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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ रत्रमाला। सूची में १००२ नम्बरवाले प्रन्थकी भाषा जो संस्कृत लिखी है वह ग़लत है। यह यह श्रावकाचार विषयका एक छोटा मूल प्राकृत ग्रन्थ कनड़ी टीका सहित है। सा, ६७ श्लोक परिमाण अच्छा संस्कृत इसकी पत्र-संख्या १४० है, सूचीमें वह प्रन्थ है। ग्रन्थके अन्तिम पद्यमें 'स शुद्ध- २६२ ग़लत दर्ज हुई है। इसी तरह १००१ भाषनो नूनं शिवकोटित्वमाप्नुयात्' यह नम्बरवालें ग्रन्थकी पत्रसंख्या भी सूचीमेंवाक्य उत्तरार्ध रूपसे दिया है और इसके की जगह १४ गलत दर्ज है। यह प्रति बाद "इतिश्री समन्तभद्रस्वामिशिष्यशिव- अधूरी है। तीसरा १००३ नम्बरवाला ग्रन्थ कोट्याचार्य विरचितारत्नमालासमाप्ता" अभीतक भवनमें मिला नहीं । परन्तु जहाँ यह समाप्तिसूचक वाक्य है। इससे यह तक हम समझते हैं, वह नेमिचन्द्रकी इसी ग्रन्थ स्वामिसमन्तभद्रके शिष्य शिवकोटि त्रिभंगीका, नं० १००२ के सदृश, कनड़ी , प्राचार्यका बनाया हुआ मालूम होता है। टीकावाला ग्रन्थ गोम्मटसारके कर्ता नेमिन . प्रन्थके मंगलाचरणमें वीर भगवान और चन्द्राचार्यका बनाया हुआ है और इसकी अनेकात्तमय अहद्वचनके बाद सिर्फ कितनी ही गाथाएँ गोम्मटसारमें भी ज्योंसिद्धसेन भट्टारक और स्वामिसमन्त- की त्यों पाई जाती हैं। चौथा 'त्रिभंगी' भद्रकी ही स्तुति की गई है। ये दोनों ग्रन्थ जो देवनागरी लिपिमें है और जिसे स्तुतियाँ इस प्रकार है: सूचीमें श्रीकनकनन्दीका बनाया हुआ सदाऽवदातमहिमा. लिखा है, वह वास्तवमें कई त्रिभंगियोंका . - सदा ध्यानपरायणः । एक संग्रह है, उसमें उक्त नेमिचन्द्रकी भी मिसेन मुनिर्जीयाद् त्रिभंगी हैं और कनकनन्दीकी त्रिभंगीके दो पाठ हैं जिनमेंसे एकमे ४= और दूसरे . भट्टारक पदेश्वरः ॥ ३॥ में ५२ गाथाएँ हैं । कनकनन्दीकी यह स्वामी समन्तभद्रो त्रिभंगी मंगलाचरण और प्रशस्ति सहित __ मेऽहर्निशं मानसेऽनघः । गोम्मटसारके कर्मकांडमें ज्योंको त्यों उद्तिष्ठताज्जिनराजोद्य धृत की गई है और इसे उक्त ग्रन्थका च्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ॥४॥ तीसरा अधिकार बनाया गया है। सिर्फ इस ग्रन्थकी, कनड़ी लिपिपरसे, देव- E या १२ गाथाएँ छोड़ी गई हैं और कुछ नागरी अक्षरोंमें प्रेस कापी तय्यार करा गाथाओंका क्रम भी बदला गया है । ली गई है और अब यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र प्रशस्तिकी वे गाथाएँ जो गोम्मटसारमें ग्रन्थमालामें छप जायगा। भी ज्योंकी त्यों उठाकर रक्खी गई हैं, त्रिभंगी। इस प्रकार हैं: वर इंदणंदिगुरुणो पासे ' 'त्रिभंगी' नामके जिन चार ग्रन्थोका उल्लेख भवनकी सूची परसे किया गया .. सोऊण सयलसिद्धतं । था, उनमेंसे १००१ और १००२ नम्बरके ये सिरिकणयणंदिगुरुणा दोनों ग्रन्थ एक ही ग्रन्थकर्ता नेमिचन्द्र __ सत्तट्ठाणं समुद्दिडं ॥ आचार्यके बनाये हुए हैं, दोनोंका मूल जह चक्केण य चक्की एक ही है और वह प्राकृत भाषामें है। छक्खंड साहियं अविग्घेण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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