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हश्रा। ज्यो तिषियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतजैनेन्द्र व्याकरण और लाया, इस कारण उसका नाम पूज्यपाद आचार्य देवनन्दी। रक्खा गया। माधवभट्टने अपनी स्त्रीके कहनेसे जैनधर्म स्वीकार कर लिया । [ लेखक-श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी।] भट्टजीके सालेका नाम पाणिनि था। उसे (गताङ्कसे आगे।) भी उन्होंने जैनी बननेको कहा; परन्तु पूज्यपाद-चरित्र । प्रतिष्ठाके खयालसे वह जैनी न होकर - अन्य बड़े बड़े प्राचार्योंके समान मुडीगुंडग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपादकी जीवनसम्बन्धी घटनाओंसे पूज्पपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन भी हम अपरिचित हैं। उनके जाननेका हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई । गुणभट्टकोई साधन भी नहीं है। सिवाय इसके को उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुश्रा। कि वे एक समर्थ प्राचार्य थे और हमारे पूज्यपादने एक बगीचे में एक साँपके उपकारके लिए अनेक ग्रन्थ बनाकर रख मुँहमें फँसे हुए मेडकको देखा। इससे गये हैं, उनका कोई इतिहास नहीं है। उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु आगे हम कनड़ी भाषाके एक पूज्यपाद बन गये। चरितका सारांश देते हैं, जिससे उन पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे लोगोंका मनोरञ्जन अवश्य होगा, जो थे। वह पूरा न होने पाया था कि उन्होंने अपने प्रत्येक महापुरुषका जीवनचरित- अपना मरणकाल निकट पाया जान चाहे वह कैसा ही हो-पढ़नेके लिए लिया। इससे उन्होंने पूज्यपादसे जाकर उत्कण्ठित रहते हैं। विद्वान् पाठक इससे कहा कि इसे श्राप पूरा कर दीजिए । यह समझ सकेंगे कि सत्यताकी जरा भी उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया। परवा न करमेवाले और साम्प्रदायिकता- पाणिनि दुर्ध्यानषश मरकर सर्प हुए । & For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितेषी। [भाग १५ एक बार उन्होंने पूज्यपादको देखकर में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, की। मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट विश्वास रक्खो, मैं तुम्हारे व्याकरणको हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणि- बनाकर ज्योंकी त्यों कर ली। इसके बाद नि व्याकरणको पूरा कर दिया। उन्होंने अपने ग्राममें आकर समाधिपूर्वक इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अह- मरण किया ।" प्रतिष्ठालक्षण, और वैद्यक, ज्योतिष इस लेख के लिखने में हमें श्रद्धय मुनि आदिके कई ग्रन्थ रच चुके थे। जिनविजयजी और पं० बेहचरदास जीव गुणभट्टके मर जानेसे नागार्जुन अति- राजजीसे बहुत अधिक सहायता मिली शय दरिद्र हो गया । पूज्यपादने उसे है। इसलिए हम उक्त दोनों सजनोंके पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्ध प्रति कृतज्ञता प्रकट करते है । मनि महोकरनेकी विधि बतला दी। पद्मावतीने दयकी कृपासे हमको इस लेख-सम्बन्धीजो नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सामग्री प्राप्त हुई है, वह यदि न मिलती सिद्धरसकी बनस्पति बतला दी। तो यह लेख शायद ही इस रूपमे पाठको इस सिद्धरससे नागार्जुन सोना के सामने उपस्थित हो सकता। बनाने लगा । उसके गर्वका परिहार पूना-भाद्र कृष्ण ६ संवत् १६७७ वि. करनेके लिए पूज्यपादने एक मामूली बनस्पतिसे कई घड़े सिद्धरस बना दिया। नागार्जुन अब पर्वतोको सुवर्णमय बनाने परिशिष्ट । लगा, तब धरणेन्द्र-पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनाने को कहा। तदनुसार [ भगवद्वाग्वादिनीका उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्व विशेष परिचय । ] नाथकी प्रतिमा स्थापित की। __ पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप इसके प्रारम्भमें पहले लक्ष्मीरात्यन्तिलगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। की यस्य' श्रादि प्रसिद्ध मंगलाचरणका उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने श्लोक लिखा गया था। परन्तु पीछेसे साथियों से झगड़ा करके द्राविड संघकी उसपर हरताल फेर दी गई है और स्थापना की। उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका नागार्जुन अनेक मन्त्र, तन्त्र तथा लिख दी गई हैरसादि सिद्ध करके बहुत प्रसिद्ध हो ओं नमः पार्थाय। गया । एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आई त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनाद्भुतात्मा, जो गाने नाचनेमें कुशल थीं। नागार्जुन विषसमपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और एक दिन अवसर पाकर उसे श्रुतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दाग्रणीनां, मारकर और उसकी रसगुटिका लेकर परमपदपटुर्यः स श्रिये वीरदेवः ॥ चलती बनीं। अष्टवार्षिकोऽपि तथाविधमक्ताभ्यर्थपूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगा- नाप्रणुन्नः स भवनानिदं प्राह-सिद्धिरनेभ्यास करते रहे। फिर एक देवके विमान- कान्तात् । १.१.१। . . .. For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ ] इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है। पहले पत्रके ऊपर मार्जिनमें एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणोंको अप्रामाणिक ठहराया है। जैनेन्द्र व्याकरण और श्राचार्य देवनन्दी । " प्रमाणपदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीत सूत्राणि स्यात्कारवादित्र दूर त्वात्परिव्राजकादिभाषितवत् । अप्रमाणानि व कपोकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वातद्वदेव ।” इसके बाद प्रत्येक पादके अन्त और आदि में इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र पाठके भगवत्प्रणीत होनेमें कोई सन्देह बाकी न रह जाय "इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः । अनमः पार्श्वाय । स भगवानिदं प्राह ।" सर्वत्र 'नमः पावय' लिखना भी हेतुपूर्वक है । जब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान् हैं तब उनके ग्रन्थमें उनसे पहले के तीर्थंकर पार्श्वनाथको ही नमस्कार किया जा सकता है । देखिए कितनी दूरतकका विचार किया गया है । आगे अध्याय २ पाद २ के 'सहवह् चल्यापतेरि:' (६४) सूत्रपर निम्न प्रकार टिप्पणी है और इससे सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्ध हैम के अमुक सूत्रकी उपपत्ति नहीं बैठ सकती ! - " इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । 'सहवचल्यपतेरिधानकृसृजन्नमेः किर्लिट् चवत् - ङौ सासहिवावहिचाचलि - पापति, सस्त्रिचाक्रिदधिजज्ञिनेमीति सिद्धहैमसूत्रस्याऽन्याथानुपपत्तेः । सर्ववर्मपाणि न्योस्तु 'आहवर्णोपधालोपिनां किद्वेच १, आहगसहनजनः किकिनौ लिट चेति २ | १०७ इसके बाद ३-२-२२ सूत्र पर इस प्रकार टिप्पणी दी है" कथं न अच: प्राग्भरतेष्यादि । क्षेत्रादिनियापि शिक्षा विशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यामाश्विनं मासमूविवान् । मैथुनं तु भिषक्तंत्रे वाचकं मधुसर्पिषः ॥ इत्याद्यन्यथानुपपत्तरिति बोटिक तिमिरोप लक्षणम् । इसके बाद ३-४-४२ सूत्र ( स्तेयाइत्यं) पर फिर एक टिप्पणी है। देखिए - “इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । अर्हतस्तोन्त च १, सहाद्वा २, साखिवणगदूताद्यः ३, स्तेनान्नलुकू च ४, ति सिद्ध हैमसूत्रान्यथानुपपत्तेः । पाणिन्यादौ त्वात्यशदं प्रति सूत्राभावात् कथं सरस्वतीकंठाभरणं तदाप्तिः ? ऐन्द्रानुसारादतशब्दतश्चेति पश्य ।" फिर ३-४-४० सूत्र ( रात्रेः प्रभा चन्द्रस्य ) पर एक टिप्पणी है। इसमें बौटिक या दिगम्बरियोंका सत्कार किया गया है "इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेच भवति । रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य सूत्रस्य प्रक्षेपता स्फुटत्वात् । अतो *बौटिकतिमिरोपलक्षणे देवमन्दिमतां मोहः प्रक्षेपरजसापि चेत् । चिराय भवता रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य जीव्यतां ॥ पंचोत्तरः कः स्वचानासी: प्रभेदो न यस्य य: ( ? ) । १ यह 'नौटिकमततिमिसेपलक्षण' नामक कोई ग्रन्थ है और सम्भवतः इसी वाग्वादिनी के कर्ताका बनाया हुआ होगा। इसका पता लगानेकी बड़ी जरूरत है। इससे दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्बन्धी अनेक बातों पर प्रकाश पड़ेगा। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विस्मयो रमयेः शिष्ट्या स्वस्ति तत्प्रवचनसुधासमुद्रलहरीस्नायिभ्यो सतं चेहेवनन्दिनमिति ॥ महामुनिभ्यः । परिसमाप्तं च जैनेन्द्रं नाम विक्रमातुखयुगाब्दे ४०६ देवनन्दी, महाव्याकरणं । तदिदं यत्स्वयं श्रीवीर. ततो गुणनंदि कुमानंदि-लोकचन्द्रानंतरं प्रभुमघोने पृच्छते प्रकाशयांचकार । सपामुनिरैयुगाब्दे प्रथमः प्रभाचन्द्र इति दलक्षव्याख्यानकपरमतमदांधकारापहार• बौटिके।" परममिति । नमः श्रीमञ्चरमपरमेश्वस्पाद. इसी तरह ४-३-७ (वेत्ते सिद्धसेनस्य) प्रसादविशदस्याद्वादन यसमुपासनगुणकोसूत्र पर लिखा है टिमत्कौटिकगणाविर्भूतचिद्विभूतिविमलम___"वेत्तेः सिद्धसेनस्य चतुष्टयं समन्त द्रचांद्रकुलविपुलबृहत्तपोनिगमनिर्गतनागपु. भद्रस्य प्रक्षोपोऽर्वाच्यता स्फुटत्वात् , रात्रेः रीयस्वच्छगच्छसमुत्थमुत्पविपार्श्वचंद्रशाप्रभाचन्द्रस्य वदिति बौटिकतिमिरोप- खासुखाकृतसुकृतिवररामेंदूपाध्यायचारुच.. नक्षणे।" रणारविंदरजोराजीमधुकरानुकरवाचकपदअन्तमें ५-४-६५ (शश्छोमि) सूत्रपर वीपवित्रिताक्षयचंद्रवरणेभ्यः ससुधी रक्तएक टिप्पणी दी है जिसमें पाणिनि आदि चंद्रम् । श्रीवीरात् २२६७ विक्रमनृपात्तु वैवाकरणोंकीप्रसर्वज्ञता सिद्ध की गई है- सं. १७९७ फाल्गुनसित्त्रयोदशीभौमे तक्ष"प्रयोगाशातना माभूदनादिसिद्धा.हि । ___ काख्यपुरस्थेन रत्नर्षिणा दर्शनपावित्र्याय प्रयोगाः । ज्ञानिना तु केवलं ते प्रकाश्यंते लिखितं चिरं नंद्यात् ।" । न तु क्रियंस इति । अतएव शश्छोटीति ग्रन्थके पहले पत्रकी खाली पीठपर पाणिनीयसूत्रं वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वर- भी कुछ टिप्पणियाँ हैं और उनमें अधियवरपरः शकारश्छकारं नवेति सर्ववर्म- कांश वे ही हैं जो ऊपर दी जा चुकी हैं । कर्तृककालापकसूत्रानुसारि । अतएव शेष इस प्रकार हैं:पाणिन्यादयोऽसर्वज्ञा इति सिद्धं । अतएव ओं नमः पार्थाय । तेषां तत्त्वत आप्तत्वाभाव इति सिद्धिः । जैनेन्द्रमैन्द्रतः सिद्धहैमतो जयहेमवत् ।। मन्भ्यः प्रभृतिनिसूत्रे निर्जरसैमुख्या यदि प्रकृत्यंतरदूरत्वामान्यतामेतुमर्हति ॥ युक्तिस्ते मस्कारणैव भवत्कृतमास्ते न तु कथं सारस्वतवाग्देव्या । शश्छोटिप्रमुखैः सूत्र- इंद्रश्चंद्रः कशिकृस्नापिशली शाकटायनः । स्तच्छश्रुप्रभृतिपदादर्शी कालापाद्युपजीवी पाणिन्यमरजिनेंद्रा जयंत्यष्टा हि शाब्दिकाः ।। पाणिनिरजिनत्वं प्रति नाव्यक्तः ।” इति ? चतुर्थी तद्धितानुपलक्षणात् । ___ जहाँ सूत्रपाठ समाप्त होता है वहाँ यदिंद्राय जिनेंद्रेण कौमारेपि निरूपितं । लिखा है ऐंद्र जैनेंद्रमिति तत्प्राहुः शब्दानुशासनं ॥ इत्याख्यद्भगवानईन्श्रुत्वेन्द्रस्तु मुदं वहन् । यदावश्यकनियुक्ति:बादिवकाब्जचन्द्रःस्वमंदिराभिमुखोऽभवत्।। अह तं अम्मापिअरो आगे ग्रन्थ प्रशस्ति देखिए जाणित्ता अहियअहवासं.तु । "ओं नमः सकलकलाकौशलपेशल. कयकोउअलंकारं । शीलशालिने पाश्र्वाय पार्श्वपाश्र्वाय । लेहायरिअस उवणिंति ॥ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म कांग्रेस। सको अ तस्समक्खं भयवंत इति बौटिकमततिमिरोपलक्षणम्य न. आसणे निवेसित्ता। ऽवकाशे इंद्रजिनेंद्रौ प्रत्युत्तरिणौ यदतोडे. सदस्सलक्खणं पुच्छे टातीद्धततस्त्वमसिमिबिड्ढौरयम,द्रं जैनेंद्रं वागरणं अवयवा इंदं ॥इति॥ . व्याकरणानां । सिद्धिमनकांतादिच्छों अ:x तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः। कxपाई त्यतथारीते हैमागीकृतवर्मन्प्रक्षेततश्चन्द्रं व्याकरणं संजातमिति हरिभद्रः ॥ पार्यविजेयचिरंजीया इति प्रसन्न चंद्रोत्पले (?) यत्तु देवनंदिबौटिकंपूज्यपाद इतीच्छंतस्तद्गुरुकाः पूज्यपादस्य लक्षणं। द्विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । - कोग्रेम। इति धनंजयकोषात्तदयुक्तं । नेति चेत्कथंजैनेंद्रमिति । द्वादशस्वरमध्यामति चेन्न । महात्मा गांधीका लेख । इतरोपपदस्याभावात् । जैनकुमारसंभववद्ग- नागपुरकी कांग्रेस हो गई । उसके तिरिति चेन्न । कुमारवदिंद्र प्रति श्लेषाभा- विषयमें महात्मा गांधीका जो संक्षिप्त वात् थारीतिकततद्धितभावाच्च । तर्हि लेख 'यंग इण्डिया' में प्रकाशित हुआ है, लक्ष्मीरात्यंतिकी यस्य निरवशावभासने। . उसे हम अपने पाठकों के अवलोकनार्थ. देवनंदितपो नमस्तसम्वन भारतमित्रसे, उद्धृत करते हैं: ___"सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण, कांग्रेस का गतिरिति चेत् । भारतमें हो गई । इसमें वर्तमान शासनलक्ष्मीरात्यंतिकीपद्यनुपज्ञेशस्य किंतरां। पद्धतिके विरुद्ध जैसा बड़ा प्रदर्शन हुआ ऐंद्रत्वयकि तत्त्वार्थे मोक्षमार्गस्य पद्यवत् ।।. वैसा पहले कभी नहीं हुआ। सभापतिने मिवादयश्चत्प्रथमं यदि है मेत्वपक्ष्यते । यह बात सोलह आने ठीक कही कि इस कालापकादि न तथा पदवैन्द्र महते कृतिः॥ कांग्रेसमें अध्यक्ष तथा नेता लोगोंको नहीं पूर्वत्र । मिप् वस् मस् १ सिप् थस् चलाते बल्कि लोग ही उन्हें चला रहे थ २ तिप तस् झि३ इड वहि महि १ थस हैं। कांग्रेस मञ्चपर प्रत्येक सजनको यह आथां ध्वं २ त आताम् झङ् ३ इति । स्पष्ट हो गया कि अब जनताने देशकी . आख्यातरीतिं प्रति देवराजे बागडोर अपने हाथमे ले ली है। नेता बड़ी खुशीसे धीरे धीरे चल सकते हैं। मिब्वस्मसो यः पितः रादितोदाः । । कांग्रेसने अपने उद्देश्यके विषयके वाद.. जीवं प्रपन्नाहममात्थ विश्व विवाद में एक दिन लगाया. जनताने बडी तत्त्वादिमं स्वां मतिमात्मनाथं ॥ दृढतासे उसे पास किया, सिर्फ दो महातर्हि सिद्धसेनांदिविशेषोपि दुर्निवार इति चेन्न शय विरोधी थे। असहयोग प्रस्तावमें जातामात्रोपि चिद्वीय प्रत्यात्मशरो सि यः। भी एक दिन लगाया गया और यह बड़े जनता का वराकीय परात्मन् वीर तत्पुर। उत्साहसे पास किया गया। अन्तिम दिन - कांग्रेसने संघटनाकी शेष ३२ धाराओं में - इसके आगे ४-३-७ सत्रको टिप्पणी जैसा ही लिखा है और फिर ३-४-४० सूत्रकी टिप्पणीके 'देव लगाया। मौ० मुहम्मद अलीने बुलन्द . नन्दिमतां' आदि दोनोक दिये हैं। आवाजमें इनका अनुवादकर लोगोंको * इसके आगे ५-४-६५ सूत्रकी टिप्पणी दी है ॥ समझाया । जनता बड़े ध्यानसे सब बातें For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सुन रही थी क्योंकि जब धारा : श्राई जिसमें लिखा था कि कांग्रेस देशी रजवाड़ों के भीतरी मामलोंमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती, तब उसमें मतभेद पाया गया । कांग्रेस उस अवस्थामें मन्तव्य नहीं पास करती जब वह समझती कि देशी रियासतों का प्रतिनिधित्व हम नहीं कर सकतीं । श्रानन्दकी बात है कि देशी राज्यों में उत्तरदायित्व पूर्ण शासन स्थापित करनेका प्रस्ताव सुझाया गया जिससे मैं लोगोंको यह बता सका कि वादग्रस्त धाराका यह अभिप्राय नहीं है कि कांग्रेस देशी रजवाड़ोंकी प्रजाकी शिकायतों और अभिलाषाका पक्ष न ले । बात असल यह है कि वह इस विषय में कोई काररवाई नहीं कर सकती; अर्थात् कार्य से देशी नरेशके विरुद्ध शत्रुभाव उत्पन्न नहीं कर तीर्थों के झगड़ों को निबटाने का सकती। कांग्रेस सरकारपर श्रादेश करना वाहती है, पर देशी भूपतियोंपर नहीं । इस प्रकार खूब सोच विचार के बाद कांग्रेसने तीन बातें स्थिर की हैं। पहले पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने की बात हो सके तो अब भी ब्रिटिश सम्बन्धके साथ और नहीं तो उससे बाहर भी । ऐसा स्वराज्य प्राप्त करनेका ढंग सम्मानजनक और शान्तिपूर्ण रक्खा गया है जिससे प्रतिनिधियोंकी संख्या घटाकर हर पचास हजार मनुष्य पीछे एक प्रतिनिधि ही लेनेका निश्चय किया है और इस बातपर जोर दिया है कि प्रतिनिधि जनताके सच्चे प्रतिनिधि हों। नागपुरकी कांग्रेसने कलकत्तेकी स्पेशल कांग्रेस के असहयोग प्रस्तावका समर्थनकर उसे हर तरह से स्पष्ट कर दिया है । शान्तिका पालन करनेपर जोर देकर कांग्रेसने बताया है कि स्वराज्य प्राप्ति के लिए भारत के भिन्न भिन्न समाजोंमें मेल अवश्य रखना चाहिए और इसलिए हिन्दू मुसलमानोंकी जैनहितैषी । [ भाग १५ एकताका उपदेश दिया है। हिन्दू नेताओंसे अनुरोध किया गया है कि ब्राह्मणब्राह्मणके झगड़ों को श्रापसमें निपटा लें और धर्माचार्यों से यह कहें कि वे अछूतों को समाजमें मिलाने की चेष्टा करें। कांग्रेसने छात्रों के माता-पिताओं तथा वकीलोंसे कहा है कि वे राष्ट्रकी पुकार सुननेकी - और अधिक चेष्टा करें। सरकारी या सरकारसे सहायता पानेवाले स्कूलकालेज और वकालत छोड़नेका उनकी श्रोरसे अधिक प्रयत्न न होगा तो वे देशके सार्वजनिक जीवनले च्युत हो जायँगे । देशकी पुकार है कि प्रत्येक भारतीय पुरुष या स्त्री अपना काम पूरा करे ।" उपाय | धर्मको पहचानो । ( ले० पं० श्रसुखलाल जी शास्त्री, श्वेताम्बर । ) इतिहास तथा व्यवहार कहता है कि मनुष्य अनेक काम ऐसे करता है कि जिनमें नाम तो धर्मका होता है पर धर्मकी मात्रा उनमें बहुत कम रहती है, या बिलकुल ही नहीं रहती । तीर्थ-रक्षणका कार्य अवश्य धर्मका साधन माना जाता है, पर इसमें भी जब अज्ञान तथा कदाग्रहका योग हो जाता है तब वह धर्मका साधन होनेके बदले श्रधर्मका पोषक बन जाता है । जैन समाज धर्मप्रियसमाज होकर भी कई सालोंसे अपना स्वरूप व कर्त्तव्य भूल जानेके कारण श्रधर्मकी राह चलता हुआ नजर आता है। और समय, शक्ति तथा धनको परिणामशून्य झगड़ोंमें लगाकर, शत्रुताका भाव बढ़ाकर भाई For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४] तीर्थोके झगड़ोंको निबटानेका उपाय । भाईसे अलग हो रहा है। इस समाजके समभाव और श्रादरकी बात कहीं नजर प्रधानतया श्वेताम्बर, दिगम्बर दो फिरके नहीं पातीं, दो भाइयोंके जीवनकी धारायें हैं। ये दोनों एक दूसरेके समान होते भले ही भिन्न मार्गसे बहें, इसमें कोई अचहुए भी, साहित्य, प्राचार, और विचारमें रज नहीं, पर जब दोनोंका बहाव एक अपनी खास विशेषता रखते हैं । भगवान् दूसरेके विरुद्ध हो तब अवश्य खेद होगा। महाबीरके प्राचार व विचारको अनेक हम देखते हैं कि ये दोनों अभी पारस्पअंशोंमें सुरक्षित रखनेका गौरव श्वेता- रिक शत्रुभावसे प्रेरित हैं । अन्य ऐसे म्बर और दिगम्बर दोनोंसम्प्रदायोको प्राप्त धार्मिक विषय बहुत कम हैं जिनमें दोनों है। ये दोनों सम्प्रदाय मूर्तिको संसार- सम्प्रदायवालों को एकत्र होनेका और तरणका साधन मानते हैं और इसी भाव- मेलजोल बढ़ानेका तथा एक दूसरेकी से पूजते हैं, इसलिये प्रसिद्ध तीर्थोपर विशेषता जानकर प्रमुदित होनेका अवइन दोनोंका स्वत्व है। इसके विरुद्ध जैन सर मिलता हो; किन्तु उन पवित्र तीर्थ होते हुए भी मूर्तिकी प्रतिष्ठा न करनेवाले स्थानों पर विशेष हकके बहाने, विशेष स्थानकवासी सम्प्रदायका तीर्थोपर हकके नामपर दोनों सम्प्रदायवाले अपने स्वत्व नहीं है । इतना ही नहीं, बल्कि वह कषायका जहर भयंकर रीतिसे उगल रहे सम्प्रदाय सब तीर्थों को सर्वथा दिये हैं। यह काम जैनत्वकी रक्षाके लिये हो जाने पर भी लेनेसे इनकार ही करेगा, रहा है, यह और भी लांछनकी बात है! क्योंकि उनपर उसकी श्रद्धा नहीं। इस इस अशानजनित आवेशमें आकर दोनों तरह देखा जाय तो, चाहे उपासनाव सम्प्रदायोंने अपने सर्वस्वका हानिकारक विधिविधान दोनों सम्प्रदायोंमें कितने उपयोग अबतक किया । जैन जैसा ही भिन्न क्यों न हों पर हैं ये दोनों परस्पर व्यापारी समाज जिसको अपने धन्धेसे सहोदर भ्राता, क्योंकि मूर्ति कल्याणका धार्मिक कामके लिये फुरसत बहुत कम साधन है. इस तात्त्विक भावको दोनों ने मिलती है, जिसमें समाजकी भलाईके हदयसे अपनाया है और इसलिये दोनों लिये बुद्धिका विशेष प्रयोग करनेवाले सम्प्रदायोंके विद्वान् श्रीमानोने, अपने बहुत कम पाये जाते हैं, और जिसमें अपने कर्तव्यका चिरकालसे पालन किया कौड़ी कौड़ीका हिसाब गिनकरधन संचय है। इस कर्तव्यका पालन करते हुए दोनों करनेवालों की ही तादाद बड़ी है, उसने सम्प्रदायोंमें दुर्भाग्यवश ऐसी नासमझी, अपने समय, अपनी बुद्धि और अपने धनऐसी असहिष्णुता घुस पड़ी कि जिसके को साधारण लाभदायक कार्यमें तथा कारण दोनों स्वाभाविक भ्रातृभाव भूलकर समभाववर्धक कार्यमें उतना नहीं लगाया एक दूसरेको विरोधी भावसे देखने लगे। जितना कि विरोध बढ़ानेमें । दोनों दोनों सम्प्रदायवाले अपने कषायजय रूप सम्प्रदायवाले यह जानते हैं कि, अदालते पैतृक नैसर्गिक जैनत्वको छोड़कर व विदेशीय सत्ताके केन्द्र हैं। समय, बुद्धि भावतीर्थको भूलकर द्रव्यतीर्थके जयरूप और धननाशक प्रधान यन्त्र हैं। और स्थूल जैनत्वके सम्पादनमें अपनी द्रव्य- व्यय किया हुश्रा द्रव्य जैनभावसे विरुद्ध शक्तिका व्यय करने लग गये । इसी कारण मार्गमें अर्थात् हिंसाके पोषणमें जा रहा इन दोनों सम्प्रदायोंका व्यवहार कषाय- है, तब भी धर्मभावनाके नशेमें वे नहीं कालिमासे कलङ्कित है । परस्पर मेल, सम्हलते। कभी एक जीता व दुसरा हारा For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनहितैषी। भाग 1 और कभी दूसरा जीता व पहला हारा; गांधीको सरपंच करनेकी बात छेड़ी है। पर आजतक न कभी किसी एककी जीत हिन्दुस्थानमें क्या सारी दुनियामें महात्मा • ही जीत हुई और न दूसरे की हार ही गांधीसे बढ़कर कोई समभावशील इस हार । जिस समय अधिकारी जिसके समय न सुना गया। यह तो स्पष्ट बात लिए अधिक अनुकूल हुए और जिसने है कि अदालतके पेट भरे और मुलाहिजाउनकी अधिक पूजा की उस समय वे वाले अधिकारियोंका निर्णय हमारे ऊपर उसीपर तुष्ट हुए, दूसरे समय दूसपर। उतना असर नहीं डाल सकता जितना इस तरह दोनों सम्प्रदायोंकी मुकदमे- कि असर म. गांधीका किया हुश्रा निर्णय बाजीके नतीजेका चक्र अस्तोदयरूपमें डाल सकता है। अगर हम ऐसे महात्माचलता ही रहा है और हारनेवाला सम्प्र. से फायदा न उठा सके तो फिर यह भी दाय फिर जीतनेकी आशासे भरसक समझ लेना चाहिए कि हमारी बुद्धि दौड़ लगा रहा है। यही आजतकका दोनों इतनी मारी गई है कि न हम भगवानकी सम्प्रदायोंके तीर्थरक्षणका इतिहास है । मूर्तिसे ही फायदा उठा सकते हैं, न तीर्थक्या कलह करनेके सिवाय समाधानीके से और न शास्त्रसे ही। हमको अपने साथ तीर्थरक्षणका कोई मार्ग ही नहीं हितकी सच्ची दिशा मालूम कर लेनी निकल सकता? निकल सकता है, पर चाहिए, और उदारतापूर्वक आपसकेसमअज्ञानका प्रावरण और हठका जहर ऐसी झौतेके लिए यत्न करना चाहिए। इसमें चीजें हैं कि मनष्यको सत्य वस्तका बोध त्यागकी भावना जरूर रखनी चाहिए। नहीं होने देती। अब और देशों के साथ अपना थोड़ासा हक चला जाय तो उसे साथ हिन्दुस्तानमें भी स्वावलम्बी होकर भाईके हाथमें गया हुआ समझकर उसी हिताहितके निर्णय करने का भाव उदित तरह सन्तोष मानना चाहिए जिस तरह : हो रहा है और अपनी शक्तिका वृथा एक भाई दूसरेको कोई चीज इच्छापूर्वक व्यय न करके उसको एकान्त हितकारी देकर सन्तोष मानता है । मैं त्यागभावना. काममें लगानेका भाव भी प्रकट होने को सामने रखकर दोनों सम्प्रदायोंके लगा है। जैनसमाजको भी इस पवित्र भाइयोंसे सविनय प्रार्थना करता हूँ कि भावसे वश्चित न रहना चाहिए और इस वे इस काल-लब्धिको, सत्यधर्मको पहतरह अहिंसा भावकी रक्षा करके सच्चे चाने और प्रस्तुत प्रस्तावको एक आवाज. जैनत्वका परिचय देकर समय, बुद्धि से मंजूर कर लें। (अहिंसा।) तथा धनको विद्या व चरित्रकी वृद्धि में लगाना चाहिए । यह काम आपसमें समझौता कर लेनेसे ही हो सकता है । इसके लिए पहले भी कुछ लोगोंने प्रयत्न किया था जो दुर्भाग्यवश निष्फल हुआ था। पर अब देशके कोने कोने में और कालके अंशमें एकताकी गूंज सुनाई दे रही है। खुशीकी बात है कि अहिंसा पत्र में श्रीयुत शाना. मन्दजी वर्णीने तीर्थोके झगड़ों को आपसमें निपटानेका प्रस्ताव किया है और महात्मा For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त दिगम्बर जैन पंचोंसे अपील । विजय किस पक्षकी होगी, इस बातका समस्त दिगम्बर जैन पंचोंसे पूरा पूरा भविष्य वर्तमानमें बतलाना असम्भव है। मुकदमेबाज़ीमें दोनों पक्ष अपील। सदाके लिए पराजित ही हो जाते हैं। आज जो पक्ष विजयकी कामनामें खुश प्रिय महानुभावो, धर्मस्नेहपूर्वक जय है कल वही पक्ष कोर्ट में जाकर पराजित जिनेन्द्र। हो जाता है और जो पक्ष आज पराजित ' आपको भारतवर्षीय दिगम्बर जैन है कल वही विजयसे खुश हो जाता है। तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा यह तो विदित होही सरकारी कोटोंमें सदैव सत्यकी ही विजय चुका होगा, कि प्रसिद्ध परमपूज्य तीर्थ या अत्याचारका परिहार हो, ऐसा नहीं राज श्रीसम्मेदशिखरके सम्बन्धमें अाज है; बल्कि कभी कभी इससे विपरीत भी कितने ही वर्षोंसे हमारे और श्वेताम्बरी हुआ करता है-असत्य सत्य और सत्य भाइयोंके दरम्यान कोटोंमें झगड़े चल असत्य हो जाया करता है। इसके अतिरहे हैं जिनमें दोनों पक्षकी ओरसे लाखों रिक्त, फैसला होनेके बाद धनकी बर्बादीके रुपये बर्बाद हो चुके फिर भी उक्त झगड़े- कारण दोनों जयपराजय-पक्ष वास्तवमें का अन्त होने में नहीं आया। हालमें इन्हीं मुकद्दमेबाज़ीकी पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा झगड़ोंके लिए दिगम्बर जैनसमाजकी सदैव पराजित ही बने रहते हैं। जिसमें ओरसे २० लाख रुपया एकत्र किये थोडीसी भी बुद्धि है वह विचार करनेसे जानेका प्रस्ताव पास हुश्रा है और करीब इस बातको समझ सकता है कि इन २॥ लाख रुपया एकत्र भी हो चुका है। मुकदमोंके लड़नेसे चाहे कितने ही जोरोंयद्यपि प्रत्येक समाज क्या मनुष्यमात्रको से वे क्यों न लड़ाये जावें और उनमें अपने धार्मिक स्वत्वोंकी रक्षाका अधिकार चाहे कितना ही रुपया क्यों न खर्च किया प्राप्त है और उसके लिए यत्न भी होना जावे, तीर्थोके झगड़े कभी नहीं मिटेंगे। चाहिए, तो भी एक ही धर्मपिताकी दो यदि आज एक झगड़ा मिट जायगा तो भिन्न भिन्न सन्तानोंका परस्पर इस कल कोई दूसरा खड़ा हो जायगा और 'प्रकार मुकदमेबाज़ी करना मानो जैनधर्म- परसों तीसरा । इनकी परम्परा अापसमें के पवित्र उद्देश्यको तिलांजलि देना है। निपटारा किये बिना सदैव चलती रहेगी। जोजैनधर्म परम वीतराग भावनाको प्रज्व- आजतक हमारी समाजका लाखों लित करनेवाला, मनुष्यमात्रके हृदयसे रुपया इसी मुकदमेबाजीमें बर्बाद हो द्वेष और ईर्ष्याके बीजोको जीर्ण शीर्णकर चुका तो भी अभीतक हमारी समाज मध्यस्थ वृत्तिकी जड़ जमानेवाला और सफलीभूत नहीं हुई। ऐसे कठिन समयसंसारमें सबसे उत्कृष्ट त्यागभावकी शिक्षा में जब कि देशमें जहाँ तहाँ दुर्भिक्ष पड़ देनेवाला है, उसी विश्व-पूज्य जैनधर्मके रहे हैं, लाखों निर्धन अन्नके बिना तड़प इन पवित्र उद्देश्योपर मुकद्दमेबाज़ीके द्वारा तड़पकर मर रहे हैं, बुंदेलखण्ड आदि कालिमा फेरकर अपने द्रव्यबलका अनु- प्रान्तोंमें स्वयं जैनियोंके ही बच्चे टुकड़ोंके चितव्यवहार और अपव्यय करना धार्मिक लिए मुहताज हो रहे हैं, समाजके मध्यम तथा आर्थिक दृष्टिसे पतनका ही कारण श्रेणीके गृहस्थोंके व्यवसाय वाणिज्यमें भी होगा। दूसरे मुकहमेषाज़ीके द्वारा अंतिम पहले जैसी आमदनी अब नहीं रही है, For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग १५ महँगीके कारण खर्च पहलेसे कई गुना वे किसी देशपूज्य नेताके द्वारा, जो दोनों बढ़ गया और देशसेवा, सामाजिक सम्प्रदायवालोको मान्य हो, आपसमें शिक्षा प्रचार तथा धर्मोन्नतिके लिए अग- तय करा लिये जावें, जिससे लाखों रुपये. णित धनकी आवश्यकता है, तब दिगम्बर की दोनों पक्षवालोंकी बचत हो; दूसरे जैनसमाजके बड़े बड़े श्रीमानोंके द्वारा परस्पर गले मिल जानेसे भविष्यमै भी २० लाखका चन्दा आगे मुकद्दमा लड़ने- कभी ऐसे झगड़े उपस्थित न होने पावें। के लिए एकत्र हो रहा है ! यह हमारे अतः आगे प्रीवी कौन्सिलमें मुकदमा लिए घोर अधःपतन और लजाकी बात दायर न करके आपसमें तय करानेकी नहीं तो और क्या है ! गरजसे एक डेपुटेशन अपने समाजको ओरसे श्वेताम्बर भाइयोंके पास भेजनेएक तरफ देशके परमपूज्य नेता के लिए प्रत्येक स्थानके दि. जैन पंचोको वकीलोको वकालत छोड़नेका और जन चाहिए कि वे भारतवर्षीय तीर्थक्षेत्र साधारणको अपने आपसी झगड़े पंचा- कमेटी बम्बई और भा० दि० जैन महायतों द्वारा तय करनेका उपदेश दे रहे है सभा कार्यालय बड़नगरके पतेपर अपने और हिन्दू मुसलमान सरीखे परस्पर अपने स्थानोंसे सभाओं द्वारा प्रस्ताव धर्मशत्रु आज अपने हठको त्यागकर एक पास करके भेज देनेकी महती कृपा करें। होकर गले मिल रहे हैं; और दूसरी तरफ इसी में जैनधर्म और जैनसमाजका कल्याण हम दिगम्बर जैन और श्वेताम्बर जो एक है। प्राशा है, कानपुरमें होनेवाली महाही धर्मपिताकी सन्तान हैं, एक दूसरेको सभा इस जरूरी विषयपर खास तौरपर फूटी आँख नहीं देख सकते और अपने ध्यान देगी। समाजका धन चूसकर आगे इस मुकइमेको प्रीवी कौन्सिलतक ले जानेकी दि. जैनसमाजके कृपाकांक्षी, कमर कस रहे हैं, यह बात भारतवर्षके स्थानीय सकल दि. जैन पंचान, भावी इतिहासमें दोनों समाजोंके लिए अमरावती (बरार) महान कलंकका टीका लगानेवाली अंकित की जावगी और समस्त भारतवासी हमारी मूढ़तापर शोकाश्रु बहाये बिना न रहेंगे। अतएव, महानुभावो! हमारी दिगम्बर समाजके मुखिया पंचोंसे सविनय प्रार्थना है, कि कानपूरमें होनेवाली भारतवर्षीय दि. जैन महासभाके अधिवेशनके समय इस बातका निश्चय किया जावे कि दिगम्बर समाजकी ओरसे एक सुलह संस्थापक डेपुटेशन श्वेताम्बरी मुखिः । यामोके पास इस उद्देश्यसे जावे कि भीसम्मेद शिखर तथा अन्यान्य तीर्थक्षेत्रोंके जो वर्तमान झगड़े कोटोंमें चल रहे हैं For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विविध विषय। दृष्टिसे यह प्रस्ताव बड़े महत्त्वका है । विविध विषय । और, जहाँतक हम समझते हैं, इस विषयका यह पहला ही प्रस्ताव है जो १-बहुविवाह-निषेध । किसी ऐसी बड़ी सभासे पास हुआ हो। इतने बड़े महत्त्वका प्रस्ताव सहज हीमें हाल में दिगम्बर जैन खंडेलवाल महा- पास हो गया हो, ऐसा नहीं है। इसके सभाने, अपने कलकत्तेके अधिवेशनमें पास होने में बड़े जोर लगे हैं और यह प्रस्ताव नं० के द्वारा बाल-विवाहादि बहुत कुछ वादविवादके पश्चात् पास कुरीतियोंका निषेध करते हुए, 'बहुवि- हुआ है, परन्तु अभीतक इसके सम्बन्धमें वाह' का भी निषेध किया है-अर्थात् कोई उल्लेख किसी पत्रमें हमारे देखने में एक स्त्रीके मौजूद होते हुए दूसरा विवाह नहीं आया। अतः आज हम बाबू निहाल. करानेको अनुचित ठहराया है-और करणजी सेठीके पत्र परसे इसका कुछ इसे भी "जातिको अधोदशामें पहुँचाने- परिचय अपने पाठकोको कराते हैंवाली और जातिके गौरवको घटानेवाली जिस समय बालविवाह, वृद्ध विवाह एक कुरीति" प्रतिपादन किया है । यद्यपि और कन्याविक्रय आदिके निषेधका यह यह बात किसीसे छिपी नहीं है कि बहु- प्रस्ताव सभामें उपस्थित किया गया उस विवाहका रिवाज बहुत प्राचीन समयसे समय इसमें 'बहुविवाह' शब्द नहीं थे। चला आता है-जैनियोंके कथा-ग्रन्थ अतः बाबू निहालकरणजी सेठीने खुली और उनके प्रधान पुरुषोंके अधिकांश सभामें यह प्रस्ताव किया कि इसमें 'बहुचरित्र इसके उल्लेखोसे भरे हुए हैं-फिर विवाह' शब्द और शामिल किये जावेभी खंडेलवाल महासभाका ऐसे प्राचीन अर्थात् बहुविवाहका भी बालविवाह, रिवाजके विरुद्ध इतने जोरोंके साथ वृद्धविवाह आदिकी तरह निषेध किया प्रस्ताव पास करना उसके लिये निःस- जाय । इसपर पण्डित धन्नालालजीने न्देह एक बड़े ही साहसका कार्य हुश्रा उक्त संशोधनका विरोध किया, और है। उसने अपने प्रस्तावके इस अंशके न केवल विरोध ही किया बल्कि इतनी द्वारा यह बतला दिया है कि, प्राचीन गड़बड़ मचाई कि उस गड़बड़में आप कालमें यह प्रथा भले ही अच्छी समझी बातको बिलकुल उड़ा देना ही चाहते जाती हो परन्तु आजकलकी दृष्टिसे वह थे। परन्तु इतनी खैर हुई कि जनता अच्छी नहीं है, घातक है-उसके कारण उनसे सहमत नहीं थी । यद्यपि पण्डितखंडेलवाल आति अधोदशाको जा रही जीने बहविवाहकी प्रथाकी शास्त्रोक्त है और उसका गौरव नष्ट हो रहा है। बतलाकर और धर्मकी बहुत कुछ दुहाई साथ ही उसने यह भी सूचित कर दिया देकर, बहुतेरा चाहा कि उनकी बात है कि इस किसमके रीतिरवाज हमेशा मान ली जाय परन्तु वे इस बातका कोई एक रूपमें नहीं रहा करते, वे देश-काला- जवाब न दे सके कि यदि यह प्रथा . नुसार बराबर बदला करते हैं और उन्हें पुराणों में उल्लिखित होनेसे ही मान्य है बदलने की ज़रूरत हुआ करती है; जैसा तो फिर अन्य जातिसे विवाह, म्लेच्छ कि हमने "शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण" आदिसे विवाह, निकट सम्बन्धियोसेवामके लेखमें ज़ाहिर किया था। इस यथा मामा, काका, आदिकी लड़कीसे For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ विवाह, स्वयंवर रीतिले विवाह, परदेका अभाव आदि शास्त्रोक्त बातोंको भी मान्य समझना होगा । प्रत्युत, उन्होंने अपनी पण्डिताईके भरोसे पर उपस्थित जनताको श्राश्चर्यमें डुबाते हुए यहाँतक कह डाला कि “जैनधर्म प्रत्येक गृहस्थको बाध्य करता है कि एक पुत्र अवश्य उत्पन्न करे, दत्तक पुत्र होनेपर भी श्रावश्यक है कि अपना पुत्र अवश्य पैदा करे ! यही नहीं, यदि ऋतु कालको प्राप्त स्त्रीसे उसका पति संभोग न करे तो वह भ्रणहत्याका पापी होता है और जो स्त्री ऐसे समयमें अपने पतिके पास न जावे तो वह दूसरे जन्ममें शृगाली अथवा शूकरी होती है !!” मालूम नहीं पण्डितजीको कौनसे जैन सिद्धान्तसे ऐसा अनुभव हुआ है और किस श्रार्ष ग्रन्थमें उन्हें ये सब बातें लिखी हुई मिली हैं !* परन्तु इसे रहने दीजिए और नतीजेपर श्राइये । वह यह कि, पण्डितजीके इतना कह ste पर भी जनताने उनकी बातको कुछ भी महत्त्व न देकर उसे नहीं माना और बाबू साहबका संशोधन स्वीकार करके बहुविवाहके निषेधका प्रस्ताव पास कर ही दिया । इस तरहपर यह प्रस्ताव बहुतसे विरोधको सहन करके हमारे सामने श्राया है, जिसका हम अनेक दृष्टियोंसे अभिनन्दन करते हैं । जैनहितैषी । २ - हठधरमी और पक्षपात । अनुचित दबाव । दि० जैन खंडेलवाल महासभाने, अपने कलकत्तेके अधिवेशन में, सबके * सुना जाता है कि किसीने मन्दिरजीमें एक नोटिस लगाया था और उसके द्वारा पण्डितजीसे दरियाफ़ किया था कि वे इस बातको बतलावें कि कौनसे आर्ष ग्रन्थ में यह भ्रमहत्वावाली बात लिखी है। [ भाग १५ अन्तमें जो प्रस्ताव (नं० १७) पास किया है वह इस प्रकार है "जैनहितैषी, सत्योदय और जातिप्रबोधक ये तीनों पत्र जैनागमको झूठा बतलाते हैं और हमारे परम पूज्य तीर्थकरों व श्राचायको गालियाँ तक देते हैं। अतः यह भारतवर्षीय खं० दि० जैनमहासभा प्रस्ताव करती है कि ये तीनों पत्र जैन पत्र न समझे जावें तथा इन तीनोंका बहिष्कार किया जावे ।" जैनहितैषी सहृदय पाठक अपने इस पत्रके सम्बन्धमें ऐसी झूठी और निःसार लांछनाओं को देखकर ज़रूर एकदम चौंकेंगे और श्राश्चर्यके साथ यह कहेंगे कि क्या उक्त सभामें ऐसे ही विचारशील, विवेकी और निष्पक्ष विद्वान् मौजूद थे जिन्होंने इतने अधिक सफेद झूठ को अपने प्रस्ताव में स्थान देना पसन्द किया है ? परन्तु उन्हें इस प्रकारसे चौंकने और श्राश्चर्य करनेकी ज़रूरत नहीं है । वास्तवमें, यह प्रस्ताव सभाकी शुद्ध सम्मति से पास नहीं किया गया बल्कि कुछ हठधर्मी और पक्षपाती लोगोंके अनुचित दबावका परिणाम है, जिसका रहस्य हम अपने पाठकोंके संतोषार्थ नीचे प्रकट करते हैं 1 उक्त सभाके सभापति श्रीमान् सेठ लालचन्दजी सेठीने, अपने व्याख्यानमें, समाजकी उस बहिष्कार नीतिको अनुचित और अनावश्यक बतलाते हुए जो कि कुछ सामाजिक पत्रोंके साथमें चल रही है, समाजके कुछ पत्रोंकी प्रशंसा की थी और उनमें "जैनहितैषी " को सबसे प्रथम स्थान प्रदान किया था—यह कहा था कि, "मैं वर्तमान सामाजिक पत्रोंमें "जैनहितैषी" और "जैनमित्र" की प्रशंसा किये बिना नहीं रहूँगा, जिनका सम्पादन बड़ी For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विषय। योग्यतासे किया जाता है। बल्कि जैन- सभासे प्रायः उठ चुकी थी-उसे ख़बर हितैषीके कितने ही लेख तो बड़ी खोजके भी नहीं थी कि नियम-विरुद्ध ऐसा साथ लिखे जाते हैं।" इतने पर भी प्रस्ताव भी सभामें उपस्थित होगा और सब्जेकृ कमेटी में जैनहितैषी आदिके बहि- ज्यादातर वे ही लोग सभामें बैठे हुए थे कारका उक्त प्रस्ताव रक्खा गया। परन्तु जो षड्यंत्रके कारण अपने प्रस्तावके पेश कमेटीने बहुत कुछ ऊहापोहके बाद उसे होनेकी प्रतीक्षा कर रहे थे या वे लोग थे नामंजूर किया और इसलिए वह खुली जो सामाजिक पत्रोंके पढ़ने पढ़ानेसे प्रायः सभामें पेश नहीं हो सकता था। चूँ कि कुछ सम्बन्ध नहीं रखते; इसलिए वोटके उक्त पत्रों को अजैन पत्र करार देने और समय बाब साहबकी तरफ चार पाँच उनका बहिष्कार करनेकी यह सब बात वोट ही हो सके और प्रस्ताव बहुसम्मतिकलकत्तेकी दिगम्बर जैन सभाकी ही से पास कर दिया गया। इन सब बातोंउठाई हुई अथवा ईजाद की हुई थी और का अनुभव हमें उक्त बाबू साहबके एक उसीके सदस्य तथा अनुयायीजन इस पत्रपरसे हुआ है जिसका कुछ अंश हम समय कलकत्तमें इस अधिवेशनके मूविंग अपने पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे उद्एंजिन (Moving engine) बने हुए थे। धृत करते हैंउन्होंने उक्त प्रस्तावके पास न होनेकी "जब सभाका कार्य समाप्त हो चुका हालतमें अपनी नककटी समझी। और तब सभापतिने कहा कि यद्यपि जैनहितैषी इसलिए एक षड्यंत्र रचा गया जिसके आदि पत्रोंके बहिष्कारकी बात Subject द्वारा सभापति साहबको यह धमकी दी. Committee (सब्जेकृ कमेटी) में उठी गई कि यदि यह प्रस्ताव सभामें नहीं थी किन्तु वह बहुसम्मतिसे नापास हो रक्खा जायगा तो वह लोग कोई भी कार्य गई । इस कारण वह प्रस्ताव नहीं रक्खा न करने देंगे और न सभाकी किसी कार्र- गया। किन्तु प्रायः ८० हस्ताक्षरोंका एक वाईको आगे चलने देंगे। इस षड्यंत्रका पत्र सभापतिके पास पहुँचा था जिसमें हाल सभापति साहबकी जबानी उस वक्त कहा गया था कि यदि यह प्रस्ताव न खुला जब कि सभाकी कार्रवाई प्रायः रक्खा जावेगा तो वे लोग कोई कार्य न समाप्त हो चुकी थी, रातके १२ बजे थे करने देंगे। अतः उन लोगोंको आज्ञा दी और करीब दो तिहाई जनता सभासे गई कि अब रात्रिके १२ बजे, जब सभामें उठकर चली गई थी। उस समय सभा- से दो तिहाई लोग चले गये थे, वे अपना पति साहबने, उक्त धमकी और अनुचित प्रस्ताव पेश करें। ऐसे प्रस्तावका विरोध दबावसे प्रेरित होकर और शायद यह करना मेरे लिए परम आवश्यक था और समझकर कि यदि इन लोगोंकी यह बात मैंने प्रेस ऐकृ, औरंगजेबकी असहिष्णुता न मानी गई तो कहीं सब की कराई आदि बातोंका उल्लेखकर उसका विरोध रह न हो जाय, उन लोगोंको इजाजत किया, और अन्त में यह कहा कि इन पत्रोंदी कि वे अपना प्रस्ताव अब पेश करें। पर धर्मके घातक होनेका जो लांछन उक्त प्रस्ताव उसी दम सभामें पेश किया लगाया जाता है वह वृथा है, क्योंकि गया और बाबू निहालकरण जी सेठी जैनधर्मके वास्तविक सिद्धान्तोका विरोध एम. एस. सी. ने उसका जोरोंके साथ कोई कर ही नहीं सकता। सभ्य संसारविरोध किया । चूँकि विचारशील जनता के सामने उनका मूल्य घट नहीं सकता। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनहितैषी। [भाग १५ किन्तु ( यदि ) यह सभा उस हीको धर्म पर आपको मालूम हो कि कलकत्ता समझती है जिसके अनुसार ऋतुमती पंचायतीने "सत्योदय" आदि पत्रोंका : स्त्रीके साथ उसके पतिके संयोग न करनेसे वहिष्कार न करके केवल समाजको यह भ्रणहत्याका पाप होता है तो प्रत्येक सूचना दी थी कि इनको दि० जैन पत्र न समझदार मनुष्यका कर्तव्य है कि ऐसे समझे और ऐसा जानकर न पढ़े जो धर्मका खब विरोध करे और उसकी बहत श्रावश्यक बात थी इस टिप्पणी. काटनेका भरसक प्रयत्न करे। जैन- के द्वारा ब्रह्मचारीजीने यह सचित किया हितैषी आदि ऐसा ही प्रयत्न करते हैं, है कि सेठ लालचन्दजीने कुछ पत्रोंकी अतः वे हमारी प्रशंसा और धन्यवादके जो बात अपने व्याख्यानमें कही है वह पात्र हैं। जो लोग धर्मज्ञ पण्डित कहला- गलत है। वास्तवमें सत्योदयादि पत्रोंका कर ऐसी घृणित बातोंका प्रचार करते हैं कलकत्तेकी सभा या पंचायतीने बहिष्कार वे ही सच्चे जैन धर्मके घातक हैं और नहीं किया बल्कि सिर्फ यह सूचना उन्हींका बहिष्कार उचित है। इसपर तो निकाली थी कि इन पत्रोंको जैन पत्र न पंडित जी (धन्नालाल) बहुत उछले कूदे। समझा जाय और न उस दृष्टिसे पढ़ा किन्तु सभापतिने अशांति न होने दी। जाय जिसका अभिप्राय यह था कि इन ............वोटके समय चार पाँच वोट पत्रोंको पढ़ा तो जरूर जाय परन्तु पढ़ते मेरी ओर थे।" समय मनमें यह सोच लिया जाय कि ये इससे पाठक यह समझ सकते हैं कि जैन पत्र नहीं हैं । परन्तु बात ऐसी नहीं यह प्रस्ताव कितना महत्त्व रखता है, है । कलकत्तेकी सभाने खुले शब्दों में उक्त सभाकी कितनी शुद्ध सम्मतिको लिये पत्रोंके बहिष्कारका प्रस्ताव पास किया हुए है और कितने अनुचित दबाव तथा है और उसका वह प्रस्ताव जो सेठ बेकानूनीके साथ पास कराया गया है। गम्भीरमलजी पण्ड्याके सभापतित्वमें साथ ही, यह भी मालूम कर सकते हैं पास हुआ था, एक अलग कागजपर कि कुछ लोगोंकी हठधरमी और पक्षपात- मोटे अक्षरोंमें छापा हुआ इस समय की मात्रा कितनी बढ़ी हुई है और उसके हमारे सामने मौजूद है। उसके ऊपर एक द्वारा कैसी घृणित कार्रवाई की जाकर श्रोर "पद्मावती पुरवालका क्रोडपत्र, समाजमें व्यर्थका असन्तोष और क्षोभ और दूसरी ओर “इसको मन्दिरजीमें उत्पन्न किया जा रहा है। लगा दीजिये" छपा है और नीचे समाज के व्यक्तियोंके नाम उक्त प्रस्ताव पर अमल ३-बहिष्कार नहीं, सूचना।। करनेके लिए कुछ प्रेरणात्मक वाक्य हैं । वह प्रस्ताव इस प्रकार हैब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, खंडेल- “जैनहितैषी, सत्योदय, जाति-प्रबोवाल महासभाके सभापति श्रीमान् सेठ धक ये तीनों पत्र हमारे परम पूज्य दिगलालचन्दजी सेठीके व्याख्यानके एक म्बर जैनाचार्य और उनके शास्त्रोंको झूठा अंश पर टिप्पणी करते हुए, अपने गत बतलाते हैं; अतः ऐसे उच्छंखल पत्रोंका २३ दिसम्बरके जैनमित्रमें लिखते है- कलकत्तेकी दि० जैनसमाज बहिष्कारका ___ "सफा २६ में आपने चन्द पत्रोंके प्रस्ताव करती है।" बहिस्कारको अनावश्यक बताया है । इस . इससे पाठक समझ सकते हैं कि For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भई ३-४ विविध विषय। ११४ । ब्रह्मचारीजीका यह लिखना कितना भूल- परन्तु इन सब सभाओंकी आज्ञाओंको से भरा हुआ है और उनका कितना जैन पत्रोंके सम्पादक लोग नहीं मानते। वे भोलापन प्रकट करता है। वे स्वयं भी प्रायः सभी इन पत्रोंको बराबर पढ़ा करते उक्त प्रस्ताव परसे उसका अच्छा अनु- हैं, और इसलिए उन्हें इनका बहिष्कार भव कर सकते हैं। शायद उन्हें अपने स्वीकार नहीं है। कितने ही पत्र-सम्पाउस प्रस्तावका ही खयाल हो जो केवल दक इन पत्रोंके कुछ लेखोंपर टीकासत्योदय और जाति-प्रबोधकके सम्बन्धमें टिप्पण भी किया करते हैं जिससे उनके उनके सभापतित्वमें पास हुश्रा था और पाठकोंका यह फर्ज़ (कर्तव्य) हो जाता है जिसपर हम अपने विस्तृत विचार जैन- कि वे उन टीका-टिप्पणोंकी जाँचके लिए हितैषी में प्रकट कर चुके हैं। उस प्रस्तावके इन बहिष्कृत पत्रोंके लेखोंको भी देखें बहिरंगमें, यद्यपि 'बहिष्कार' शब्द नहीं जिनपर टीका-टिप्पण किया गया है और था परन्तु वह उसके अन्तरंगमें जरूर इसलिए उन्हें ऐसे (बहिष्कृत) पत्रोंके मौजूद था और इसलिए थोड़े ही दिनोंके उन अंकोंको मँगाना पड़ता है, जिनमें वे बाद वह उक्त प्रस्तावके रूपमें प्रकट हो विवादग्रस्त लेख होते हैं. और उन्हें गयो । आशा है, ब्रह्मचारीजी इसपरसे पढ़ना पड़ता है। ऐसी हालतमें बहिष्कारअपनी भूलको सुधारनेकी कृपा करेंगे। का कुछ भी अर्थ नहीं रहता; सभी जैनऔर चूँकि आपको इन पत्रोंका बहिष्कार पत्रोंके विचारशील पाठकों के पढ़ने में ये इष्ट नहीं है, इसलिए आप उदारताके (बहिष्कृत) पत्र आ जाते हैं। साथ खुले शब्दोंमें अपने मन्तव्यानुसार नीचे हम कुछ ऐसे पत्रों का परिचय जैनमित्रमें यह उद्घोषित करेंगे कि “इन अपने पाठकों को कराते हैं जिनके सम्पापत्रोंको पढ़ना ज़रूर चाहिए, परन्तु पढ़ते त दकोंको यह बहिष्कार स्वीकार नहीं हैसमय यह खयाल रखना चाहिए कि ये जैन पत्र नहीं हैं।" १ हिन्दी जैनगजट-इस पत्रकेसम्पा दक, पं० रघुनाथदासजी 'सत्योदय के .४-जैन पत्र-संपादकोंको बहिष्कार लेखोंपर बराबर अपने विचार लिखा करते हैं। हाल हीमें ३ जनवरीके अंकमें . स्वीकार नहीं। भी आपने 'ज्योतिषचक्र वा खगोल विद्या' शीर्षकके नीचे सत्योदयके एक लेख पर कलकत्तेकी दिगम्बर जैन सभाने अपने विचार प्रकट किये हैं। जैनहितैषी'सत्योदय' और 'जैनहितैषी' आदि कुछ पर भी आपकी कृपा बनी रहती है, पद्मापत्रोंका बहिष्कार किया था और पंचा- वती पुरवालके गतांक नं. ७ में आपने यतोके नाम आज्ञाएँ तक जारी की थी कि उसके दो नोटोंपर दो लेख प्रकाशित कोई भी भाई इन पत्रोंको न पढ़े और कराये हैं । जैनहितैषीके और भी कुछ न खरीदे। हालमें दि० जैन खंडेलवाल लेखोंपर आपकी टिप्पणियाँ निकली हैं। महासभाने भी इन पत्रोंके बहिष्कारका इससे आप इन दोनोंको पढ़ते हैं और प्रस्ताव पास किया है । और भी कुछ आपने इनका बहिष्कार नहीं किया, यह लोकल सभाएँ, एक दूसरेकी देखादेखी, साफ जाहिर है । यह दूसरी बात है कि इस किसमके प्रस्ताव पास कर चुकी हैं। आप शब्दों द्वारा बहिष्कारका अनुमोदन For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: १२० जैनहितैषी। [भाग,१५ । और समर्थन किया करते हैं लेकिन स्वयं काट किया तो उसकी बुद्धिकी व्यंगपूर्ण आपका उसपर अमल नहीं है और इस- हँसी उड़ाई थी। इससे इस पत्रके संपालिए आपके पाठकोपर भी उसका कुछ दक महाशय उक्त बहिष्कारके विरोधी हैं असर नहीं हो सकता, वह केवल कहने और इन पत्रोंको बराबर पढ़ा करते हैं, सुनने हीकी बात रह जाती है। यह स्पष्ट है । हालमें आपका एक पत्र . २ जैनमार्तण्ड-इस पत्रके सम्पादक- . .भी जैनहितैषीकी प्रशंसामें हमारे पास ने अपने गतांक नं० १२ में जैनहितैषीके श्राया है। "विक्रीत देह' वाले नोटपर अपने विचार . ७ जैनप्रदीप-इस पत्रके सम्पादक लिखे थे, जिससे मालूम होता है कि श्राप ला० ज्योतिप्रसादजी भी पत्रोंकी इस जैनहितैषाको पढ़ते हैं और जैनहितैषी बहिष्कार-नीतिके बिलकुल विरुद्ध हैं आपके पास परिवर्तनमें जाता है। और आप जैनहितैषी आदि सभी पत्रोंको आपने उसका बहिष्कार नहीं किया। विचार दृष्टिसे पढ़ा करते हैं। ... . ३ पद्मावतीपुरवाल-इसके सम्पा- जैनहितेच्छु-इस पत्रके सम्पादक . दक महाशय भी जैनहितैषीको पढ़ते हैं श्रीयुत वाडीलाल मोतीलालजी शाह और उसे अपने पत्रके परिवर्तनमें मँगाते जैनहितैषीको बराबर बड़े प्रेमके साथ हैं। हालके अपने अंक (नं० ) में उन्होंने पढ़ा करते हैं और आपने इस पत्रके जैनहितैषीके गतांकमें प्रकाशित बाबू स सम्बन्धमें अपने गहरे विचार प्रकट किये निहालकरणजी सेठीवाले लेखपर अपने हैं। इसी तरह श्राप सत्योदय आदिको कुछ विचार प्रकट किये हैं। इससे स्पष्ट भी पढ़ते हैं । (आपने २५०) रुपयेके है कि उन्होंने भी बहिष्कार नहीं किया। इनामका एक नोटिस भी निकाला है जो , उस लेखकको दिया जायगा जो कलकत्ता ४ जैनसिद्धान्त-यह जैनशास्त्रपरि सभाकी कार्ररवाईको न्यायपुरस्सर और पटका मखपत्र है। इसके सम्पादक जैनद्रितैषी आदि पत्रोको 'अजैन सिद्ध महाशय भी जैनहितैषीको पढ़ते हैं। कर दे और जिसका लेख पाँच निष्पक्ष उन्होंने अपने हालके अंकमें ही जैनहितैषी विद्वानों की कमेटीसे पास हो जाय । 'पर अपने विचार प्रकट किये है। . आपकी रायमें कलकत्ता सभाकी कार से ५ जैनमित्र-इस पत्रके सम्पादक रवाई बिलकुल अन्यायपूर्ण और नासमब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी जैनहितैषीको झीका परिणाम है और इसलिए आपने •बराबर पढ़ते हैं। आपको बहिष्कार मान्य इस बातकी जाँचके लिए कमसे कम एक ही नहीं है, ऐसा आपने सेठ लालचन्दजी सालके लिए इन पत्रोंके ग्राहक होनेकी के व्याख्यानकी आलोचना करते हुए, सबको प्रेरणा की है। जैनमित्रके गत २३ दिसम्बरके अंकमें इसी तरह और भी कितने ही जैनसूचित किया है। पत्र हैं जिनके सम्पादक इन बहिष्कृत . ६ जैसवाल जैन-इसके संपादक पत्रोंको, खासकर जैनहितैषीको बराबर श्रीयुत महेंद्र जीने कलकत्ता सभाकी पढ़ते हैं। जब पत्र-सम्पादकोंको ही यह कार्रवाईको अनुचित बतलाया था और बहिष्कार स्वीकार नहीं है, जिनके हाथमें जब बादको उसने जैनहितैषीका भी बाय- समाजकी बहुत कुछ बागडोर रहती है For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विषय | अङ्क ३-४ ] और जो समाज के एक प्रकार के नेता होते हैं, तब फिर उनके पाठकोंको ही वह कैसे स्वीकार हो सकता है और वे कैसे उसको स्वीकार करनेके लिए बाध्य किये जा सकते हैं - कम से कम टीका टिप्पणि होनेपर उन्हें इन पत्रको देखना अवश्य चाहिए। यह नहीं हो सकता कि एक तरफ तो विचारनेके लिए कहा जाय और दूसरी तरफ विचारका दर्वाजा अथवा मार्ग बन्द कर दिया जाय। ऐसी हालत बहिष्कारका यह सब श्रायोजन बिलकुल थोथा और निःसार जान पड़ता है। यही वजह है कि पत्रसम्पादकों तथा दूसरे विद्वानोंने-कितने ही ऐसे विद्वानों ने भी जो बहिष्कार के प्रस्तावका अनुमोदन अथवा समर्थन कर चुके हैं—उसे ग्रहण नहीं किया। हमारे खयालमें जो लोग इस बहिष्कारके पक्षपाती हैं—उसका अनुमोदन और समर्थन करते हैं— उन्हें स्वयं अपने विषयमें प्रामाणिक होना चाहिए और तब दूसरोंको उसपर श्रमल करनेके लिए कहना चाहिए। श्रन्यथा खुले दिलसे इस घातक नीतिका विरोध करना चाहिए और सबको स्वतन्त्रताके साथ विचारने तथा समझनेका अवसर देना चाहिए । ५- प्राकृत भाषाको उत्तेजन । गत दिसम्बर मासमें स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीका वार्षिकोत्सव प्रो० ध्रुवके सभापतित्वमें सानन्द समाप्त हो गया। ध्रुव महाशयका व्याख्यान बहुत कुछ महत्वपूर्ण हुआ । इस अवसर पर हमारे मित्र श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी भी पधारे थे । आपका भी देरतक महत्वपूर्ण व्याख्यान हुआ और उसमें आपने विद्यार्थियोंको अनेक अच्छी और उपयोगी - १२१ शिक्षाएँ दी । श्रापने विद्यार्थियोंको प्राकृत भाषा पढ़ने की खास तौर से प्रेरणा की और न केवल प्रेरणा ही की बल्कि १०१) रुपयेका पारितोषिक, अपनी दुकानकी ओोरसे, उस विद्यार्थीको देना स्वीकार किया जो प्राकृत भाषा पढ़कर उसमें उसीर्णता प्राप्त करे । प्रेमीजीका यह कार्य निःसन्देह प्रशंसनीय है जो उन्होंने दिगम्बरोंमें प्राकृत भाषा के अध्ययनको इस तरहपर उत्तेजन देना प्रारम्भ किया है । दिगम्बर समाजमें प्राकृत भाषाका ज्ञान प्रायः लुप्त हो गया है और उसके अधिकांश विद्वान् संस्कृत टीकाओंके सहारेले ही प्राकृत ग्रन्थोंसे काम ले रहे हैं। इसलिए समाजमें नियमानुसार प्राकृत भाषा की शिक्षाकी बड़ी जरूरत है जिससे प्राकृतके मूल ग्रन्थोंका मूलपरसे ही अध्ययन करके उनका विशेष रसास्वादन हो सके । दिगम्बरोंको अपने श्वेताम्बर भाइयों की तरह इस विषय की ओर खास तौर से ध्यान देना चाहिए । ६- ब्रह्मचारीजीकी जैनगज़ट के सम्पादकको सूचना । ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने, हिन्दी जैनगजटके किसी लेखको लक्ष्य करके उसके सम्पादकके नाम, जो सूचना जैनमित्रकेतांक नं० = में, निकाली है वह इस प्रकार है। : "यदि जैनगजट के सम्पादक यह चाहते हो कि कोई भी व्यक्ति जो विधवा विवाहकी तरफ हो उसे दि० जैनसमाजसे निकाल देना चाहिए तो उन्हें दिगम्बर जैनसमाजकी शुद्धि करनी पड़ेगी । सैतवाल व चतुर्थ जातिमें व शायद पंचममें भी जिनकी संख्या दिगम्बरोंमें एक डेढ़ लाख होगी, विधवाविवाह कराते हैं तथा For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैनहितैषी। [भाग ४ दक्षिणके भट्टारक ऐसा करनेकी आशा ये सब बातें मानी जा सकती हैं ? जकर देते हैं। ये लोग प्रतिष्ठा भी करते व आपपर आक्षेप होंगे। आपको तो उनसे 'कराते हैं तथा मन्दिरोंमें यत्र तत्र प्रक्षाल- बचनेके लिए यही कहना चाहिए था कि, पूजन भी करते हैं। इन्हींमसे कुछ लोग ऐसे लोगोंको जैनी ही न समझा जाय महासभा व प्रान्तिक सभाके सभासद और न उनसे किसी प्रकारका कोई भी होंगे, परन्तु ऐसा ऊधम करनेसे दि. सम्बन्ध रक्खा जाय ! बल्कि, वश चले जैनसमाजमें बड़ी खलबली पैदा होगी। तो, उन्हें देशसे भी निकाल दिया जाय ! इसमें सन्देह नहीं कि सम्पादकको इस ऐसा करनेपर रघुनाथदासजी जैसे पंडितप्रथाका विरोध करना चाहिए व उपदेश जन जरूर आपपर प्रसन्न होते और आप. देकर इन सबको भी रोकना चाहिए तथा का बहुत कुछ यशोगान करते । प्राशा है, अन्योंके भावोंको भी बदलना चाहिए। ब्रह्मचारीजी श्रागेसे इस नेक सलाहपर परन्तु कोई भी सम्बन्ध ऐसे विचार- जरूर ध्यान रक्खेंगे। और यदि उन्हें ऐसे . वालोंसे न रखना वर्तमान स्थितिको देखते पण्डितोका अाराधन इष्ट होगा तो वे हुए बुद्धिमानी न होगी। और अनैक्य जरूर उसपर अमल करेंगे । अन्यथा, बढ़ाने प्रत्युत् विधवाविवाहके पक्षको अपने अन्तःकरणकी आवाजके अनुकूल मजबूत करने में कारणीभूत पड़ेगी। स्पष्टवादी होना उनका खास धर्म है, सम्पादकको सोच समझकर लिखना जिसके पालनमें उन्हें सदा सावधान चाहिए।" रहना चाहिए। सूचना यद्यपि बहुत कुछ ठीक है, परन्तु जहाँतक हम समझते हैं, ऐसी सूच- ७-क्या में पत्र-सम्पादक हो सकूँगा। नाओंके निकालने अथवा बातोंके लिखने- परलोकगत मि० डब्ल्यू टी० स्टेडका से ही ब्रह्मचारीजीपर व्यक्तिगत आक्षेप नाम पत्र-सम्पादकोंमें विशेष उल्लेख योग्य होते हैं, जिनकी वे अपने पत्रमें खास है। श्राप सम्पादन-कलाके प्राचार्य माने तौरसे शिकायत करते हैं । इसलिए यदि जाते हैं। आपका प्रभाव इतना बढ़ा चढ़ा वे उन आक्षेपोंसे बचना चाहते हैं तो, था कि बड़े बड़े राजा भी आपसे परामर्श हम उन्हें यही सलाह देगे कि वे इस लिया करते थे। प्रकारके लेख न निकाला करें; बल्कि ऐसे प्राक्षेपकारियोंकी पूरी तौरसे हाँ हाँ एक समय, लगभग ३० वर्ष पूर्व, ही मिलाया करें जिससे फिर उन्हें व्यक्ति ___ "टाइम्स" के वर्तमान प्रधान सम्पादक गत आक्षेपों के लिए जरा भी चिन्ता न मि० विकहम स्टेडने उनसे पूछा कि मैं करनी पड़े। भला जिस विधवाविवाहके सम्पादक हो सकूँगा या नहीं। इसके विरुद्ध इतना आन्दोलन हो रहा है और उत्तरमें मि० डब्ल्यू. टी० म्टेडने जो कुछ जिसपर प्रकाश डालनेवाले कुछ लेखोंको कहा वह "श्राज” के शब्दोंमें इस प्रकाशित करनेके अपराध ही कतिपय प्रकार है का पत्रोंका, वास्तवमें, बहिष्कार किया गया “सम्पादक, मैं क्या जानूँ, आप सम्पाहै, उसीके तरफदारोंके साथ सम्बन्ध दक होने के योग्य हैं या नहीं ? इसके जाननेरखनेकी आप सलाह देते हैं, यह कैसे का एक ही उपाय है। यदि आप वास्तवमें सहन हो सकता है ? और कैसे आपकी कुछ कहना चाहते हैं तो उसे लिखिए For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४] विविध विषय । और किसी सम्पादकके पास भेज दीजिए। “माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाने १६ अपूर्व सम्भवतः वे उसे लौटा देंगे। केवल रत्न प्रकाशित करके प्राचीन दिगम्बर शब्दालङ्कारके लिए समय नष्ट न कीजिए। जैनसाहित्यका जो उद्धार किया है उसके जो कहना हो बिना आडम्बरके उसे कह लिये वह कमेटी तथा खासकर वह मन्त्री डालिए । जब लेख समाप्त हो जाय तब जिनके उद्योगसे लुप्तप्राय ग्रन्थ जैसे कल्पना कीजिए कि आपको अपने खर्चसे नयचक्र, युक्त्यनुशासन, आराधनासार, उसे तारद्वारा आस्ट्रेलिया भेजना है, एक पात्रकेसरीस्तोत्र, तत्वानुशासन, अनएक अनावश्यक शब्द चुन चुनकर निकाल गार-धर्मामृत आदि प्रकट, हुए, जैनबाहर कीजिए और विशेषतः विशेषणों- समाजकी ओरसे धन्यवादके पात्र हैं। का बहिष्कार कीजिए। इसके बाद यदि नाथूरामजी प्रेमीने मन्त्रीका काम बड़ी कुछ रह जाय तो किसी सम्पादकके पास सच्चाईके साथ किया है। उनके कामको भेजिए और देखिए, क्या होता है। यदि देखकर तथा यह विश्वास करके किं असफल हों तो बार बार प्रयत्न कीजिए, उनके उद्योगसे बहुतसे प्राचीन ग्रन्थोंका जबतक आप विशेष कहना न चाहते हो उद्धार हो जायगा, हमने १०००) रुपएतबतक असफलता रक्खी हुई है। इस का फण्ड समाजसे एकत्र किया । आज प्रकार प्रयत्न करनेके बाद श्राप जान मन्त्रीजीका इस्तीफा पाकर हमारे चित्तसकेंगे कि आप सम्पादक होनेके योग्य हैं को बहुत दुःख हुआ। इस्तीफा देनेका वा नहीं।" कारण केवल यही है कि हिन्दी जैनगजटहमारे देशके होनहार लेखकोंको भी के सम्पादक उनके हाथसे काम निका लना चाहते हैं। उनको यह भ्रम है कि इसका मनन करना चाहिए । इससे वर्तमान सम्पादकोंके अनेक कष्ट कट जायँगे, कहीं वे अपना विधवा-विवाह-पोषक मत लेखकोंको बहुत कम हताश होना पड़ेगा। किसी ग्रन्थमें न रख देवें । इसीसे उदार तथा हिन्दीमें भी अच्छे सम्पादक उत्पन्न होकर मन्त्रीजी काम छोड़ रहे हैं। हम होंगे। . (श्रीशारदा). _ नाथूरामजीसे कहेंगे कि आपको ऐसे १५• लेखोसे घबराना नहीं चाहिए । जैन... बात बहुत ठीक है। जैनसमाजके समाज में गालियाँ सहकर भी काम करना लेखकोंको ही नहीं बल्कि कितने ही पत्र- चाहिए । हिन्दी जैनगजटने जो ग्रन्थसम्पादकोंको भी इसपर खास. तौरसे मालाकी कमेटीको लिखनेके पहले बिना ध्यान देना चाहिए। सोचे समझे ऐसा मत प्रकट कर दिया ८-हृदय-हीनता और अनुभव- सो एक महत्वके कार्य में अन्तराय डालने का काम किया है। भले ही नाथूरामजीके शून्यता। कैसे ही विचार हो पर उनपर ऐसा दोष .. माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके मन्त्री श्री- तब ही लगाया जा सकता था जब उनके युत पण्डित नाथूरामजी प्रेमीके कार्यकी द्वारा किसी भी ग्रन्थमें ऐसा कहा (किया) प्रशंसा और उनके इस्तीफेका उल्लेख गया हो । दूसरे, यह बात नाथूरामजीसे करते हुए, ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने, सम्भव ही नहीं है क्योंकि वे संस्कृत अपने गत छठी जनवरीके जैनमित्रमें जो प्राकृत ऐसी नहीं जानते कि किसी ग्रन्थकुछ लिखा है वह इस प्रकार है,- में परिवर्तन कर सकें । तीसरे, ग्रेन्याको For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। .. [ भाग १५ प्रेसके लिए लिखने व प्रूफ संशोधनका नहीं बन सकता। जो लोग उनपर सन्देह काम जैनशास्त्रीगण करते रहते हैं। पहले करते हैं वे, निःसन्देह, हृदयहीन और पण्डित मनोहरलालजी यह कार्य करतेथे; अनुभव-शून्य हैं, उन्होंने अभीतक प्रेमीजीअब पं० पन्नालालजी सोनी कर रहे हैं। को नहीं पहचाना । नहीं मालूम, हिन्दी यदि ये शास्त्री अनुचित विचार रखते होते जैनगजटके सम्पादककी यह हृदयहीनता तो आपको लिखना था कि इनको बदल- और अनुभव-शून्यता समाजको क्या क्या कर अमुकको रख दो। सम्पादकोंको बहुत हानि पहुँचावेगी। उन्हें इतनी भी समझ समझकर कलम उठानी चाहिए व लेख बूझ न हुई कि ग्रन्थमालामें जो ग्रन्थ प्रसिद्ध करना चाहिए। जैनसमाजमें इने निकलते हैं उन्हें यदि वे स्वयं नहीं पढ़ गिने काम करनेवाले हैं। यदि हम इनसे सकते तो दूसरे कितने विद्वान् पढ़ते हैं काम लेना बन्द करेंगे तो फिर सब ही और कितने खोजी विद्वान् मूल ग्रन्थोकी काम बन्द हो जायँगे। भाई नाथूरामजी अनेक प्रतियों परसे उनकी जाँच किया व ग्रन्थमाला कमेटीको जैनगजटके करते हैं; कोई कुल्हियामें गुड़ नहीं फूटता, लिखनेका खयाल छोडकर अपने दि० वे पबलिकके सामने विचार और जाँचके जैन साहित्यके उद्धारमें डटे रहना लिए रक्खे जाते हैं। ऐसी हालतमें कोई चाहिए।" खास गोलमाल कैसे चल सकता है और हमें ब्रह्मचारीजीके इस नोटसे श्रीयुत किस सहृदय व्यक्तिको उसके करनेकी भाई नाथूरामजी प्रेमीके इस्तीफेका हाल जुरअत हो सकती है। और उसका कारण मालूम करके हिन्दी जैनगजटके सम्पादककी बुद्धिपर बहुत 8-गांधी सिगरेट । ज्यादा अफ़सोस और खेद हुमा । ब्रह्म किसी कारखानेने अपने सिगरेटके चारीजीने उसपर जो कुछ नोट किया है । पैकटोंके ऊपर महात्मा गांधीका चित्र उससे हम प्रायः सहमत हैं; परन्तु उनकी यह बात माननेके लिए बिलकुल तैयार नहीं ' छापकर उसका नाम "महात्मा गांधी हैं कि, प्रेमीजीसे ग्रन्थों में परिवर्तन होना सिगरेट" रक्खा है। इसपर गांधीजीने जो इस वजहसे सम्भव नहीं है कि वे संस्कृत कुछ लिखा है वह "भविष्य के शब्दों में इस प्रकार है-"इससे अधिक जिल्लतकी प्राकृत इतनी नहीं जानते कि परिवर्तन बात और कोई नहीं मालूम होती कि कर सकें। यह बात बिलकुल बच्चोंको सिगरेट के साथ मेरे नामका संयोग किया बहकाने जैसी है। हमारा कहना यह है जाय । मैं सगिरेट पीनेसे उतनी ही घृणा प्रेमीजी योग्यताकी दृष्टिसे-संस्कृत प्राकृतकेशानकी दृष्टिसे-सब कछ परिवर्तन करता हूँ जितनी शराब पीनेसे। तम्बाकू कर सकते हैं, परन्तु उनके आत्मामें पीना मैं बुरा समझता हूँ। इससे आदमीजितना धार्मिक बल मौजूद है, जिस का अन्तःकरण मुरदा हो जाता है। और नैतिक चरित्रके वे व्यक्ति हैं और उनके वह शराब पीनेसे भी इस मानेमें बुरा है मन्दर जितना मनुष्यत्व तथा सत्यनिष्ठा- कि इसका प्रभाव चुपचाप पड़ता है। का भाव पाया जाता है उसकी दृष्टिसे यह एक ऐसी बुरी आदत है कि जहाँ उनके द्वारा ऐसी कूट-लेखकताका कार्य इसने एक दफा आदमीपर अपना कब्जा होना नितान्त असम्भव है और कभी कर लिया कि फिर इससे छूटनामुश्किल हो For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECENTREAMPIE D विविध विषय। जाता है । इसमें खर्च भी बहुत होता है। कि-"एक दफे पण्डित धन्नालालजी इससे साँसमें बदबू आने लगती है, दाँत (इस सभाका) विरोध कर चुके थे, इसमैले हो जाते हैं और कैसरे (कीड़े) पैदा लिए उन्हें अपनी बात रखनेको फिर भी हो जाते हैं। यह एक बड़ी गन्दी आदत विरोध करनेके लिए पं० देवकीनन्दनजीहै। किसी प्रादमीको यह अधिकार नहीं को भेजना पड़ा जिन्होंने इस प्रान्तमें है कि सिगरेटके साथ मेरे नामका संयोग आने जानेवाले मुखिया सेठ चैनसुख करे । मैं उस अज्ञात कारखानेको धन्य- छावड़ा तथा सिंहई कुँवरसेन सिवनीको वाद दूंगा यदि वह बाज़ारोंसे इस किस्मके अपनी सम्मतिमें गाँठकर सर्व अन्य सिगरेट हटा ले, अन्यथा जनता ऐसे मण्डलीको सभामें आनेसे रोका।" इसके सिगरेटोंका प्रयोग करना छोड़ देगी।" बाद श्राप जैनियोंमें देशसेवाके भावको महात्मा गांधी जैसे पूज्य और पवित्र जागृत करनेके लिए इस सभाकी बहुत नामके साथ सिगरेट जैसी अपवित्र और बड़ी आवश्यकता बतलाते, उपयोगिता हानिकर वस्तुका नाम जोड़ना और दशाते और सभाके उद्देश्यों तथा अधिसाथ ही उनका चित्र भी उसके पैकटों वेशनके कार्योंकी प्रशंसा करते हुए लिखते पर छापना, निःसन्देह, बड़ी ही धृष्टताका हैं कि-"ऐसी दशामें भी विरोध करना कार्य है। जो लोग महात्मा गान्धीका व शामिल न होना इस कार्ररवाईसे जैनमान करते हैं उन्हें चाहिए कि वे ऐसे जातिको देशसेवासे दूर ले जानेका दोष सिगरेटोका कदापि व्यवहार न करें। सम्पादन करना है।" और अन्तमें ब्रह्मबल्कि, बन सके तो उन्हें तम्बाकू पीना। चारीजीने पं० धन्नालालजी और उनके भी छोड़ देना चाहिए जिसे महात्माजी अनुयायियोंको ऐसी सभाओंमें शामिल इतना बुरा समझते हैं। होकर देशसेवाके कामोंमें भाग लेनेकी अनेक प्रकारसे प्रेरणा की है। परन्तु १०-देशसेवा और जैन पण्डित । हमारी रायमें ब्रह्मचारीजी ऐसे दकिया नूसी ख़यालके जैन पण्डितोंके साथ देशदेशसेवाके कामों में भाग लेनेके लिए सेवाकी बातें करते हुए भूलते हैं। शायद · कुछ असेंसे 'जैन पोलिटिकल कॉन्फ्रेन्स' उन्हें इस बातका ख़याल नहीं है कि नामकी एक सभा स्थापित है । गत दिस- .. भारतवर्ष में तेंतीस करोड़ मनुष्योंका म्बर मासमें कांग्रेसके अवसरपर, नाग- वास है और उनमें ये पण्डित लोग पुरमें, इसका चतुर्थ अधिवेशन सेठ पद्म- ज्यादासे ज्यादा तीन चार लाख दिगम्बर राजजीरानीवालोंके सभापतित्वमें सानन्द जैनियोको ही सम्यग्दृष्टि मान सकते हैं, हो गया। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, देशके बाकी सब लोग उनकी समझमें अपने पत्र में इस अधिवेशनका कुछ विव- मिथ्यादृष्टि हैं। तब, देशकी सेवा करना रण देते हुए, इस बातपर दुःख प्रकाशित मिथ्याष्टियोंकी सेवा करना है और करते हैं कि सभामें पण्डित लोग और मिथ्यादृष्टियोकी सेवासे मिथ्यात्वके उनके अनुयायी दूसरे सेठ आदिक नहीं अनुमोदन तथा अभिनन्दनका दोष आये, जिन सबमें देशसेवाका भाव जागृत लगता है जो उन्हें कभी इष्ट नहीं हो करनेके लिए यह सब प्रयत्न किया गया सकता ! फिर भला आपकी देशसेवाकी । था, और उसका कारण यह बतलाते हैं बातको ये पुराने दकियानूसी खयालके - For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भाग १ पंडित लोग कैसे मान सकते हैं ? आप देता है। जिनकी ऐसी विलक्षण भावनाएँ उन्हें दिगम्बर जैनियोंकी ही सेवाका कुछ हो उन्हें देशसेवाके लिए प्रेरित करके उपदेश दीजिए, शायद वे उसे मान जायें! आप कहाँतक सफल हो सकेंगे, इसे खुद परन्तु आजकल तो वे असहयोगमें आ रहे सोच लीजिए। आप उन्हें देशसेवाकी हैं और महात्मा गांधीके असहयोगसे भी जगह 'देशकी करणा' अथवा 'देशपर उनके असहयोगका नम्बर बढ़ा हुआ है ! दया' करनेके लिए कहिए । शायद वे इन महात्मा गांधी तो सरकारसे ही असह- शब्दोंके कारण ही आपकी कुछ बात सुन योग करनेको कहते हैं और आपसमें ले और देशके कामोंमें कुछ योग देने सहयोगकी यहाँतक उत्तेजना दे रहे हैं लगें । परन्तु हमें तो उनसे ऐसी कुछ भी कि अन्त्यजों और अछूतोंके साथ भी आशा नहीं है। देश चाहे रसातलको सहयोग करना सिखलाते हैं और उन्हें चला जाय-गलामोसे भी परे गलाम घृणाकी दृष्टिसे देखनेका निषेध करते हैं। बन जाय, जैनजाति अपने सर्वाधिकारोंसे परन्तु जैन पंडित अापसमें भी असह- वञ्चित हो जाय और चाहे देशभरकी योगकी शिक्षा दे रहे हैं ! वे अपने जातीय सहानुभूति खो बैठे; परन्तु इससे उन्हें भाइयों और जातीय पत्रोंका बहिष्कार क्या ? वे तो धर्मके ठेकेदार बने बैठे हैं, कर रहे हैं। इतना ही नहीं, बल्कि यदि उनकी उस ठेकेदारीमें फरक न आना कोई भाई 'जाति और धर्मकी सेवाका चाहिए ! * .. कोई काम कर रहा हो-जैसे कि ऐति ११-चलते फिरते मकान । हासिक काम या दुष्प्राप्य और अलभ्य जैन ग्रन्थोंकी खोज जैसा निर्दोष काम- जबलपुरकी 'हितकारिणी' सूचित तो ये लोग उसमें भी सहायता देना करती है कि 'इङ्गलैंडमें एक बड़ी इमारत : पसन्द नहीं करते ! यही वजह है कि ऐसे एक स्थानसे दूसरे स्थानको उठाकर भेज किसी पंडितने जैनहितैषीको उसके इन दी गई है। यह इमारत ६०. फुट लम्बी कामों में बहुत कुछ प्रार्थना और प्रेरणा और उतनी ही चौड़ी है; लकड़ी, मिट्टी करनेपर भी कोई सहायता नहीं दी। और चूनेके मेलसे बनी है और उसका इससे आप समझ सकते हैं कि ये लोग वजन १५० टन है । इमारत जमीनपर अपने वर्तमान अनुदार विचारोंकी हालत- नहीं किन्तु लोहेके दासेपर, जिसमें चक्र में देशसेवा तो क्या, अपने दिगम्बर लगे हुए थे, खड़ी की गई थी। इसमें एक भाइयोंकी सेवाके लिए भी कहाँतक प्रस्तुत दफ्तर है जिसका काम इमारतको खींचहो सकते हैं। कर ले जाते समय बराबर जारी रहा ____ हाँ, एक बात और भी ध्यानमें रखिये। और उसमें टेलीफोन भी वैसे ही लगा वह यह कि 'सेवा' शब्द तो बहुत बड़ा रहा ।' अभीतक मकानात स्थावर है । वह तो अपने पूज्योंके लिए ही व्यवहृत किया जाता है, जैसे देवकी सेवा *समाजमें कितने ही पण्डित ऐसे हैं जिनसे यह नोट और गुरुकी सेवा। सम्यग्दृष्टि तो अपने प्रायः सम्बन्ध नहीं रखता, न उनके वैसे दकियानूसी मिथ्यादृष्टि मातापिताओंकी भी सेवा विचार हैं जिनका इस नोटमें इशारा है। इसलिए उन्हें नहीं किया करता (१), उनपर करुणा इसपरसे जरा भी असन्तुष्ट होनेकी जरूरत नहीं है। . अथवा दया करके कुछ काम जरूर कर ......... ............. -सम्पादक। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ३-४ सूत कातनेका कर्तव्य। सम्पत्तिमें समझे जाते थे; परन्तु अब इस इस समय इस सूतका जो दाम मिलता प्रकारके चलते फिरते मकानोंके प्रावि- है वह औसत हिसाबसे ४० तोले या कारसे वे जंगम सम्पत्तिमें भी परिगणित प्राधा सेर सूतके पीछे चार आना है, होने लगेंगे! अर्थात् एक घण्टेका एक पैसा पड़ा। इसलिए हर चरखेसे रोज तीन पाना . १२-सूत कातनेका कर्तव्य । मिलना चाहिए । मजबूत चरखा ७ रुपये में मिलता है। इस तरह १२ घण्टे रोज [ लेखक-महात्मा गान्धी।] काम करनेसे ३५ दिनसे कम ही समय में (“यंग इंडिया). इसका दाम निकल पाता है । इस हिसाबको ध्यानमें रखकर कोई भी अपने "स्वराज्यकी कुञ्जी" शीर्षक लेखमें मैंने कामका हिसाब बैठा सकता है। इस यह दिखलानेकी चेष्टा की है कि घर घर हिसाब पर कोई हिसाब लगाता जाय सूत कातनेका प्रचार करनेसे देशका कितना तो परिणाम देखकर उसके आश्चर्यका बड़ा लाभ है। भविष्यत्के किसी भी पारावार न रहेगा। शिक्षाक्रममें, सूत कातना एक आवश्यक यदि प्रत्येक स्कूलमें सूत कातना विषय होना चाहिए । जैसे हम लोग बिना साँस लिये, बिना भोजन किये जी सिखलाया जाय तो शिक्षाका व्यय चलानेनहीं सकते, वैसे ही घरमें सूत कातनेकी के सम्बन्धमें आज जो हमारे विचार हैं, प्रथाका जीर्णोद्धार किये बिना हमारा वे एकदम बदल जायँ। हम दिनमें छः आर्थिक स्वराज्य प्राप्त करना और इस घण्टेका स्कूल रख सकते हैं और लड़को. प्राचीन भूमिसे दरिद्रताको भगा देना को मुक्त शिक्षा दे सकते हैं। मान लीजिए असम्भव है। मेरा यह मत है कि प्रत्येक कि एक लड़का नित्य प्रति ४ घण्टे चरखा घरके लिए चरखा उतना ही आवश्यक चलाता है तो वह रोज १० तोले सूत है जितना कि रसोईघरमें चूल्हा । इसके निकालेगा और इस तरह स्कूल के लिए सिवा और कोई दूसरा उपाय नहीं है वह रोज एक आना कमावेगा । मान • जिससे इस देशकी दिन दिन बढ़ती हुई लीजिए कि पहले महीने में उससे काफी दरिद्रताका प्रश्न हल हो सके। सूत न निकला और २६ दिनका स्कूल तब घर घरमें चरखेका प्रवेश कैसे रहा। पहले महीनेके बादसे वह १॥ हो ? मैंने तो पहलेसे ही कह रखा है कि महीना कमा लेगा। इसी हिसाबसे जिस प्रत्येक राष्ट्रीय विद्यालयमें चरखा चलाना श्रेणीमें ३० बालक हैं उस श्रेणीको पहले और सूत निकालना सिखाया जाना मह महीनेके बादसे ४८) महीनेकी श्रामचाहिए। जहाँ एक बार हमारे लडके- दनी हो जायगी। लड़लियोंने यह कला सीख ली तहाँ वे मैंने साहित्यकी शिक्षाके सम्बन्धमें उसे आसानीसे अपने घर ले जा सकते हैं। कुछ नहीं कहा है । यह शिक्षा ६ घंटोमेसे .. पर इसके लिए संगठनकी आवश्य- बाकीके दो घण्टोंमें दी जा सकेगी। कता है। चरखा प्रति दिन १२ घण्टे इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हर एक चलाना चाहिए। अभ्यस्त मनुष्य एक स्कूल बिना विशेष परिश्रमके अपना घण्टेमें ढाई तोला सूत कात सकता है। खर्च आप चला सकता है और देश For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैसाहितषी। [भाग १५ • अपने स्कूलों के लिए अनुभवी अध्यापक सीधासादा काम है, लोग इसे जल्दी सीख पा सकता है। सकते हैं और हर गाँव में विशेष व्यय किये इस स्कीमको अमल में लाने में बड़ी बिना इसका प्रचार कर सकते हैं। भारी कठिनाई चरने की है । यदि इस यह शिताक्रम मैंने केवल इसी शुद्धि कलाको लोग पसन्द कर ले तो हमें और उम्मेदवारीके वर्षके लिए ही सचित हजारों चरखोकी जरूरत होगी। सौभा- किया है। जब फिरसे सब ठीकठाक हो ग्यका विषय है कि हर गाँवका बढ़ई जायगा और स्वराज्यकी स्थापना हो लेगी प्रासानीसे यह यन्त्र तैयार कर सकता तब सूत कातनेका काम केवल १ घण्टा है। आश्रमसे या और कहीं चरखा कर सकते हैं और बाकी समय साहित्यमँगाना पड़ी भारी भूल है। सूत कातने की शिक्षामें लगा सकते हैं। की कलामें यह खूबी है कि यह बिलकुल (भारतमित्र) For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के प्राचीन राजवंश । हिन्दी में इतिहासका एक अपूर्व ग्रन्थ | इस देश में पहले जो अनेक वंशके बड़े बड़े प्रतापी, दानी और विद्याव्यवसनी राजा महाराज हो गये हैं उनके सच्चे इतिहास हम लोग बिलकुल नहीं जानते । बहुतों के विषय में हमने तो झूठी, ऊटपटांग किम्बदन्तियाँ सुन रक्खी हैं और बहुतोको हम भूल ही गये हैं । इस ग्रन्थ में क्षत्रपवंश, हैहयवंश (कलचुरि ) परमार वंश (जिसमें राजा भोज, मुंज, सिन्धुल आदि हुए हैं), चौहानवंश ( जिसमें प्रसिद्ध महाराज पृथ्वीराज हुए हैं ), सेनवंश और पालवंश तथा इन वंशकी प्रायः सभी शाखा के राजाओंका सिलसिलेवार और सच्चा इतिहास प्रमाणसहित संग्रह किया गया है । शिलालेखों, ताम्रपत्रों, ग्रन्थप्रशस्तियों, फारसी अरबीकी तवारीखों तथा अन्य अनेक साधनोंसे बड़े हो परिश्रमपूर्वक यह ग्रन्थ रचा गया है। प्रत्येक इतिहासप्रेमी को इसकी एक पक प्रति मँगाकर रखनी चाहिए । इसमें अनेक F. जैन विद्वानों तथा जैन धर्मप्रेमी राजाओंका भी उल्लेख है । लगभग ४०० पृष्ठोंका कपड़े की जिल्द सहित ग्रन्थ है । मूल्य ३) रु० । श्रागेके भागोंमें गुप्त, राष्ट्रकूट आदि वंशों के इतिहास निकलेंगे । नकली और असली धर्मात्मा । श्रीयुत बाबू सूरजभानुजी वकीलका लिखा हुआ सर्वसाधारणोपयोगी सरल उपन्यास | ढोंगियोंकी बड़ी पोल खोली गई है। मूल्य ॥ नया सूचीपत्र | उत्तमोत्तम हिन्दी पुस्तकोंका १२ पृष्ठोंका नया सूचीपत्र छपकर तैयार है । पुस्तक-प्रेमियों को इसकी एक कापी मँगा कर रखनी चाहिए । मैनेजर, हिन्दी - ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । उत्तमोत्तम जैन ग्रन्थ नीचे लिखी श्रालोचनात्मक पुस्तकें विचारशीलों को अवश्य पढ़नी चाहिएँ । साधारण बुद्धिके गतानुगतिक लोग इन्हें न मँगावें । १ ग्रंथपरीक्षा प्रथम भाग । इसमें कुन्दकुन्द श्रावकाचार, उमास्वाति - श्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थोंकी समालोचना है । श्रनेक प्रमाणसे सिद्ध किया है कि ये असली जैनग्रन्थ नहीं हैं-भेषियोंके बनाये हुए हैं । मूल्य = ) २ ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग । यह भद्रबाहुसंहिता नामक ग्रन्थकी विस्तृत समालोचना है । इसमें बतलाया है कि यह परमपूज्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ ग्रन्थ नहीं है, किन्तु ग्वालियर के किसी धूर्त भट्टारकने १६-१७ वीं शताब्दिमें इस जाली ग्रन्थको उनके नामसे बनाया है और इसमें जैनधर्म के विरुद्ध सैंकड़ों बातें लिखी गई हैं। इन दोनों पुस्तकों के लेखक श्रीयुक्त बाबू जुगुल किशोरजी मुख्तार हैं । मूल्य ।) ३ दर्शन मार । श्राचार्य देवसेनका मूल प्राकृत ग्रन्थ, संस्कृतच्छाया, हिन्दी अनुवाद और विस्तृत विवेचना । इतिहासका एक महत्वका ग्रन्थ है । इसमें श्वेताम्बर, यापनीय, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, द्राविड़संघ श्राजीवक (अज्ञानमत ) और वैनेयिक आदि अनेक मतोंकी उत्पत्ति और उनका स्वरूप बतलाया गया है । बड़ी खोज और परिश्रमसे इसकी रचना हुई है । आत्मानुशासन । भगवान् गुणभद्राचार्यका बनाया हुआ यह ग्रन्थ प्रत्येक जैनीके स्वाध्याय करने योग्य है । इसमें जैनधर्मके असली उद्देश्य शान्तिसुखकी ओर आकर्षित किया गया है । बहुत ही सुन्दर रचना है । श्राजकल For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शुद्ध हिन्दीमें हमने न्यायतीर्थ न्याय के कथाग्रन्थों में इससे अच्छी और सुन्दर शास्त्री पं० वंशीधरजी शास्त्रीसे इसकी कविता श्रापको और कहीं न मिलेगी। टीका लिखवाई है और मूलसहित छप- विद्यार्थियोंके लिये भी बहुत उपयोगी है। वाया है / जो जैनधर्मके जाननेकी इच्छा शास्त्रसभाओं में बाँचनेके योग्य है। बहुत रखते हैं, उन जैन मित्रोंको भेटमें देने सुन्दरतासे छपा है / मूल्य सिर्फ 1) रु.। योग्य भी यह ग्रन्थ है / मूल्य 2) कथामें जैनसिद्धान्त। युक्त्यनुशासन सटीक। एक मनोरंजक कथाके द्वारा जैनधर्ममाणिकचन्द्र-जैनग्रन्थमालाका 15 वाँ की गूढ़ कर्म-फिलासफीको सरलतासे ग्रन्थ छपकर तैयार हो गया। इसके मूल- H समझना हो और एक बढ़िया काव्यका कर्ता भगवान् समन्तभद्र और संस्कृत श्रानन्द लेना हो तो श्राचार्य सिद्धर्षिके टीकाके कर्ता श्राचार्य विधानन्दि है / यह बनाये हुए "उपमितिभवप्रपचाकथा' भी देवागमकी भॉति स्तुत्यात्मक है और नामक संस्कृत ग्रन्थके हिन्दी अनुवादको युक्तियोंका भाण्डार है / अभी तक यह अवश्य पढ़िये। अनुवादक श्रीयुत नाथूराम ग्रन्थ दुर्लभ था / प्रत्येक भण्डारमें इसकी प्रेमी / मूल्य प्रथम भागका // ) और द्वितीय एक एक प्रति अवश्य रहनी चाहिए मू॥) भागका |-) जैन साहित्यमें अपने ढंगका नियमसार। यही एक ग्रन्थ है। - भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका यह बिलकुल संस्कृत ग्रंथ / ही अप्रसिद्ध ग्रन्थ है। लोग इसका नाम 1 जीवन्धर चम्पू-कवि हरिचन्द्रकृत। 1 / ) भो नहीं जानते थे / बड़ी मुश्किलसे प्राप्त 2 गद्यचिन्तामणि-वादीभसिंहकृत। 2) करके यह छपाया गया है / नाटक समय- 3 जीवन्धरचरित-गुणभद्राचार्यकृत / 1) सार श्रादिके समान ही इसका भी प्रचार 4 क्षत्रचूड़ामणि-वादीभसिंहकृत। मू०१) होना चाहिए / मूल प्राकृत,संस्कृतच्छाया, 5 यशोधरचरित-वादिराजकृत। मू० ॥)प्राचार्य पद्मप्रभमलधारि देवकी संस्कृत चरचा समाधान / पं. भूधरमिश्र टीका और श्रीयुत शीतलप्रसादजी ब्रह्म- कृत / भाषाका नया ग्रन्थ। हालही में छपा चारीकृत सरल भाषाटीकासहित. यह है। मूल्य 2 // -).. छपाया गया है। अध्यात्मप्रेमियों को अवश्य 'मैनेजर, जैन ग्रथ-रत्नाकर कार्यालय, स्वाध्याय करना चाहिए। मूल्य *) दो रु०। हीराबाग, पो. गिरगाँव बम्बई / नयचक्र संग्रह। यह उक्त ग्रन्थमालाका 16 वाँ ग्रन्थ . __ . बम्बईका माल / है। इसमें देवसेनसूरिकृत प्राकृत नयचक्र बम्बईका सब तरहका माल-कपड़ा, (संस्कृतच्छायासहित) और आलाप किराना, स्टेशनरी, पीतल, ताँबा, दवा इयाँ, तेल, साबुन श्रादि-हमसे मैंगाइये। पद्धति तथा माइल्ल धवलकृत द्रव्यस्वभावप्रकाश (छायासहित ) ये तीन ग्रन्थ माल दस जगह जाँचकर बहुत सावधानी छपे हैं / भूमिका पढ़ने योग्य है। तैयार और ईमानदारीके साथ भेजा जाता है। हो गया। मूल्य // 1) चौथाई रुपयेके लगभग पेशगी भेजना पावपुराण भाषा। चाहिए / एक बार व्यवहार करके देखिये। / कविवर भूधरदासजीका यह अपूर्व नन्हेलाल हेमचंद जैन, ग्रन्थ दूसरी बार छपाया गया है। इसकी कमीशन एजेण्ट, कविता बड़ी ही मनोहारिणी है। जैनियों- चन्दाबाड़ी, पो० गिरगाँव, बम्बई। Printed & Published by G.K. Gurjar at Sri Lakshmi Narayan Press, Jatanbar, B: nares City, for the Proprietor Nathuram Premi of Bombay 51-21. . For Personal & Private Use Only